Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

तौबा करिए ऐसे छपास रोगियों से!

अपने ऊल-जुलूल आलेख एक साथ चार-पाँच सौ लोगों लोगों को ई-मेल करते हैं !

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी / आप लेखक, विचारक पत्रकार रिपोर्टर हैं। आप को छपास रोग है, अपने ऊल-जुलूल आलेख एक साथ चार-पाँच सौ लोगों लोगों को ई-मेल करते हैं। आपका वही मेल मुझे भी मिला है। धन्यवाद कहूँ या फिर अपना सिर पीटूँ। बहरहाल! इसको आप अपनी प्रॉब्लम न समझें- यह मेरी समस्या है मैं निबट लूँगा। एक बात कहना चाहूँगा, वह यह कि... खैर छोड़िये बस ऐसे भेजते रहिए, छप जाए तो आप की वाह-वाह न छपे तो मन मसोसिए। कुछ सहयोग का भी मूड बनाइए। आप तो अपनी छपास मिटाकर सम्बन्धित से उसकी एवज में कुछ ऐंठ लेते होंगे-या फिर अपना विचार लोगों में शेयर करके आत्मतुष्टि पाते होंगे, लेकिन एक बात बताइए हमें क्या मिलता है...?

अनेकों बार बजरिए एस.एम.एस. आप लोगों से सपोर्ट की माँग किया, परिणाम शून्य। तब दूसरा अस्त्र चलाया कि सदस्यबनें तभी आलेखों का प्रकाशन सम्भव होगा। इसका भी परिणाम कोई खास नहीं। शुरूआती दिनों में कुछेक रिपोर्टर्स ने लोगों के विज्ञापन छपवाकर पैसों का भुगतान किया था, मैं उनका शुक्रगुजार हूँ, लेकिन ऐसे चिन्तक/विचारकों के आलेख जो स्वयं उनकी अभिव्यक्ति है जिसे लोग पसन्द तक नहीं करते हैं को छापकर हमें कुछ भी हासिल नही हो रहा है। यह नहीं ये विचारक पेंशनभोगी हैं, लेकिन दमड़ीका सपोर्ट नहीं करते हैं। 

ऐसे सीनियर्स जिनको इन्टरनेट के इस युग में अपने आत्म प्रचार की लत लगी है, फेसबुक पर अपने विचार अपलोड करें काहे को हमारे जैसों की न्यूज साइट्स/पोर्टल, वेब मैग्जीन्स का पेज बरबाद कर रहे हैं। कई स्वयं भू वरिष्ठ पत्रकारों ने सपोर्ट करने का मूड बनाया और बैंक एकाउण्ट नम्बर पोस्टल ऐड्रेस....आदि तक माँगा बोले सपोर्ट राशि बजरिए चेक भेजेंगे। वाह जनाब एक हम ही रह गए हैं बेवकूफआज के कोर बैंकिंग के जमाने में विश्व के किसी कोने में रहने वाला व्यक्ति किसी को भी पैसे इन्टरनेट के जरिए भेज सकता है। तब पोस्टल ऐड्रेस पर चेक भेजने की क्या आवश्यकता?

माना कि उनमें सपोर्टदेने की क्षमता नहीं रही होगी तभी इतना तामझाम। हमारा मानना है कि ‘‘दाता से सूमैभला जो ठावैं देय जवाब।’’ पाँच वर्ष पूर्व उनका आलेख आया फोटो के साथ, उन्होंने फोन काल भी किया और अपना परिचय दिया बोले कि उनके आलेखों के प्रकाशन उपरान्त कई हजार कमेण्ट्स मिलेंगे न्यूज साइट/पोर्टल वेब मैग्जीन की शोहरत बढ़ेगी। विजिटर्स, व्यूवर्स की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, फोटो थोड़ा-सलीके से लगाना। नया-नया पोर्टल शुरू किया गया था। उनके आलेख छपने लगे। 

टिप्पणी करने को कौन कहें किसी ने भी उन महाशय के आलेख को पसन्द तक नहीं किया, क्योंकि वह कुण्ठित मानसिकता से ग्रस्त अपनी भड़ास समाज के अभिजात्य वर्ग की गतिविधियों संस्कृति का विरोध करके निकालते रहे। फिर धीरे-धीरे उनके आलेखों की अपलोडिंगकम कर दी गई, जिसका उन्हें काफी मलाल हुआ। वेब पोर्टल संचालन में खर्च आता है। वेब साइट्स, वेब डिजाइन, डेवलपिंग, इन्टरनेट, बिजली, कम्प्यूटर्स और सहकर्मियों के खर्चों को जोड़ा जाए तो ऐसे वेब पोर्टल जो सहकारिता पर आधारित नहीं है, अल्पायु होकर विलुप्त हो रहे हैं। 

सहकारिता की वकालत करने वाले एक पोर्टल से अपेक्षाएँ तो ज्यादा रखते हैं लेकिन सपोर्ट की भावना से इतर हटकर। पत्रकारिता में जबरिया दखल रखने वालों की बहुलता भी देखी जा रही है। ये संगठन बनाकर मठाधीशी करते और सू-सू, शौच करने से लेकर अपनी रोजी-रोटी कमाने जैसी क्रियाओं को खबरें बनाकर छपना चाहते हैं, देने के नाम पर इन्हें स्वाइन-फ्लू जैसी संक्रामक बीमारी हो जाती है। हमने तो ऐसों से तौबा करना शुरू कर दिया है और आप के बारे में आपसे बेहतर कौन जाने...?

 

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना