विनीत कुमार/ लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण के मतदान को लेकर जो प्रतिशत हमारे सामने हैं, वो चिंता पैदा करनेवाला है. कोई राजनीतिक पार्टी हारेगी और कोई जीतेगी, इससे पहले ही कारोबारी मीडिया ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को एक हताश लोकतंत्र की तरफ धकेलने का काम किया है.
कारोबारी मीडिया ने लगातार अपने पाठकों-दर्शकों के मुद्दे, संघर्ष और सपनों को नज़रअंदाज़ करके ऐसे नकली, ग़ैरज़रूरी और लोकतंत्र विरोधी मुद्दों को प्रमुखता से प्रसारित किया जो कि सालों से करते आ रहे हैं कि मतदाताओं के भीतर धीरे-धीरे ऐसी हताशा पनपनी शुरु हुई कि अब उन्हें लगता है कि वोट करने से कुछ भी नहीं बदल सकता, हमारा भविष्य वोट देने में नहीं है.
कारोबारी मीडिया ने कभी इस सिरे से सोचकर काम नहीं किया कि जब लोकतंत्र के भीतर नागरिकों का इसकी प्रक्रिया, प्रावधान और बने रहने की ज़रूरत को लेकर उत्साह ही नहीं रहेगा तो फिर हमारे होने का क्या मतलब रह जाएगा ? इसने हमेशा चुनाव को एक युद्ध और आपसी दुश्मनी के तौर पर प्रोजेक्ट किया, इसके भीतर के सुंदर पक्ष पर अपनी बेशर्मी इस तरह पोतने में लगे रहे कि एक हताश मानसिकता बनती चली गयी.
एक-एक बूथ के पीछे हजारों-लाखों रूपये खर्च किए गए. देश के नागरिकों की पसीने की कमाई इसके पीछे लगी होती है लेकिन एकदम सन्नाटा. यह पहला चरण है, आप ख़ुद अख़बार के पुराने संस्करण और चैनलों की क्लिप एक बार खंगालिए, आप पाएंगे कि इनमें मतदाता-देश का नागरिक ही ग़ायब है. किसी ने भी उनके भीतर यह उत्साह पैदा नहीं किया कि चाहे जिसे भी मर्जी हो, वोट देना लेकिन वोट देने जाना ज़रूर. कारोबारी मीडिया ने फौरी लाभ के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को जिस हताशा की तरफ धकेला है, बेहद चिंताजनक है, आज नहीं तो कल, इसका गहरा असर हमें दिखाई देगा और जाहिर है कि इस असर से कारोबारी मीडिया भी मुक्त नहीं होगा.