पुस्तक समीक्षा/ एम. अफसर खां सागर/ अपनी अलग पहचान के साथ खड़े होने वाले रचनाकारों में एक नाम विजय कुमार मिश्र ‘बु़द्धिहीन’का भी है। ‘दर्द की है गीत सीता’ खण्ड काव्य में बु़द्धिहीन ने सीता के बहाने आधुनिक नारी विमर्ष पर सुक्ष्म दृष्टिपात किया है। राम और सीता के पौराणिक आधार को ग्रहण करते हुए उसे ऐसा सहज और स्वाभाविक धरातल दिया है जो वर्तमान के लिए सन्देश है। कवि ने खण्ड काव्य के माध्यम से नारी के प्रति वर्तमान समय की विसंगतियों, विषमताओं व कुत्सित प्रवित्तीयों को चित्रित किया है। सीता की अग्नि परीक्षा पर कवि का क्रान्तिधर्मी भाव मुख्र होता है और वह सामाजिक विद्रुपताओं पर करारा प्रहार करते हुए लिखता है-
यदि सीता नारी, सीता थी दूर राम से/तो पुरूष राम भी थे सीता से दूर।
नारी द्वारा समाज के उत्थान में योगदान के बदले मिलता अपमान, लांछित होती नारी अपने साहस और धैर्य से समाज को महान पुरूष देती है। बावजूद इसके हर वक्त असुरक्षा का भाव; बचपन में, जवानी में, प्रौढ़ावस्था में और बुढ़ापा में अपनी मर्यादा की रक्षा की चिन्ता। कवि ने इसी सीता को वर्तमान के सन्दर्भ में जोड़कर देखा है। बुद्धिहीन ने नारी की मनोवैज्ञानिक स्थित का आकलन करके उसका जीवंत पड़ताल किया है। भाव एवं कला इन दोनों पक्षों की मोहक प्रस्तुति के प्रवाह में पाठक करूण रस की धारा में अवष्य गोते लगायेगा।
काव्य के प्रचलित व वर्तमान प्रतिमानों से भले ही यह रचना दूर नजर आवे, किन्तु भाव पक्ष की कसौटी पर पूरी तरह से खरी है। रचना शोधमूलक शैली में समाज के वस्तुनिष्ठ यथार्थ को निरूपित करती है। खण्ड काव्य की खण्डित होती परम्परा को पुनर्जीवित करने की कड़ी में यह सराहनीय प्रयास है। सरल व बोधगम्य भाषा के प्रयोग द्वारा लेखक की कल्पना सफल दिखती है। निःसन्देह रचना अत्यन्त उपयोगी एवं संग्रहणीय तथा पठनीय है।
पुस्तक- दर्द की है गीत सीता ‘खण्ड काव्य’
कवि- विजय कुमार मिश्र ‘बु़द्धिहीन’
प्रकाशक- पुस्तक पथ, दिल्ली
मूल्य- 200 रूपये, पेपर बैक संस्करण
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समीक्षक- एम. अफसर खां सागर, धानापुर-चन्दौली, उ0प्र0, मोबाइल- 9889807838