हिन्दी सिनेमा, हिन्दी को आम
आदमी की जुबान में न केवल बोलता है बल्कि उसे जीता भी है
मनोज कुमार/ हर बरस की तरह जब इस बरस भी चौदह सितम्बर को राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये हिन्दी दिवस हिन्दी सप्ताह और हिन्दी माह बनाने की तैयारी में जुटे हुये हैं, तब इस बार बात थोड़ा सा अलग अलग सा है। इस बार हिन्दी उत्सवी माह में हम भारतीय सिनेमा के सौ बरस पूरे कर लेने का जश्र मना रहे हैं। हिन्दी और हिन्दी सिनेमा का चोली- दामन का साथ है।
राजनीतिक मंचों पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को विस्तार देने और उसे आम आदमी की भाषा देने के लिये हल्ला बोला जाता है किन्तु सितम्बर के महीने तक ही, लेकिन हिन्दी सिनेमा हिन्दी को आम आदमी की जुबान में न केवल बोलता है बल्कि उसे जीता भी है। हिन्दी सिनेमा हिन्दी ही क्यों, वह तो तमाम हिन्दुस्तानी भाषा और बोली के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये कार्य करता रहा है। भारतीय सिनेमा के सौ बरस की इस यात्रा में भाषा और बोली का कोई प्रतिनिधि माध्यम बना हुआ है तो वह है हिन्दी सिनेमा। हिन्दी सिनेमा ने अपने आपको हर किस्म के बंधन से मुक्त रखा हुआ है। वह मानता है कि कहानी के पात्र जिस भाषा और शैली के होंगे, उसे वह फिल्माना पड़ेगा। यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा बार बार और हर बार का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखता है। भारतीय सिनेमा भाषा और बोली को न केवल बचाने का काम कर रहा है बल्कि उसे विस्तार भी देने का काम कर रहा है। हम यह कहते नहीं थकते कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है लेकिन यह कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच की भाषाए बोली और संस्कृति से हम परिचित नहीं होते यदि हिन्दी सिनेमा हमारे पास नहीं होता। आंचलिक सिनेमा की अपनी सीमायें हैं। वह किसी एक बोली अथवा भाषा में अपनी बात कह सकता है लेकिन भाषाए बोली और संस्कृति की इंद्रधनुषी तस्वीर तो हिन्दी सिनेमा के परदे पर ही आकार लेता दिखता है।
गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज, यह एक और सच है हिन्दी सिनेमा का। जितनी आलोचना हिन्दी सिनेमा की होती हैए संचार माध्यमों में वह शायद किसी की नहीं होती है। शायद यही आलोचना हिन्दी सिनेमा की ताकत भी है। सौ बरस के सफर में हिन्दी सिनेमा ने लोगों का न केवल भरपूर मनोरंजन किया बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृश्य को बदलने में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। आज हिन्दुस्तान तो हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान के बाहर के देशों में भी हमारे हिन्दी सिनेमा की तूती बोल रही है। हमारा गीत.संगीत, हमारे कलाकार के साथ ही समूचा हिन्दी फिल्म उद्योग हमेशा से पूरे संसार के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इन सबके बाद हिन्दी सिनेमा की आलोचना एक बार नहीं बार बार की जाती है। मीडिया में सिनेमा की आलोचना लगभग तयशुदा है। कई दफा तो ऐसा लगता है कि आलोचना के बिना हिन्दी सिनेमा की चर्चा अधूरी रह जाती है।
मनोज कुमार/ हर बरस की तरह जब इस बरस भी चौदह सितम्बर को राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये हिन्दी दिवस हिन्दी सप्ताह और हिन्दी माह बनाने की तैयारी में जुटे हुये हैं, तब इस बार बात थोड़ा सा अलग अलग सा है। इस बार हिन्दी उत्सवी माह में हम भारतीय सिनेमा के सौ बरस पूरे कर लेने का जश्र मना रहे हैं। हिन्दी और हिन्दी सिनेमा का चोली- दामन का साथ है।
राजनीतिक मंचों पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को विस्तार देने और उसे आम आदमी की भाषा देने के लिये हल्ला बोला जाता है किन्तु सितम्बर के महीने तक ही, लेकिन हिन्दी सिनेमा हिन्दी को आम आदमी की जुबान में न केवल बोलता है बल्कि उसे जीता भी है। हिन्दी सिनेमा हिन्दी ही क्यों, वह तो तमाम हिन्दुस्तानी भाषा और बोली के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये कार्य करता रहा है। भारतीय सिनेमा के सौ बरस की इस यात्रा में भाषा और बोली का कोई प्रतिनिधि माध्यम बना हुआ है तो वह है हिन्दी सिनेमा। हिन्दी सिनेमा ने अपने आपको हर किस्म के बंधन से मुक्त रखा हुआ है। वह मानता है कि कहानी के पात्र जिस भाषा और शैली के होंगे, उसे वह फिल्माना पड़ेगा। यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा बार बार और हर बार का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखता है। भारतीय सिनेमा भाषा और बोली को न केवल बचाने का काम कर रहा है बल्कि उसे विस्तार भी देने का काम कर रहा है। हम यह कहते नहीं थकते कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है लेकिन यह कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच की भाषाए बोली और संस्कृति से हम परिचित नहीं होते यदि हिन्दी सिनेमा हमारे पास नहीं होता। आंचलिक सिनेमा की अपनी सीमायें हैं। वह किसी एक बोली अथवा भाषा में अपनी बात कह सकता है लेकिन भाषाए बोली और संस्कृति की इंद्रधनुषी तस्वीर तो हिन्दी सिनेमा के परदे पर ही आकार लेता दिखता है।
गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज, यह एक और सच है हिन्दी सिनेमा का। जितनी आलोचना हिन्दी सिनेमा की होती हैए संचार माध्यमों में वह शायद किसी की नहीं होती है। शायद यही आलोचना हिन्दी सिनेमा की ताकत भी है। सौ बरस के सफर में हिन्दी सिनेमा ने लोगों का न केवल भरपूर मनोरंजन किया बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृश्य को बदलने में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। आज हिन्दुस्तान तो हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान के बाहर के देशों में भी हमारे हिन्दी सिनेमा की तूती बोल रही है। हमारा गीत.संगीत, हमारे कलाकार के साथ ही समूचा हिन्दी फिल्म उद्योग हमेशा से पूरे संसार के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इन सबके बाद हिन्दी सिनेमा की आलोचना एक बार नहीं बार बार की जाती है। मीडिया में सिनेमा की आलोचना लगभग तयशुदा है। कई दफा तो ऐसा लगता है कि आलोचना के बिना हिन्दी सिनेमा की चर्चा अधूरी रह जाती है।
हिन्दी की ऐसी दुर्दशा को देखकर इस बात पर संतोष कर
लेने के लिये हमारे पास हमारा हिन्दी सिनेमा है। एक ऐसा माध्यम जो आम
आदमी का है। संवाद का एक ऐसा माध्यम जो हर तबके की भाषा बोलता है।
वह अंग्रेजी साहब की नकल भी उतार लेता है और झुग्गी में रहने वाले टपोरी को
भी उसी मुकम्मल रूप में पेश करता है जिसे हम देखते चले आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान की जमीन पर हर सौ कोस पर भाषा और बोली बदल जाती है। यह बदलती
हुई भाषा और बोली आप हिन्दी सिनेमा में ही देख सकते हैं। यह हिन्दी सिनेमा
ही है जो भारत की इंद्रधनुषी जीवनशैली, परम्परा और संस्कृति को हर दिन नयी
पहचान देता आया है। यह हिन्दी सिनेमा ही है जहां आप अपने आपको पा सकते हैं।
अपने होने का अहसास कर सकते हैं और यह अहसास आता है अपनी बोली और भाषा को
जस का तस फिल्माने से।
वरिष्ठ पत्रकार एवं सिने विषेशज्ञ दयानंद पांडे लिखते
हैं कि सच यही है कि हिन्दी भाषा के विकास में हमारी हिन्दी फिल्मों और
हिन्दी गानों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। सिनेमा दादा फाल्के के जमाने से ले
कर अब तक हमारे लिए हमेशा नयी और विदेशी टेक्निक थी और रहेगी। बोलने वाली
फिल्मों का अविष्कार भी हमारे लिये नया जमाना लेकर आया। हमने विदेशी
टेक्निक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये किया। बोली और भाषा को लेकर हिन्दी
सिनेमा हमेशा से सजग और संवेदनशील रहा है। लगातार शोध और अध्ययन के बाद
फिल्म की जरूरत के अनुरूप उसे ढाला और फिल्माया जाता है। कदाचित यही कारण
है कि हिन्दी सिनेमा के बोली और भाषा की सजगता को लेकर आलोचना नहीं की गयी।
ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी सिनेमा में बोली और भाषा
को लेकर कभी कोई गलती नहीं हुयी हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह संचार के
दूसरे माध्यमों की तरह भाषा से खिलवाड़ करता रहा हो। हिन्दी सिनेमा की भाषा
सरलए सहज और हिन्दुस्तानी रही है। उर्दू अदब को लेकर हिन्दी सिनेमा ने काम
किया है तो जहां जरूरत हुयी, वह बोलचाल की आसान भाषा से ऊपर उठकर हिन्दी के
कठिन शब्दों के उपयोग से भी परहेज नहीं किया। दरअसल हिन्दी सिनेमा की यह
भाषिक सजगता ही उसके अस्तित्व को बचाने में सहायक बनता रहा है।
संचार माध्यमों के लगातार ढहती दीवारों का कारण भाषा के प्रति निर्मम होते
जाना है।
मीडिया विशलेषक सुधीश पचौरी का मानना है कि मनोरंजन
उद्योग के ग्लोबल बाजार ने बताया है कि बॉलीवुड की फिल्मों और गानों की
धुनों को जो लोग भाषा की दृष्टि से नहीं समझते हैं, वे भी उसकी सांस्कृतिक
संरचनाओं के प्रभाव में रहते हैं। वे स्पेनिशए फ्रेंचए जापानी या चीनी
बोलने वाले हो सकते हैंए कुछ हिन्दी शब्द इस बहाने उनके पास रह जाते हैं।
अरबीए फारसी बोलने वालों की दुनिया में हिन्दी भाषा अनजानी नहीं है।
हिन्दी मनोरंजन चौनलों ने वहाँ भी फैलाया है।
यह सच है कि हिन्दी सिनेमा के विषय.वस्तु में गिरावट
आयी है तो यह गिरावट अकेले हिन्दी सिनेमा में ही नहीं आयी है।
हिन्दी सिनेमा पर लगने वाला यह आरोप मिथ्या ही नहीं, भ्रामक भी है क्योंकि
हिन्दी सिनेमा अथवा किसी भी भाषा का सिनेमा अपनी तरफ से कुछ गढ़ता नहीं है
बल्कि सिनेमा समाज का आईना होता है और आईना वही दिखाता है जो उसके सामने
होता है। अर्थात सिनेमा समाज का दर्पण है और दर्पण समाज में घटने वाली
घटनाओं और बदलती जीवनशैली का रिफलेक्शन मात्र है। यह भी सच है कि सिनेमा एक
उद्योग है और कोई भी उद्योग पहले अपना नफा देखता है और फिर बाजार में
उतरता है। हमें हिन्दी सिनेमा का इस बात का शुक्रिया किया जाना चाहिए कि
उसने भाषा के मामले में कोई समझौता नहीं किया।
हिन्दी सिनेमा की एक और खूबी है, भाषा और बोली की
शुद्वता बनाये रखना। अपने आरंभ से लेकर अब तक की यात्रा में हिन्दी
सिनेमा ने हर दौर के बदलते बोली.बात का खयाल रखा है और उसी के मान
से सिनेमा को गढ़ा है। सिनेमा में बोली.भाषा की शुद्वता से मीडिया को रश्क
हो सकता है।बात टेलीविजन की करें तो सबसे ज्यादा हिन्दी का सत्यानाश करने
वाला यही संचार माध्यम है। आम आदमी को समझ आने वाली भाषा के नाम पर समाज को
न तो हिन्दी का रखा और न अंग्रेजी का। हिंग्लिश कह कर भाषा का ऐसा
सत्यानाश किया कि सौ शब्दों के कथन में साठ फीसद शब्द अंग्रेजी के होते
हैं। लगभग यही स्थिति अखबारों की है। हिन्दी हिग्लिष के रूप में बोली और
दिखायी जा रही है। हिन्दी की जो दुर्दशा इस माध्यम में हुई है, उससे तौबा
कर लेना ही बेहतर होगा। समाचारों के शीर्षक अंग्रेजी में लिखे जा रहे
हैं प्रधानमंत्री को पीएम और मुख्यमंत्री को सीएमए विश्वविद्यालय की जगह
यूर्निवसिटी तो विद्यालय लिखना ही भूल गये और लिखा जा रहा है स्कूल। एक जगह
लिखा गया था एफएमए मुझे लगा कि यह क्या शब्द है और इस जिज्ञासा के साथ आगे
पूरी खबर पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि फायनांस मिनिस्टर का यह संक्षिप्तिकरण था।
अखबारों में तो हिन्दी का अब कोई नामलेवा बचेगाए इस पर भी संदेह है।
अखबारों में बोलचाल हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी के दर्जनों शब्दों का बेधडक़
उपयोग हो रहा है। इन दिनों हिंग्लिष से भी आगे अखबार निकल गये हैं। एक
ऐसा ही अखबार है जिसे हिन्दी का तो कहा जा रहा है लेकिन हिन्दी ढूंढऩे पर
ही मिल पाता है। हिन्दी दिवस के अवसर पर जब हिन्दी दिवस की बात करते हैंए
हिन्दी मास की बात करते हैं तो हम कहते हैं कि हिन्दी वीक मना रहे हैं,
हिन्दी मास शुरू हो गया।
ऐसे में संचार के सबसे प्रभावी माध्यम माने जाने
वाले टेलीविजन एवं अखबारों की एक तरफ यह दुर्दशा है तो रोज ब रोज आलोचना का
शिकार होता हिन्दी सिनेमा ने ही हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं और
बोलियों को सुरक्षित और संरक्षित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है।
निश्चित रूप से भाषा और बोलियों के प्रति हिन्दी सिनेमा की यह सजगता हमारे
लिये गर्व करने लायक है। बात सीखने की है उन संचार माध्यमों के लिये जो
हिन्दी सिनेमा से सीख सकते हैं कि अकेले हिन्दी ही नहींए भारत की सभी
भाषाओं और बोलियों की रक्षा कैसे की जाएए बल्कि इनके संवर्धन में उनकी
भूमिका क्या हो। अनेकता में एकता हमारे हिन्दुस्तान की पहचान है और इस
पहचान को बनाये रखने की जवाबदारी संचार माध्यमों की है। हिन्दी सिनेमा अपनी जवाबदारी पूरी शिद्दत के साथ निभा रहा है। सिनेमा, शुक्रिया। शुक्रिया हिन्दी सिनेमा.
( लेखक 'समागम' पत्रिका के संपादक हैं )
( लेखक 'समागम' पत्रिका के संपादक हैं )