Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

जब सचमुच पत्रकारिता ही होती थी

जाना नैयर साहब का

दिनेश चौधरी/ सड़क के एक छोर पर कॉफी हाऊस था और दूसरी ओर नया-नया 'दैनिक भास्कर'। अखबार के दफ्तर में किसी ने बताया कि नैयर साहब कॉफी हाऊस में मिलेंगे। जोश और जुनून में मैंने जबरदस्ती एक अखबार में इस्तीफा दे दिया था और नई नौकरी की तलाश में था। नैयर साहब कुछ मित्रों की सोहबत में गप लड़ा रहे थे। मैंने नमस्ते की और आने का मकसद बताया। कप्पू उर्फ निर्भीक वर्मा का हवाला दिया कि उन्होंने ही आपसे मिलने को कहा है। नैयर साहब ने फैसला लेने में देर नहीं लगाई। कहा कि कुछ लिख कर ले आऊँ। चाय या कॉफी लेने को कहा पर मैं उनके कद से आक्रांत था। विनम्रता के साथ हाथ जोड़ लिये।

पता था कि अपनी नई नौकरी, जो लिख कर ले जाना है, उसी पर निर्भर है। मैंने विषय के चयन में पल भर की भी देर नहीं लगाई। कुछ दिनों पहले ही रायपुर में मायाराम सुरजन स्मृति व्याख्यान था। यहाँ नैयर साहब ने एक बयान दिया था, "पत्रकारिता राजनीति की रखैल है।" बयान को लेकर खासा विवाद हुआ। तब मेरे लिखने को इससे बेहतर विषय नहीं हो सकता था। ठीक उन्हीं दिनों में हिंदी पत्रकारिता दो बड़े पूंजीपतियों के समर्थन और विरोध में दो धड़ों में बंटी हुई थी। 'रविवार' का एक अंक आया था जिसके कवर में कलम से लिपटे साँप की तस्वीर थी। मैंने लिखा, "पत्रकारिता राजनीति की रखैल नहीं है। हो भी नहीं सकती, क्योंकि राजनीति खुद पूँजी की रखैल है। देखा जाए तो पूँजी के प्रति दोनों की निष्ठा एक सी है और दोनों के एक-दूसरे से रिश्ते कुछ-कुछ सौत की तरह हैं..।" कुछ इसी तरह का लिखा था, अब ठीक से याद नहीं है। नैयर साहब ने धैर्य से पढ़ा। वहीं न्यूज प्रिंट में मैनेजर के नाम एक आवेदन लिखवाया और रजिस्टर में नाम चढ़ा दिया।

तब रायपुर में नैयर साहब का मतलब सिर्फ रमेश नैयर होता है। कुलदीप नैयर में लगे नैयर नाम की समानता की वजह से यहां धोखे की कहीं कोई गुजांइश नहीं होती। वे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के स्कूल की तरह रहे हैं। उनसे कलम चलाने की तमीज यहां के कितनों पत्रकारों ने हासिल की है, इसकी गिनती करना मुश्किल है। उनके स्कूल का एक नालायक विद्यार्थी मैं भी हूं जो बार-बार क्लास छोड़ कर भागता रहा। पत्रकारिता का जो हाल अब है, तो यह कहने में संकोच नहीं है कि छोड़कर ठीक ही किया। मन हालाँकि भटकता था। बार-बार अखबार के दफ्तर में जाता और चंद दिनों में फिर छोड़ देता। एकाध बार साजिश का भी शिकार हुआ। दिल और दिमाग में कशमकश मची रहती। नैयर साहब के जेहन में मुझे लेकर बहुत दिनों तक एक खराब छवि बनी रही, एक ऐसे इंसान की जो एक अजीब से अनिर्णय का शिकार था। किसी से उन्होंने कहा था, "पता नहीं सोचता क्या है?" बहुत बाद में मैं उन्हें अपने हालात बता सका था।

उनसे जुड़े हुए कछ वाकये हैं, जिनकी तफसील उनकी शख्सियत व कामकाज की शैली को बयान करने के लिये जरूरी हैं। मैं एक अखबार छोड़ कर ‘भास्कर’ में आया था। पुराने अखबार में हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था और लगता था कि किसी को भी हंसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दी जायेगी। नैयर साहब, जहां तक मुझे याद है, ‘दैनिक टिब्यून’, चंडीगढ से होकर रायपुर वापस आये थे। उनके नाम की बड़ी धाक थी, इसलिए थोड़ा डर स्वाभाविक था। पर उनकी कार्यशैली कभी बॉस जैसी नहीं रही। उल्टे हम लोगों के डर को भगाने के लिये वे रोचक किस्से सुनाते रहते।

एक किस्सा अब तक तक याद है।

आकाशवाणी के लिये कभी उन्होंने मायाराम सुरजन जी का इंटरव्यू लिया था। दूसरे दिन लोगों ने पूछा, ‘कैसा रहा?’ वे बोले, ”बहुत बढि़या, मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा और पूरे समय सुरजन जी बोलते रहे। पैसे दोनों को बराबर मिले।”

ऐसे ही एक बार उन्होंने बताया कि किसी दिन टेलीप्रिंटर से रोल सही नहीं निकल रहा था। प्रिंट में खराबी थी। एजेंसी के दफ्तर में फोन लगाकर रोल भेजने की बात कही तो जवाब मिला कि कोई आदमी नहीं है। उन्हें जवाब दिया कि ”थोड़ी देर के लिये आप ही आदमी बन जायें।”

लेकिन हंसी-मजाक के इस माहौल में काम सीखने-सीखाने में कोई कोताही नहीं थी। एक-एक शब्द की शुद्धता की परख होती थी। एक बार ‘कार्रवाई’ व ‘काररवाई’ पर बड़ी लंबी बहस चली थी। फिल्ड-रिपोर्टिंग के लिये भेजने से पहले ही वे हमें आवश्यक दिशा-निर्देश देकर कार्य की जटिलता को आसान कर देते थे। एक बार बिलासपुर के पास जयराम नगर में जादू-टोने के फेर में एक साथ सात लड़कों ने आत्महत्या कर ली थी। संयोग की बात यह कि यह तत्कालीन शिक्षा मंत्री का इलाका था। यह एक बड़ी खबर थी लेकिन नैयर साहब को खरसिया जाना था जहां तत्कालीन मुखयमंत्री अर्जुन सिंह एक उपचुनाव में आकर फंस गये थे। उन्हें किसी सलाहकार ने बताया होगा कि आप खरसिया से चुनाव लड़ लें, आपके आने की भी जरूरत नहीं होगी और हम आपकी फोटो दिखाकर चुनाव जीत लेंगे। लेकिन यहां उनका सामना दिलीप सिंह जूदेव से हो गया और फोटो दिखाकर जीतने की बात तो दूर रही, अर्जुन सिंह को यहां अड्‌डा मारने के बाद भी एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी। प्रदेश के बाहर से भी लोगों की निगाहें खरसिया पर टिकी हुई थीं। लिहाजा नैयर साहब ने मुझे एक और सहकर्मी के साथ जयराम नगर भेज दिया। कहा कि रिपोर्ट अच्छी हुई तो ‘रविवार’ में जायेगी अन्यथा इसे भास्कर भोपाल में भेजा जायेगा। तब रांची की तरह यहां भी सेठों के विवाद के कारण भास्कर की लॉंचिंग स्थगित थी। उन दिनों ‘रविवार’ में छपना एक बहुत बड़ा सपना था इसलिए रिपोर्ट तैयार करने में हमने अपनी पूरी सामर्थ्य झोंक दी थी।

रिपोर्ट तैयार की और नैयर साहब के कक्ष में पहुंचे। वे खरसिया की अपनी रिपोर्ट लिख रहे थे। सारा सरकारी अमला अर्जुन सिंह के पीछे लगा हुआ था। पैसे पानी की तरह बहाये जा रहे थे और इसके जवाब में जूदेव की ओर से उस समय का एक लोकप्रिय फिल्मी गाना जगह-जगह बज रहा था। नैयर साहब को गीत याद नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा। फिल्मी गानों का मेरा ज्ञान शून्य था। नैयर साहब ने प्यार से डांटा कि ”फिल्में नहीं देखते, रिपोर्टिग क्या खाक करोगे?” इस बीच नवीन ने सिर खुजलाते हुए गाना याद किया। मुखड़ा था, ”हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आये हैं, चांदी के जूते से हमें जूतियाने आये हैं।” नैयर साहब ने नोट किया और हमारी रिपोर्ट पर निगाह डाली। पहली ही नजर में एक गलती पकड़ी। मैंने लिखा था ‘वह कड़ाके की धूप में घर से बाहर निकला…’।’ नैयर साहब ने तुरंत सुधार किया और कहा कि ‘कड़ाके की ठंड होती है, धूप चिलचिलाती है।’ पूरी रिपोर्ट पढ़ी और कहा कि इसे भोपाल भेज देते हैं। मैं कलकत्ता भेजे जाने की उम्मीद कर रहा था। मैंने थोड़ी निराशा से पूछा कि रिपोर्ट में क्या खराबी है? नैयर साहब ने कहा कि ”कोई खराबी नहीं हैं, पर बेहतर बनाने की गुंजाइश तो होती है न?” नवोदित पत्रकारों को हतोत्साहित किये बगैर उनकी खामियों को बताने का यह उनका तरीका था।

कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि नैयर साहब को भी नहीं मालूम होगा -या उन्होंने नोट नहीं किया होगा – कि उनके कैबिन के मेज की दराज से कीमती सिगरेट कहां गायब हो जाती थीं? ‘संडे ऑब्जर्वर’ में नैयर साहब को सिगार पीते हुए देखा था पर भास्कर में उनका ब्रांड शायद ‘डनहिल’ या ऐसा ही कुछ था। कत्थे रंग की यह सिगरेट, मुझे अब तक याद है, मेरा एक साथी उनकी दराज से उड़ा लिया करता था और इस शरारत के पीछे एक अपनेपन का भाव होता था, अधिकार का भाव होता था और स्वंतत्रता-बोध का उद्‌घोष होता था कि ”देखो, यहां के राज में संपादक और ट्रेनी एक ही ब्रांड की सिगरेट पीते हैं।”

बहरहाल, युगधर्म, नवभारत, क्रानिकल, ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, संडे ऑब्जर्वर, समवेत शिखर, हितवाद आदि अनेक अखबारों में पत्रकारिता व संपादकी के बाद नैयर साहब अपना पूरा समय केवल लिखने में लगाते रहे। बीच में एक अरसा वे छत्तीसगढ ग्रंथ अकादमी में भी रहे। जब तक स्वास्थ्य ठीक रहा लिखते रहे। फिर इससे कुछ मोह-भंग जैसा भी हुआ। फोन पर बातचीत होती तो कहते कि अब लिखने को स्पेस नहीं बचा। सोशल मीडिया में भी आए। यहाँ उनसे कुछ समय पहले तक संवाद बना हुआ था। उनसे एक लंबा इंटरव्यू किया था, जो अन्यत्र छपा है। यहाँ कुछ अंशों को इस्तेमाल भी किया है। पिछले कुछ दिनों से बात नहीं हुई थी और अब यह खबर! सादर नमन!!

 दिनेश चौधरी

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना