मनोज मलयानिल/ बेनेट कोलमैन एंड कंपनी (टाइम्स ऑफ इंडिया) के दफ़्तर में कैंटीन टाइम्स ऑफ इंडिया वालों के फ़्लोर पर हुआ करता था। नवभारत टाइम्स वालों को अगर खाने के लिए जाना हो तो उन्हें टाइम्स की कैंटीन में अपना फ़्लोर छोड़ कर जाना पड़ता था। जिन संस्थानों में अंग्रेज़ी के साथ हिन्दी संस्करण प्रकाशित होते थे वहाँ हिन्दी पत्रकारों के साथ कमोबेश ऐसा ही व्यवहार हुआ करता था। पत्रकार ही नहीं अख़बार की गुणवत्ता के लिए इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों जैसे स्याही और काग़ज़ में भी फ़र्क़ हुआ करता था। ऐसे समय में एक शख़्स ने हिन्दी पट्टी से निकल कर पूरी तरह हिन्दी को समर्पित एक ऐसा हिन्दी अख़बार दिया जो रंग रूप, छपाई, मुद्रण के मामले में अंग्रेज़ी अख़बारों को भी टक्कर देना शुरू कर दिया।
90 के दशक में राष्ट्रीय सहारा ऐसा पहला हिन्दी अख़बार था जिसने ग्लॉसी पेपर पर रंगों का इस्तेमाल किया और चार पेज के रंगीन परिशिष्ट निकालने शुरू किये।
सहारा समय पहला हिन्दी अख़बार था जिसके दफ़्तर में हिन्दी पत्रकारों के लिए वातानुकूलित दो-दो कैंटीन बनाये गए। 7 और 9 रुपये की किफ़ायती दरों पर पत्रकारों के लिए बढ़िया खाने की व्यवस्था की गई।
इतना ही नहीं सहारा ऐसा पहला हिन्दी अख़बार था जहां पत्रकारों को कंपनी की तरफ़ से कैमरा और मोटरसाइकिल दिये गए।ये दो ऐसी बुनियादी ज़रूरतें थीं जिनके बिना तब काम करना बेहद मुश्किल था…और तो और क्षेत्रीय हिन्दी न्यूज़ चैनलों का अत्याधुनिक तकनीक के साथ प्रसारण की शुरुआत किसी ने की तो वह सुब्रत रॉय ही थे।
सुब्रत रॉय के व्यक्तित्व के कई पहलू थे लेकिन हिन्दी पत्रकारों के लिए उनका जो योगदान था उसे नहीं भुलाया जा सकता। सहाराश्री को विनम्र श्रद्धांजलि!
Manoj Malayanil के फेसबुक वाल से साभार !