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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सूचना गर्त में

पाठक पढ़़ने से पहले जहां था, पढ़ने के बाद भी वहीं होता है

रवीश कुमार। प्राइम टाइम के लिए रोज़ाना कई लेखों से गुज़रना पड़ता है । इन लेखों से अब बोर होने लगा हूं। कई बार लगता है कि अख़बारों के संपादकीय पन्नों पर छपने वाले इन लेखों की संरचना( स्ट्रक्चर) का पाठ किया जाना चाहिए। ज़्यादातर लेखक एक या दो तर्क या सूचना के आधार पर ही तैयार किये जाते हैं।  पहले तीन चार पैराग्राफ को तो आप आराम से छोड़ भी सकते हैं। भूमिका में ही सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है। लेखक माहौल सेट करने में ही माहौल बिगाड़ देता है । आप किसी भी लेख के आख़िर तक पहुंचिये, बहुत कम ही होते हैं जिनसे आप ज्यादा जानकर निकलते हैं। नई बात के नाम पर एक दो बातें ही होती हैं। हर लेख यह मानकर नहीं लिखा जा सकता कि पढ़ने वाला पाठक उससे जुड़ी ख़बर से परिचित नहीं है इसलिए भूमिका में बता रहे हैं।  ख़ुद मैं भी इस ढांचे का कैदी बन गया हूं, कई बार लगता है कि कैसे ख़ुद को आज़ाद करूं।

गौ-वंश हत्या पर प्रतिबंध पर लिखे कई लेखों को पढ़ रहा था। ज्यादातर लेख में धारणा और पसंद के आधार पर तर्क बुद्धि मिलती है। सुभाष गाताडे और राम पुनियानी के लेख को छोड़ दें तो पता ही नहीं चलता है कि विरोध करने के लिए लिखे गए लेखों में सूचना क्या है। पाठकों को क्या नई जानकारी मिल रही है जिससे वो ख़ुद को सक्षम महसूस करे और इसके आधार पर पक्ष-विपक्ष को ठीक से देख सके। कुछ लेख दलीलों के लिए होते हैं लेकिन दलील का आधार सिर्फ धारणा ही हो तो पाठक को कोई चुनौती ही नहीं मिलेगी। पाठक को चुनौती तो मिलनी ही चाहिए। सिर्फ दलीलों के दम पर जनमत न बन सकता है न व्याप्त जनमत को आप चुनौती दे सकते हैं। कई लेखों का जब मैं अनुवाद करते हुए पढ़ रहा था तब अंत में पहुंचकर पता चला कि एक पंक्ति भी काम की नहीं मिली जिसके ज़रिये मैं दर्शकों को बता सकूं कि फलाना लेखक इस आधार पर विरोध करते हैं। ऐसा लगता है कि इन्हें मोदी या राहुल से विरोध ही है इसलिए विरोध कर रहे हैं।

किताब से लेकर संपादकीय पन्नों पर छपने वाले लेखों में भूमिका और प्रस्तावना एक ऐसा रोग है जिससे निजात पा लेने का टाइम आ गया है। किसी पाठक को क्यों बताया जाए कि कैसे कैसे यह किताब लिखी गई है। पेट में मुन्नू था और गोद में चुन्नू थी। चंद मित्रों को छोड़ शायद ही किसी की दिलचस्पी होती होगी कि भूमिका और प्रस्तावना में किसका नाम छपा है। न ही कोई इसे याद रखता है। आप ये जानना चाहते हैं कि वो कौन सा दिन है जब चांद आधा निकला था तब इस किताब की कल्पना की गई या इसमें दिलचस्पी होनी चाहिए कि चलो अब किताब पढ़ते हैं।  बेकार के दस पन्ने किताब को पढ़ने से पहले ही बोर कर देत हैं।

पिछले चार सालों से रोज़ हिन्दी और अंग्रेज़ी के बीस-पचीस लेखों से तो गुज़र ही रहा हूं। अपने इस थोड़े से अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ज्यादातर लेखक पन्ना भरते हैं। उनके नीचे किसी विश्वविद्यालय या संस्था का नाम ढेले की तरह लटका दिया जाता है ताकि वज़न आ जाए। कम से कम जो स्कालर है उसका लेख तो हम पत्रकारो से बेहतर होना ही चाहिए। आप भी यह अभ्यास कीजिए। किसी विषय पर अखबारों और वेबसाइट पर छपे पचास लेखों का संकलन कीजिए और देखिये कि अंत में उनसे क्या चार नई बातें मिलती हैं। उदाहरण के लिए आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल होने पर छपे अनगिनत लेखों को निकाल लीजिए। ज़्यादातर में दो पैराग्राफ छोड़कर कुछ भी काम का नहीं मिलता है। पहले से ज्ञात चुनौतियों, विवादों, उपलब्धियों, नाकामियों को लेकर ही लेख भर दिया जाता है। पाठक पहली पंक्ति से ही समझ सकता है कि लेखक विरोध करने के लिए लिख रहा है या तारीफ करने के लिए। कुछ लेख जो संतुलन के नाम पर लिखे गए होते हैं वो और भी कबाड़ के होते हैं।

कुल मिलाकर रोज़ इतना स्पेस बर्बाद हो रहा है। तर्क और सहज बुद्धि ने सूचना को गर्त में भेज दिया है। इन लेखों में रिसर्च के नाम पर कुछ नहीं होता है। मैं सबको एक सिरे से खारिज नहीं कर रहा हूं। बता रहा हूं कि लेखों की हालत क्या है। पाठक की स्थिति नहीं बदलती है। वो पढ़़ने से पहले जहां था पढ़ने के बाद भी वहीं होता है। जड़ का जड़ बना रहता है। इसीलिए आप देखेंगे कि कई बार फेसबुक और ट्वीटर के छोटे स्टेटस लंबे लेखों से ज़्यादा हलचल मचा देते हैं। बहुत कम ऐसे लेख होते हैं जो लोगों की जड़ सोच में खरोंच पैदा करते हैं। इसलिए चार साल पहले जिन लेखों को पढ़ने में चालीस मिनट लगता था अब पंद्रह मिनट में ही निपटा देता हूं। पता चल जाता है कि तीन चार पैरा में कुछ नहीं है। विरोध या समर्थन की भाषा को नए तरीके से गढ़ने के अलावा कुछ नया नहीं कहा गया है। ये सारे लेख पाठक को इतना भ्रमित करते हैं कि वो और ही प्रतिक्रियावादी हो जाता है । पाठक का भी प्रशिक्षण ऐसे होने लगता है जैसे उसे किसी लेख का इस्तमाल विरोध या समर्थन के लिए ही करना है। कई लेखक हैं जो सिर्फ किसी का विरोध करने के लिए ही लिखते हैं और इतने ही हैं जो सिर्फ समर्थन के लिए। समाज में जड़ता फैलाने में दोनों का कम योगदान नहीं है।

कुछ समाचार माध्यमों ने इसका तोड़ निकाला है लेकिन उनके यहां पुरानी बीमारी भी उसी तरह मौजूद मिलती है। इंडियन एक्सप्रेस का एक पन्ना है- एक्सप्लेन्ड । टाइम आफ इंडिया भी इसी तरह से कुछ करता है जहां समझाया जाता है कि मुद्दा क्या है, तथ्य क्या हैं, दावे क्या हैं और दलीलें क्या क्या हैं। कई वेबसाइट पर देखता हूं कि अब लेख की निरंतरता को तोड़ दी गई है। एक एक एंगल से उसे समझाया जाता है। स्क्रोल डाट इन पर सेंट्रल मोनिटरिंग सिस्टम पर छपे एक लेख पढ़ रहा था । इस लेख के शुरू में सूचना दी गई है कि केंद्र सरकार सेंट्रल मौनिटरिंग सिस्टम को जल्दी ही सक्रिय और सक्षम करने जा रही है। उसके बाद लेख को छह हिस्सों में बांट दिया जाता है। सीएमएस कब और क्यो शुरू हुआ, सीएमएस के तकनीकि पहलु क्या हैं, सीएमएस के प्रमुख हिस्सेदार कौन-कौन हैं, सीएमएस के बेज़ा इस्तमाल को रोकने के लिए क्या क्या उपाय हैं, एक नागरिक को कैसे पता चलेगा कि सीएमएस ने उनकी निजता में दखल दी है, यह पता चला है कि सुरक्षा एजेंसियां प्राइवेसी बिल के ख़िलाफ़ हैं। इस तरह के छह-सात खानों में लेख को चार से सात लाइनों में समझाया गया है ताकि एक अनजान पाठक भी समझ सके कि मामला क्या है।

इसके अलावा वेबसाइट की दुनिया में पाठकों को अपार सूचना से बने भ्रम जाल से निकालकर समझाने के लिए कई तरीके निकाले हैं। कुछ मुद्दों को दस या बीस बातों के प्वाइंटर्स में लिखा जाता है। अगर आप ndtv.com, the quint.com, the wire.in पर मौजूद समाचारों को लिखने का तरीका देखेंगे तो पता चलेगा कि वेबसाइट रोज़ लिखने के नए और आसान तरीकों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। इंटरनेट पर होने के बाद भी वे सामान्य से सामान्य पाठक के लिए भी सरलता के रास्ते खोज रहे हैं। प्रयास होता है कि लेख में मुद्दे की बात हो। ताकि पाठक सूचना को ग्रहण करने में वक्त न बर्बाद करे। इंटरनेट के पाठक के पास वक्त नहीं होता है। वो पढ़ते समय ही तय करने लगता है कि कुछ सीख रहा है या नहीं और इसे शेयर कर सकता है या नहीं।

समाचार वेबसाइट अब लेख के ऊपर या नीचे ही बताने लगे हैं कि कौन सा लेख सोशल मीडिया के किस प्लेटफार्म पर कितना शेयर हुआ है। किसी लेख को पढ़ने से पहले आ जान जाते हैं कि इसे पचास हज़ार लोग पढ़ चुके हैं और दस हज़ार ने शेयर किया है। कुछ वेबसाइट पर मैंने देखा कि लेख के लिंक के नीचे ही दिखता है कि यह कितना शेयर हो चुका है। संख्या लगातार एक लेख की प्रासंगिकता को तय कर रही है। अख़बार में तो पता ही नहीं कि कितने लोगों ने पढ़ा मगर लेखक लगातार छपते जा रहे हैं। जो मन में आता है वही लिखते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बढ़िया तर्क करने वाले लेखों की ज़रूरत नहीं है लेकिन उनकी स्कालरशिप तो होनी ही चाहिए।  सूचना और दलील वाले लेख में साफ अंतर होना चाहिए। पाठक पहले सूचना चाहता है फिर दलील के तरीके ताकि वह ख़ुद को शक्तिशाली महसूस कर सके।

अंग्रेज़ी के समाचार वेबसाइट ज्यादा साफ सुथरे हैं। हिन्दी समाचारों के वेबसाइट पर जाकर देखेंगे तो लगेगा कि मेले में आ गए हैं। हिन्दी की साइट पर ख़बरों की भरमार लगी होती है। ग्लोबल से लेकर लोकल ख़बरें एक ही प्लेटफार्म पर पाठक की आंखों को चुनौती दे रही होती हैं कि पहले मुझे पढ़ो तो पहले मुझे पढ़ो। हिन्दी और अंग्रेज़ी की वेबसाइट पर आपको अभिनेत्रियों की अजीब अजीब तस्वीरें मिलेंगी। हर साइट में किसी न किसी रूप में आपको अर्ध-पौर्न कोना मिलेगा। ऐसी ख़बरों को ध्यान से चुना जाता है ताकि पाठक की निगाह वहां जाए और झट से पढ़ ले।

मेरा सिर्फ इतना कहना है कि लिखने का तरीका बदलना चाहिए तभी पढ़ने का तरीका बदलेगा। अगर हम अपनी धारणाओं के पराक्रम को बचाए रखने के हिसाब से ख़बरें और सूचना ढूंढते रहेंगे या कोई इस हिसाब से हमें पेश करता रहे तो हम जागरूक नागरिक नहीं बन रहे हैं। हम किसी पार्टी या विचारधारा के समर्थक तैयार हो रहे हैं। वेबसाइट और अख़बार आजकल यही कर रहे हैं। टीवी को भी आप जोड़ सकते हैं। इन तीनों का काम है यथास्थिति को बनाए रखना। बहुत कम ऐसे लेख आते हैं जो हमें अंदर तक झकझोर कर रख दे। उकसाए कि इस मुद्दे को ऐसे देखा जाए तो कम से कम देखने का सुख मिलेगा। पन्ना भरने का ज़माना चला गया है। जहां ये बचा हुआ है वहां से जल्दी भगाया जाना चाहिए। आप पाठकों को भी देखना चाहिए कि क्या आपके पढ़ने के तरीके में कोई बदलाव आया है। भूख तो है तभी तो इतनी वेबसाइट हैं। मगर इस तेज़ भूख में पौष्टिक आहार की जगह कहीं आप समोसा तो नहीं भकोस रहे हैं।

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग- कस्बा (naisadak.org) से साभार)

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सम्पादक

डॉ. लीना