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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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युवा पत्रकारों से निवेदन

 लिखना तो पड़ेगा। ये रोज़ का अभ्यास है।

रवीश कुमार / चुनाव आते ही कुछ युवा पत्रकार व्हाट्स एप करने लगते हैं कि मुझे चुनाव यात्रा पर ले चलिए। आपसे सीखना है। लड़का और लड़की दोनों। दोनों को मेरा जवाब ना है। यह संभव नहीं है। कुछ लोगों ने सीमा पार कर दी है। मना करने पर समझ जाना चाहिए। पर कई लोग नहीं मानते हैं। बार बार मेसेज करते रहते हैं। इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ।

यह क्यों संभव नहीं है? पहला कारण यह है कि कितने लोगों को साथ ले जा सकता हूँ ? हम लोग व्यवस्था से चलते हैं। उसका अपना एक सीमित बजट होता है। गाड़ी में वैसे ही जगह नहीं होती है। क्या मैं बस लेकर चलूँ कि लोगों को सीखाना है? फिर तो जहाँ जाऊँगा वहीं भगदड़ मच जाएगी। अपनी स्टोरी का हिसाब देना होता है, पहला और आख़िरी फ़ोकस उसे पूरा करने का होता है। इसी को डेडलाइन कहते हैं। हाय हलो करने की फ़ुर्सत नहीं होती है। इसलिए मुझे पता है यह संभव नहीं है। जब मैं रिपोर्टिंग पर होता हूँ तो अपनी कहानी के अलावा कुछ नहीं सूझता।

दूसरा, कारण यह है कि हम डॉक्टर नहीं है कि आपरेशन टेबल पर मरीज़ को लिटा कर वहाँ आंत और दाँत बताने लगे। अपनी स्टोरी पूरी करने की फ़िक्र में ही भागते रहते हैं। जो साथ में होगा वो वही देखेगा कि यहाँ रुका। कहाँ बात किया। इसे देखकर कोई क्या सीखेगा ? वैसे भी पूरी प्रक्रिया आप प्राइम टाइम में देख सकते हैं। बहुत कम एडिटिंग होती है इसलिए आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मैंने क्या किया होगा।

तीसरी बात, नौकरी माँगने में कोई बुराई नहीं है। मैं इससे परेशान नहीं होता हूँ। मैं भी जब नौकरी खोजता था तो दस लोगों को फ़ोन करता था। मीडिया में नौकरी की प्रक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए ऐसा करना पडता है। लेकिन आपको एक बात समझनी होगी। मैं नौकरी और इंटर्नशिप को लेकर बात करने के लिए अधिकृत नहीं हूँ। इसका कारण यह है कि मैं न्यूज़ रूम के ढाँचे का हिस्सा नहीं हूँ। जो लोग यह काम करते हैं वही किसी की भूमिका और ज़रूरत को बेहतर समझते हैं। ट्रेनिंग कराने का गुण उनमें बेहतर होता है। इसलिए मैं कभी भी इंटर्नशिप और नौकरी के मामले में हाँ में जवाब नहीं देता। क्योंकि मैं हाँ नहीं कर सकता।

चौथी बात है कि आप क्या करें? मैं चाहूँगा कि आप सबको काम करने का मौक़ा मिले। मैंने किसी से नहीं कहा कि आपके साथ रह कर सीख लूँगा। मुझे सही में लगता है कि यह बहानेबाज़ी है। हम लोग इतने कम वक़्त में जीते हैं कि वाक़ई किसी से बात करने का वक़्त नहीं होता, सीखाना तो दूर की बात है। क्यों खुद को धोखा देना चाहते हैं? आप क्या करेंगे, आपको तय करना है। मैं जो भी करता हूँ, वो सारा का सारा पब्लिक में होता है। कोई गुप्त रहस्य नहीं है।

मोटा मोटी आपको पता ही होता है कि एक पत्रकार बनने के लिए क्या करना होता है। फिर भी इसका जवाब बहुत आसान है। रोज़ दो हज़ार शब्द लिखें और जैसा कि पत्रकार प्रकाश के रे कहते हैं कि रोज़ सौ पेज किसी किताब का पढ़ें। मैं खुद जो पढ़ता हूँ वो पोस्ट कर देता हूँ। तो अलग से मेरी कोई सीक्रेट रीडिंग लिस्ट नहीं है। कई लोग किताबों के बारे में लिखते हैं। यह भी कोई गुप्त सूचना नहीं है। कहीं भी जाएँ, कुछ लिखने की तलाश में रहें। लोगों से बात करें और रिसर्च करें। आप लिखते रहिए।लिखते-लिखते हो जाएगा। जब तक नौकरी नहीं है तब तक सोशल मीडिया पर लिखें। लिखना तो पड़ेगा। ये रोज़ का अभ्यास है। आप एक दिन में कुछ नहीं होते। और होना क्या होता है मुझे समझ नहीं आता। एक झटके में नौकरी चली जाती है और लोग भूल जाते हैं। इसलिए पत्रकार पहले ख़ुद के लिए बनें। जानने की यात्रा पर ईमानदारी से निकल पड़िए, सब अच्छा होगा। डंडी मारेंगे तो धोखा हो जाएगा।

कुलमिलाकर, ख़ुद को बनाने के लिए किसी एक फ़ैक्ट्री की तलाश न करें। अलग-अलग मैदानों में ख़ुद को फैला दें। असली बात आप लोगों को मौक़ा मिलने की है। वो काफ़ी कम है। जहाँ मिल भी जाए और वहाँ पत्रकारिता न होती हो तो मैं क्या कर सकता हूँ। इतना तो बोला और लिखा। वो भी नौकरी में रहते हुए बोला और अपने प्रोग्राम में भी बोला। आप सभी के लिए दुआ ही कर सकता हूँ। फिर इस लाइन को छोड़ दें। नहीं छोड़ सकते तो तैयारी करते रहें। वो सुबह कभी तो आएगी।

मैं भी कई लोगों से सीखता हूँ। आप भी कई लोगों से सीखें। जैसे मैं बिज़नेस की ख़बरों से दूर रहता था। दो साल बिज़नेस के अख़बारों को पढ़ा। उनकी चतुराइयों को भी समझा। उन्हीं की सूचनाओं को समझना शुरू किया। जो समझा उसका हिन्दी में अनुवाद कर फ़ेसबुक पेज पर पोस्ट किया। यह इसलिए कि अगर आप पत्रकार हैं तो जो भी जानते हैं( ऑफ़ रिकार्ड की शर्तों का आदर करते हुए) उसे साझा करें। प्रतिक्रियाओं को पढ़ा कीजिए। कई लोग आगे आकर कमियाँ भी बता देते हैं। मेरे पास कोई जड़ी-बूटी नहीं है।

(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार )

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सम्पादक

डॉ. लीना