मीडिया को चुनिंदा विषयों पर परिणाममूलक, तथ्यपरक और ज़िन्दा बहसों की बहुत आवश्यकता है
साकिब ज़िया/पटना। पता नहीं पत्रकारिता पर होने वाली तमाम चर्चा-बहस-गोष्ठी चुने हुए महत्वपूर्ण विषयों से शुरू होकर टीआरपी, मीडिया का व्यवसायीकरण और आंदोलनकारी पत्रकारों की स्थिति पर क्यों ख़त्म हो जाती है? शायद ये ज़्यादा बड़ा दर्द है, शायद ये ज़्यादा तालियाँ खींचता है, शायद मीडिया को गाली देना शगल हो गया है, शायद पत्रकारों को मेले वाले उस बावले बाबा की तरह ख़ुद की पीठ पर कोड़े मारने में बहुत मज़ा आता है, शायद ये पत्रकारों के रोज़गार की ऐसी चर्चा है जो बस पत्रकार ही करते हैं, वो सबके बारे में लिखते हैं पर उनके बारे में सही बात जनता तक कम ही पहुँचती है। ... तो ये सारे ‘शायद’ सच भी हैं तो भी मीडिया और पत्रकारिता को चुनिंदा विषयों पर परिणाममूलक, तथ्यपरक और ज़िन्दा बहसों की बहुत आवश्यकता है।
सोचा यही था कि जहाँ मुझसे बेहतर पत्रकार जुट रहे हों तो वहाँ तो जाना ही चाहिए। अपने रोज़ के दायरे से बाहर जाकर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत पत्रकारों से मिलना हमेशा ही आकर्षित भी करता है और सुकून भी देता है। सो कोशिश करता हूँ कि पहुँच ही जाऊँ। बहुत अनौपचारिक पर फिर भी अनुशासित सा ये मज़मा अपने अलग किरदारों और बेबाकी के कारण ध्यान खींचता है।
क्या संचारक यानी जो पत्रकार है वो महज एक डाकिया है जो केवल यहाँ की सूचना वहाँ पहुँचा दे, बिना ये जाने कि वो सूचना क्या है? जाहिर है नहीं। तो क्या वो सूचना को पढ़े और “अपने हिसाब” से आगे बढ़ाए? तो फिर हर एक का जो ‘अपना हिसाब’ होगा उसका हिसाब कौन रखेगा? क्या सुंदर चॉकलेटी चेहरे जिनको विषय की समझ नहीं है वो उसे प्रेषित करते रह सकते हैं? और वो पत्रकार भी कहलाएँगे और नाम भी पाएँगे और सेलेब्रिटी बन जाएँगे? फिर उनमें और नाटक/सिनेमा के अभिनेता/अभिनेत्रियों में क्या फर्क़ है?
हालाँकि रंगमंच और रुपहले परदे पर भी अच्छे कलाकार अपने किरदार को निभा ले जाने के लिए बहुत मेहनत करते हैं, उसमें डूबते हैं। पर वो फिर अगले किरदार की ओर बढ़ जाते हैं। तो क्या पत्रकार के लिए भी ये छूट है? और फिर डिजिटल और प्रिंट वालों का क्या? और क्या पत्रकार भी एक कलाकार ही है? नहीं। वो ये भूमिका किसी फिल्म के लिए नहीं निभा रहा। असल ज़िन्दगी में पत्रकार बनकर जनसंचार का महत्वपूर्ण दायित्व निभा रहा है। जनसंचार यानी विभिन्न स्रोतों और साधनों से प्राप्त जानकारी को व्यवस्थित रूप में, ज़िम्मेदारी के साथ बहुत सारे लोगों तक पहुँचाना। ये काम बहुत पेचीदा नहीं होकर भी बहुत चुनौतीपूर्ण है। सूचना और जानकारी तो आजकल सोशल मीडिया भी बहुत तेज़ी से पहुँचा रहा है। तो क्या सब ‘सही’ और ‘भरोसे’ लायक हैं? .... बस इसी ‘सही’ और ‘भरोसे’ की ज़िम्मेदारी तो पत्रकार को लेनी है। वही बड़ा अंतर है आम सूचना प्रदाता और पत्रकार में।
बात सिर्फ़ सूचना पहुँचाने भर की भी नहीं है जिस मुद्दे या विषय़ विशेष की जानकारी पहुँचाई जा रही है उसके बारे में ख़ुद पत्रकार को कितना मालूम है इसी पर तो उस ख़बर का संप्रेषण निर्भर करेगा! इसीलिए खेल, विज्ञान, रक्षा, कला, पर्यावरण, आर्थिक, कानूनी मसले, तकनीक, चिकित्सा आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें दख़ल ही विशेषज्ञ पत्रकारों का है। हर बड़े और सम्मानित मीडिया संस्थान को इन विषयों के विशेषज्ञ रखने ही होते हैं। खिलाड़ी और दर्शक से बेहतर समझ और विश्लेषण की क्षमता अगर खेल पत्रकार में नहीं होगी, आँकड़े तथ्य और संदर्भ नहीं होंगे बताने को तो कोई पढ़ेगा/ सुनेगा आपकी बात?
अगर आप किसी डॉक्टर से सवाल पूछना चाहते हैं तो पहले आपको तो जानकारी होनी चाहिए! जज या पुलिस से सवाल करते समय कानून या धाराओं का ज्ञान नहीं होगा तो कैसे चलेगा? जज या डॉक्टर को तो अपनी तय भाषा में तय तरीके से ही बात लिखनी है। डॉक्टर का पर्चा तो केमिस्ट को पढ़ना है। पर पत्रकार की चुनौती तो इससे कहीं ज़्यादा बड़ी है। उसे कानून, चिकित्सा, विज्ञान, रक्षा या जिस भी विषय की रिपोर्टिंग वो कर रहा है उसके सभी पहलुओं को समझते हुए आमफहम भाषा में समझाना है, लिखना है। हथेली पर सरसों जमाना है। तराजू में मेंढ़क तौलना है। .... और हाँ, लगातार ये ध्यान रखना है कि वो कहीं भी स्वयं किरदार नहीं है, वो सिर्फ़ संवाहक है, कई बार बड़ी गड़बड़ यहीं हो जाती है।
बहरहाल यह एक चुनौती तो है पर विषय की विशेषज्ञता एक ऐसा विषय है जिसको लेकर पत्रकारिता के संस्थानों में भी बहुत काम होना अभी भी बाकी है। बीट रिपोर्टिंग और विषय के महत्व और चयन को लेकर शुरुआत में ही पढ़ाया-सिखाया जाना चाहिए।
मेरे अब्बी(पिताजी) ने अपनी पूरी जिंदगी में ख़ूब पत्रकारिता की है । लिखने-पढ़ने का भी उन्हें काफी शौक रहा है । आज भी उन्हें हर क्षेत्र की पत्रकारिता में काफी महारत हासिल है। सच पूछिए तो मुझे पत्रकारिता का 'कक्हरा' सीखने का सौभाग्य अपने घर में अब्बी से ही मिला। मुझे गर्व है कि मेरे अब्बी ही पत्रकारिता के क्षेत्र के मेरे पहले गुरु हैं।
वहीं दूसरी ओर अगर बीट की बात करें तो शास्त्रीय संगीत की महफिल की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार को अगर द्रुत और विलंबित नहीं पता होगा, आलाप-जोड़-झाला की जानकारी नहीं होगी तो वो क्या लिख पाएगा? पुणे-मुंबई के कई संगीत समीक्षकों की ये धाक है कि महफिल में उनको देखते ही बड़े गायक भी सुर को और बेहतर साधने की कवायद करते हैं, कि चूक हुई तो ये निपटा देंगे।
यानि पत्रकारिता डूबने का, गहरे आनंद का, अपने पसंद के विषय में महारत हासिल कर उसे भाषा के अलंकार के साथ पाठक/श्रोता/दर्शक तक पहुँचाने का एक रोमांचक सिलसिला है। औसत ज्ञान के साथ औसत ही परोस पाएँगे और औसत ही विकास होगा।