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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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खतरे में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ

ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा जो सुनने व देखने में एकपक्षीय प्रतीत होते हैं

तनवीर जाफरी/ मीडिया, जिसे भारत में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है, के वास्तविक स्वरूप के लिए शायर ने कहा है कि- न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त। हमको आईना दिखाना है दिखा देते हैं।। इस शेर का सार यही है कि मीडिया को वास्तव में पूरी तरह से निष्पक्ष और बेबाक होना चाहिए। समाज भी मीडिया से जुड़े किसी भी अंग से यही उम्मीद रखता है कि वह जनता तक सही व निष्पक्ष खबरें तथा व्याखयाएं अथवा आलोचनाएं प्रकाशित अथवा प्रसारित करेगा। परंतु चाहे व्यवसायिकता की मजबूरी कहें, टीआरपी की होड़ या चाटुकारिता का उत्कर्ष अथवा मीडिया घरानों में पक्षपातपूर्ण लोगों की घुसपैठ, जो भी हो वर्तमान समय में ऐसा प्रतीत होने लगा है कि लोकतंत्र के स्वयंभू चौथे स्तंभ पर एक बार फिर ज़बरदस्त खतरा मंडराने लगा है। सरकार से मिलने वाले कई प्रकार के आर्थिक व राजनैतिक लाभ एवं विज्ञापनों की उगाही के चलते कई मीडिया घराने तो गोया सरकार तथा दल विशेष के प्रवक्ता के रूप में अपना प्रसारण कर रहे हैं तथा जानबूझ कर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं या ऐसी कहानियां गढ़ रहे हैं जो सुनने व देखने में पूरी तरह से एकपक्षीय प्रतीत होती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब निष्पक्षता का दावा करने वाला मीडिया स्वयं पक्षपातपूर्ण प्रसारण या प्रकाशन पर उतर आए फिर आखिर सरकार या सत्ता की ‘खबर’ कौन लेगा? और यदि मीडिया पर सरकार का अघोषित नियंत्रण हो जाए यानी मीडिया स्वयं सत्ता के गुणगान में इतना अंधा हो जाए कि उसे सरकार या शासन में आलोचना के कोई तत्व नज़र ही न आएं फिर आखिर सत्ता को बेलगाम होने से भी कैसे बचाया जा सकेगा? यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि इस समय न्यायपालिका व मीडिया के रूप में दो ही स्तंभ ऐसे बचे हैं जिनपर जनता सबसे अधिक विश्वास करती है।

हालांकि मीडिया के एक बड़े वर्ग ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व ही यह आभास कराना शुरु कर दिया था कि वह निष्पक्षता के आवरण को उतार फेंकने की तैयारी में है। बड़े- बड़े कारपोरेट घरानों का मीडिया पर बढ़ता जा रहा नियंत्रण भी इन हालात का एहसास कराने लगा था। परंतु पिछले लगभग तीन वर्षों में तो अब ऐसी स्थिति आ गई है गोया मीडिया का पक्ष या निष्पक्ष होना तो दूर बल्कि वह एक पार्टी विशेष तथा विचारधारा विशेष का गोया प्रतिनिधित्व करने लगा हो या दल विशेष का प्रवक्ता बन गया हो? मिसाल के तौर पर पिछले दिनों देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए। ज़ाहिर है इन पांचों राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी नई-नई योजनाओं के साथ तथा अपने चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वादों के साथ अपने शासकीय कामकाज शुरु कर चुके हैं। परंतु देश की जनता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की ‘कारगुज़ारियों’ के सिवा अन्य किसी राज्य के मुख्यमंत्रियों के फैसलों के बारे में या उनकी शासकीय प्राथमिकताओं के बारे में जान नहीं पा रही है। ज़ाहिर है जब मीडिया को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री निवास के शुद्धिकरण, उसमें प्रवेश के मुहूर्त, एंटी रोमियो स्कवॉड की कारगुज़ारियों, बूचडख़ानों से जुड़ी खबरों, सूर्य नमस्कार व नमाज़ में समानता तथा उत्तर प्रदेश के मु यमंत्री के महिमामंडन की सच्ची-झूठी खबरों को गढऩे व इन्हें प्रसारित करने से फुर्सत मिले तभी तो मीडिया का ध्यान पंजाब, उत्तराखंड, गोवा तथा मणिपुर व आसाम जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों के शासन की शुरुआती कारगुज़ारियों की ओर जा सकेगा? परंतु मीडिया द्वारा उत्तर प्रदेश के शासन खासतौर पर राज्य के मुख्यमंत्री पर पूरा फोकस करने से तो ऐसा प्रतीत हो रहा है गोया उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय तो प्रदेश का कायापलट करने की गरज़ से ताल ठोंक कर मैदान में उतर आए हैं जबकि शेष अन्य चार राज्यों के मु यमंत्री चादरें तानकर सोने में मशगूल हैं।

दूसरी तरफ सत्ता भी मीडिया के इस प्रकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से काफी खुश व संतुष्ट नज़र आ रही है। और मीडिया को अपने पक्ष में रखने की सत्ता की ललक अब यहां तक पहुंच गई है कि उसे अपने आलोचक या उसपर संदेह करने वाले या सवाल खड़ा करने वाले मीडिया घराने कतई पसंद नहीं आ रहे हैं। पिछले दिनों देश के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप में एक समझे जाने वाले बेनेट कोल मैन के टाइम्स ग्रुप को अपनी निष्पक्षता का खमियाज़ा भुगतना पड़ा। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी टाइम्स  ग्रुप के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र इकनोमिक टाईम द्वारा अपनी वार्षिक ग्लोबल बिज़नेस समिट का आयोजन किया गया। इस आयोजन का उद्घाटन 27 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना निश्चित था। जबकि अगले दिन 28 मार्च को इसी कार्यक्रम में अरूण जेटली, नितिन गडकरी सहित कई केंद्रीय मंत्रियों को भी शिरकत करनी थी। आंध्र प्रदेश के मु यमंत्री चंद्रबाबू नायडु को भी इस आयोजन में शरीक होना था। आयोजकों के अनुसार जहां इस कार्यक्रम में 60 मंत्रियों की शिरकत होनी थी वहीं 20 देशों के प्रतिनिधि भी इस कार्यक्रम में शरीक हो रहे थे। परंतु इतने बड़े आयोजन के उद्घाटन से कुछ ही मिनट पूर्व प्रधानमंत्री कार्यालय से आयोजकों को यह सूचना दी गई कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों के चलते माननीय प्रधानमंत्री कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकेंगे। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री का कार्यक्रम निरस्त होने के बाद चंद्रबाबू नायडू सहित लगभग सभी केंद्रीय मंत्रियों ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत न करने का फैसला लिया।

दिल्ली में होने वाले इस प्रकार के आयोजनों में प्रधानमंत्री अथवा केंद्रीय मंत्रियों के शामिल होने की प्रबल संभावना होती है। परंतु इस प्रकार से इस कार्यक्रम के बहिष्कार जैसी स्थिति के पैदा होने पर ज़ाहिर है मीडिया से जुड़े विश्लेषकों द्वारा स्थिति का जायज़ा लिया जा रहा है। अब यदि हम टाइम्स ग्रुप के प्रकाशन व प्रसारण के बेलाग-लपेट वाले अंदाज़ पर नज़र डालें तो हमें यह नज़र आएगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में टाइम्स ग्रुप के समाचार पत्रों की भूमिका सत्ताधारी दल के पक्ष में उस प्रकार से नहीं रही जैसी कि दूसरे मीडिया घरानों द्वारा अदा की जा रही थी। यह भी कहा जा रहा है कि उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने टाइम्स ग्रुप को विश्वविद्यालय बनाने हेतु 45 एकड़ ज़मीन दी थी जिसकी वजह से टाइम्स ग्रुप अन्य मीडिया ग्रुप की तरह केंद्रीय सत्ता का गुणगान नहीं कर सका। और ऐसा न कर पाने के लिए इसे भाजपा विरोधी मीडिया ग्रुप का तमगा दे दिया गया। ज़ाहिर है जब इस प्रकार के संदेश किसी भी मीडिया ग्रुप को उसके इस प्रकार के प्रतिष्ठापूर्ण आयोजनों को चौपट कर प्रधानमंत्री व केंद्रीय मंत्रियों की ओर से दिए जाएंगे तो दूसरे मीडिया ग्रुप भी इनसे सब$क तो हासिल करेंगे ही। अब यह मीडिया घरानों के अपने स्वाभिमान, सिद्धांत व विवेक पर निर्भर करता है कि वे ऐसी स्थितियों से डर कर या घबराकर खुद भी सत्ता की छतरी के नीचे जा खड़े हों या फिर सत्ता को अपनी ताकत का एहसास कराने की हि मत पैदा करें।

हमें 1975 के आपातकाल के उस दौर को नहीं भूलना चाहिए जबकि चौथे स्तंभ पर इसी तरह का खतरा मंडराया था। उस समय भी देश के चौथे स्तंभ के सभी पहरेदारों ने मिलकर उस तानाशाही व्यवस्था को ऐसा आईना दिखाया था जिसके दुष्प्रभाव से कांग्रेस पार्टी आज तक उबर नहीं सकी। बेशक आज देश में आपाताकाल तो सरकारी तौर पर ज़रूर लागू नहीं है परंतु मीडिया का पक्षपातपूर्ण रवैया तथा निष्पक्ष मीडिया के साथ सत्ता का किया जाने वाला भेदभावपूर्ण व सौतेला व्यवहार एक बार फिर यह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर भयंकर खतरा मंडरा रहा है।      

तनवीर जाफरी

मो.- 0989621-9228                                                                                                                   

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सम्पादक

डॉ. लीना