सच की आवाज को कहीं सत्ता के बल पर, तो कहीं ताकत के बल पर दबाने का प्रयास किया जाता रहा है
एम. अफसर खां सागर / मीडिया को देश का चौथा स्तम्भ माना जाता है। मीडिया ने हमेशा ही आम आदमी के हक-हकूक की आवाज बुलन्द करने का काम आजादी से पहले और बाद में भी किया है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो पत्रकारिता सामाजिक जागरूकता का हथियार है। मीडिया सदैव से सरकार, प्रशासन और आमजन के बीच सेतु बनने का काम किया है। हाल के दिनों में देश व विदेश से पत्रकारों पर जानलेवा हमलों की दुःखद खबरें आयी हैं।
कहीं पत्रकारों के सर कलम कर दिए गये तो कहीं उन्हे गोलियों का निशाना बनाया गया है। उत्तर प्रदेश के शाजहांपुर में स्वतंत्र पत्रकार जगेन्द्र सिंह की हत्या का मामला रहा हो, मध्य प्रदेश के व्यपाम घोटाले की कवरेज करने गए आजतक चैनल के अक्षय सिंह रहे हों, मध्य प्रदेश के पत्रकार को अगवा कर महाराष्ट्र में जला कर मार दिया गया हो, नोएडा के दादरी में कवरेज करने गए मीडियाकर्मीयों पर हमले हों या फिर चन्दौली में निजी चैनल के टीवी पत्रकार की हत्या। इसके अलावा सोशल मीडिया में भी मीडिया और मीडियाकर्मीयों पर लोग गाहे-बेगाहे हमलावर नजर आते हैं। कारण चाहे कुछ भी रहे हों मगर इन घटनाओं से मीडिया बिरादरी के साथ आम लोगों को भी विचलित हुए है।
अगर यह कहा जाए कि पत्रकारिता सबसे खतरनाक दौर में है तो गलत नहीं होगा।
पत्रकारों ने हमेशा ही आमजन की आवाज को बुलन्द करने का काम किया है बावजूद इसके लगातार पत्रकारों पर हमले होते रहे हैं। यहां विचारणीय प्रश्न है कि अगर पत्रकार खुद सुरक्षित नहीं रहेंगे तो आमजन की समस्याओं को कौन जुबान देगा? आजादी के 68 साल का वक्त बीत जाने के बाद भी लोकतंत्र का पहरूवा आज खुद की पहरेदारी करने में असमर्थ नजर आ रहा है। सच की आवाज को कहीं सत्ता के बल पर तो कहीं ताकत के बल पर दबाने को प्रयास किया जाता रहा है। सत्ता और पद पर विराजमान लोगों के अन्दर आलोचना सुनने की शक्ति दिन-ब-दिन कम होती जा रही है, अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज को कुचल देना चाहते हैं चाहे वो सही क्यों ना हो? पत्रकारों ने हमेशा ही गलत कामों के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का काम किया है चाहे वह सरकार की गलत नीतियां रहीं हो या भ्रष्टाचार सहित दूसरे मुद्दे। सामाजिक आन्दोलनों को बल देने का काम भी मीडिया ने खूब किया है। कुछ एक घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो पत्रकारिता ने आम आदमी के सवालों को बहुत दमदारी से उठाने का काम किया। सदैव ही जनसरोकार और जोर-जुल्म के खिलाफ पत्रकारों की कलम चली है। पत्रकारों का एक ही मकसद रहा है सच की आवाज को बुलन्द करना, चाहे उसके लिए कितनी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े। आजादी आन्दोलनों के दौरान भी हिन्दी पत्रकारिता ने समूचे राष्ट्र को एक धारा में पिरो कर देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया, उस समय भी सच और हक बात कहने पर पत्रकारों को कुचलने का प्रयास किया गया बावजूद इसके पत्रकार सच्चाई के लिए लड़ते रहें और कई बड़ी कुर्बानियां दी गयी।
लोकतंत्र में जनता की आवाज बनना और शासन व प्रशासन की कमियों को उजागर करना ही मीडिया का काम है। समाज में किसी भी ज्वलन्त मुद्दे पर सार्थक बहस करा कर मीडिया विचार लाने का काम करती है। कहा भी गया है कि निन्दक नियरे राखिए। आज पत्रकार निन्दक की भूमिका में खड़ा है फिर भी आलोचना से घबराकर लोग पत्रकारों की आवाज दबाने का प्रयास कर रहे हैं। बदले वक्त के साथ पत्रकारिता के पैमाने भी बदले हैं फिर भी पत्रकारों ने अपने पेशे के प्रति पूरी ईमानदारी बरती है। हां कुछ कमियां जरूर होंगी मगर ऐसी नहीं है कि पत्रकारों को जान से ही मार दिया जाए?
इन हालात पर पत्रकारों को भी चिन्तन करने की जरूरत है। सत्ता में बैठे लोगों को आलोचना सुनने की शक्ति को बढ़ाना होगा और सच की आवाज को सुनना होगा ताकि समाज व नागरिकों के प्रति उनकी जिम्मेदारीयों का एहसास हो सके। शासन और प्रशासन को पत्रकारों की सुरक्षा के बारे में गम्भीरता से सोचना होगा। पत्रकारों पर होते हमले को देखते हुए समूचे देश में ‘प्रेस प्रोटेक्शन एक्ट’ बनाया जाए, जिससे पत्रकारों पर होते हमलों में कमी आए और पत्रकारों पर हाथ उठाने से लोग डरें। तभी जाकर सच की आवाज को पत्रकार बुलन्द कर पाऐंगे वर्ना इस जोखिम भरे पेशे के लिए पत्रकार कब तक खुद की बलि देते रहेंगे और कब तक लोकतंत्र के पहरूवा लहूलुहान होता रहेंगे?
(लेखक युवा पत्रकार /स्तम्भकार हैं, समसामयिक और सामाजिक विषयों पर लिखते हैं)