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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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एक ओर विरोध तो, दूसरी ओर आयोजन भी

संजय कुमार/ राजस्थान पत्रिका ने राज्य सरकार द्वारा बनाए गए ‘काले कानून’ को प्रेस की आजादी को खतरा बताते हुए राष्ट्रीय प्रेस दिवस के दिन संपादकीय खाली छोड़कर जो कदम उठाया,उस पर अन्य राज्य या देश की मीडिया स्वर में स्वर मिलती नजर नहीं आयी। शायद इन्हें इंतजार है अपने ऊपर हमले की। जबकि अघोषित रूप से रोजाना मीडिया के काम पर हस्तक्षेप होता रहता है। परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमले के बीच पत्रकार को निशाना बनाया जाना आम घटना हो चली है।

जैसा कि राजस्थान सरकार ने पिछले दिनों दो विधेयक, राज दंड विधियां संशोधन विधेयक, 2017 और सीआरपीसी की दंड प्रक्रिया सहिंता, 2017 पेश किया था। इस विधेयक में राज्य के सेवानिवृत्त और सेवारत न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोकसेवकों के खिलाफ ड्यूटी के दौरान किसी कार्रवाई को लेकर सरकार की बिना पूर्व अनुमति के उन्हें जांच से संरक्षण देने की बात की गई है। यह विधेयक बिना अनुमति के ऐसे मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग पर भी रोक लगाता है। इस विधेयक के मुताबिक अगर मीडिया राज्य सरकार द्वारा जांच के आदेश देने से पहले इनमें से किसी के नामों को प्रकाशित करता है, तो उसके लिए 2 साल की सजा का प्रावधान है।

राजस्थान के प्रमुख मीडिया हाउस राजस्थान पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने इस कानून के खिलाफ  शुरू से ही अपने तेवर कड़े किये है। उन्होंने अपने आलेख,‘जब तक काला: तब तक ताला’ में साफ किया था कि जब तक यह काला कानून वापस नहीं होता है तब तक राजस्थान पत्रिका मुख्यमंत्री वसुंधरा और उनसे संबंधित कोई खबर नहीं प्रकाशित करेगा।

यह पहला मौका नहीं है जब मीडिया सरकार के खिलाफ उतरी है। फर्क यह है कि राज्य सरकार के खिलाफ एक मीडिया हाउस मैदान में है। बिहार में भी राज्य सरकार की ओर से जब प्रेस के ख़िलाफ़ काला कानून लाया गया था तब राज्य के पत्रकार गोलबंद हुए थे। 

सबसे बड़ा सवाल यह है कि खानों में बटीं मीडिया हाउस गोलबंद क्यो नहीं होते। क्या उन्हें सरकारी विज्ञापन का खतरा सताता है? पत्रकार पर हमले में अपने हाउस से बल मिल जाता है लेकिन दूसरे हाउस वाले खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं।

राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर राज्य सरकारों की जनसंपर्क विभाग की ओर से आयोजित प्रेस दिवस पर पत्रकार- अधिकारी फूं फं आ करते है। मन की भड़ास निकालते है। लेकिन पत्रकारों की दशा दिशा सुधारने और सुरक्षा प्रदान करने को लेकर ठोस पहल होती नही दिखती है। देखा जाए तो मीडिया हाउस के विरोधी तेवर में जो फांक है वह मीडिया को कमजोर ही बनता है।

संजय कुमार

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना