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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सीढ़ियां चढ़ता मीडिया

पुस्तक मीडिया और जन जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में ले जाने वाला

मीनाक्षी बोहरा / मीडिया पर लिखने का शुरुआती उत्साह और फैशन अब बीती बात है। अकादमिक हलकों में मीडिया अब विमर्श का विषय बन रहा है तो उसके कुछ वाजिब तर्क हैं। असल में स्वीकार करना चाहिए कि मीडिया का वर्तमान व्याकरण पश्चिम से आयातित होने के कारण हमारी स्थिति शंका और संदेह से भरी रही। यदि मीडिया को लेकर हिन्दी में बहुत आशंका थी तो इसका वाजिब कारण यही था कि हिन्दी समाज बहुधा तेजी से होने वाले परिवर्तनों को एकाएक स्वीकार नहीं करता। अभी अभी प्रकाशित हुई पुस्तक 'सीढियाँ चढ़ता मीडिया' में सुपरिचित आलोचक माधव हाड़ा उपलब्ध तथ्यों और आंकड़ों का आधार लेकर मीडिया, समाज और साहित्य में आए बदलावों को रेखांकित और मूल्यांकित करते हैं। ऐसा करते हुए उनके निष्कर्ष बने बनाए खांचों में फिट होने से इनकार करते हैं और वे सर्वथा नयी बौद्धिक उत्तेजना को जन्म देते हैं।

बारह अध्यायों और एक परिशिष्ट के साथ पुस्तक की सामग्री विविधवर्णी है। यहाँ वे तकनीक और मीडिया के विस्तार, उनके अंतर्संबंधों, मीडिया के दो प्रमुख रूपों इलेक्ट्रॉनिक और मुद्रण, मुद्रण माध्यमों के स्थानीयकरण, समाचार पत्रों की बदलती भाषा (जिसे उन्होंने हिंग्लिश की बजाय हिंग्रेजी कहा है), भारत में मुद्रण माध्यमों के विस्तार आदि पर तटस्थ किंतु मुक्त भाव से विचार करते हैं। उदाहरण के लिए पुस्तक के अध्याय' मध्यवर्ग के ताबेदार' में वे लिखते हैं- 'हिंदी दैनिकों ने मध्य वर्ग की द्वैत मनोदशा का खूब अच्छा व्यावसायिक दोहन किया है। इनकी सामग्री में भारतीय मध्यवर्गीय आग्रह के अनुसार अमरीकी और यूरोपीय ढंग की जीवन शैली, खानपान और मनोरंजन के साथ पारंपरिक भारतीय संस्कृति को छौंक भी बराबर दिया जा रहा है।' इसका कारण भी वे खोजते हैं और बताते हैं कि ग्लॉबलाइजेशन और आर्थिक उदारतावाद से मध्य वर्ग का नजरिया बहुत बदल गया है। मितव्ययिता और भोग की अनिच्छा कभी मध्य वर्ग के आदर्श थे, लेकिन अब उसने इनसे किनारा कर लिया है।

वहीं एक अन्य अध्याय में उन्होंने क्षेत्रीय पत्रकारिता के ग्रामीण स्वरुप पर विचार किया है और उनका यह अध्ययन बेहद दिलचस्प बन पड़ा है। उनके निष्कर्ष देखें- हिंदी दैनिक पत्रों की पहुंच और प्रभाव का दायरा बढ़कर ठेठ दूरदराज के ग्रामीण इलाकों तक हो गया है। ये लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं मजबूत करने में कारगर सिद्ध हो रहे हैं। इनके माध्यम से अन्याय, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध स्वर मुखर करना आसान हो गया है। क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण भाषा का लोकतंत्रीकरण संभव हुआ है। इनमें ऐसी भाषा काम में ली जा रही है जो दूरदराज के गांव कस्बों में आम-तौर पर बोली और समझी जाती है। वहीं इन सकारात्मक निष्कर्षों के साथ वे कुछ चिंताजनक पहलू भी बताते हैं- क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण पाठकों के सरोकार बहुत सीमित हो गए हैं। गांव-कस्बों के पाठक अपने से संबंधित क्षेत्रीय समाचारों के अलावा कुछ नहीं पढ़ते। यहां तक कि वे अपने क्षेत्र से सटे हुए इलाकों के समाचार भी नहीं पढ़ते। अपुष्ट और अभिमतविहीन समाचारों के कारण क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ का विकृत रूप सामने आ रहा है। इनमें अतिरंजना यथार्थ और उसकी व्यंजक भाषा को भ्रष्ट कर रही है। क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ,  इतिहास और मिथ का अंतर समाप्त हो रहा है। वैज्ञानिक चेतना और समझ के विकास में जो भूमिका दैनिकों की होनी चाहिए, वह इस कारण अवरुद्ध है। क्षेत्रीय परिशिष्टों में विज्ञप्तियों, ज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों में निरंतर बढ़ोतरी के कारण संवाददाता,  संपादक आदि की पारंपरिक भूमिका सिमट रही है। कहना न होगा कि ऐसा अध्ययन किसी भी भाषाई मीडिया के लिए बहुत उपयोगी एवं प्रेरक भी है। ठीक इसी तरह वे एक आलेख में कहते हैं 'बाजार द्वारा संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलने का लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है।' यह उस पारंपरिक दृष्टि से भिन्न दृष्टि है जो बाज़ार में सारी सम्स्याओं की जड़ देखती है जबकि विडम्बना है कि बाजार ने ही कई सारे उपादानों को बनाया और विकसित किया है। 

मूलत: डॉ हाड़ा साहित्य के क्षेत्र से जुड़े हैं और यह आकस्मिक नहीं कि वे मीडिया पर विचार करते हुए उसमें साहित्य और विशेषत: कविता और कहानी पर भी विचार करते हैं। इनके शीर्षक ही जैसे सारी बात कह देने वाले हैं- 'कहानी-मीडिया में आपसदारी' और 'मीडिया की हुकूमत में कविता', इन अध्यायों में डॉ हाड़ा ने साहित्य को भी पारंपरिक नजरिये से देखने के स्थान पर कुछ नए ढंग से देखने-समझने की कोशिश की है, कहानी के सम्बन्ध में उनका कहना - 'छूटे हुए स्पेस तलाशने की जद्दोजहद में ही समकालीन हिंदी कहानी की अन्य साहित्यिक विधाओं के साथ अंतर्क्रिया बढ़ रही है। संस्मरण, रिपोर्ताज आदि विधाओं की कहानी में घुसपैठ बढ़ रही है। कहानी संस्मरण और रिपोर्ताज की शक्ल में लिखी जा रही हैं और संस्मरण और रिपोर्ताज कहानियों की शक्ल में आ रहे हैं।' शिल्प और अंतर्वस्तु जैसे घिसे मुहावरों से हटकर नए ढंग से सोचना समझना है। वहीं दूसरी और कविता के सम्बन्ध में वे कुछ अप्रिय किन्तु चौंकाने वाली सही सही बातें कह देते हैं- 'अपनी तमाम जनोन्मुखता के बावजूद हिंदी कवि बिरादरी यह मानकर चलती है कि वह हर चीज जो आम लोगों को अच्छी लगती है, घटिया होती है। प्रिंट मीडिया भी क्योंकि आम लोगों को पसंद आता है इसलिए इसके बारे में भी उसकी यही राय है। यह कुछ नहीं समझ में आने वाली बात है।' उनका निष्कर्ष भी आसानी से स्वीकार करने में कष्टपूर्ण ही होगा- 'रास्ता एक ही है कि कविता आत्मुग्धता और संभ्रम से बाहर निकले और अपने बुनियादी गुण-धर्म में लौटकर पाठकों से आत्मीयता का रिश्ता कायम करे।' 

किताब में मध्यकालीन कवयित्री मीरां पर एक दिलचस्प आलेख है- 'मीडिया में मीरां का छवि निर्माण।' समकालीनता से अत्यधिक आक्रांत समकालीन हिंदी विमर्श में कदाचित यह पहली बार ही हुआ है कि कोई आलोचक इतनी गम्भीरता से एक मध्यकालीन कवि के साथ मीडिया के बर्ताव का विश्लेषण कर रहा है। इस आलेख के बहाने भारतीय समाज में स्त्री की छवि और मीडिया के मिजाज पर की गई चर्चा आलेख को समीक्षा से कहीं आगे समाज विमर्श तक ले जाती है। समकालीन मीडिया से सम्बंधित ताज़ा आंकड़ों और सर्वेक्षणों का भरपूर उपयोग पुस्तक में किया गया है। 'हिन्दी की पीठ पर हिंग्रेजी', 'सीढ़ियां चढ़ता मीडिया', 'किताब से कट्टी', 'बेगानी शादी में..' जैसे अध्याय इस पुस्तक को मीडिया और जन जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में ले जाने वाले हैं। 

किताब के अंत में एक परिशिष्ट के रूप में सुविख्यात कथाकर स्वयं प्रकाश से लेखक की बातचीत दी गई है जो मीडिया, समकालीन समाज और कहानी पर केन्द्रित है। स्वयं प्रकाश यहाँ जो कह रहे हैं उसे ध्यान से सुनना चाहिए - 'इक्कीसवीं सदी में एक सफल लेखक वहीं होगा जो एक सफल रिसर्चर भी होगा क्योंकि जब तक आप अपनी विषय वस्तु को पाठक से अधिक नहीं जानते, तब तक आप उसे प्रभावित ही नहीं कर पाएंगे। वह पहले कदम पर ही आपको फेल कर देगा।'

आशा की जानी चाहिए कि यह पुस्तक हिन्दी में उस अध्ययनशीलता की परम्परा बना सकेगी जो विमर्श के नए अनुशासनों को व्यापक नजरिये से देखने और साथ लेकर चलने का साहस रखती है। अच्छा होता यदि इसका पैपरबैक भी साथ आ जाता।

पुस्‍तक - सीढ़ियां चढ़ता मीडिया

लेखक - माधव हाड़ा 

प्रकाशक - आधार प्रकाशन 

               पंचकूला ,   

मूल्‍य - रु. 250/-

समीक्षक - मीनाक्षी बोहरा
393 डी.डी.ए., कनिष्क अपार्टमेंट्स 
ब्लाक सी एंड डी 
शालीमार बाग़
दिल्ली-110088

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