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ब्राह्मण की सीख में पुराण पाथते पिछड़े

कैलाश दहिया/ ब्राह्मणी प्रभाव में पिछड़े वर्ग के कथित साहित्यकारों का दिमाग कैसे काम कर रहा है, इसे अश्विनी कुमार पंकज की लिखत से समझा जा सकता है। इन्होंने अपनी दिनांक 04 जुलाई, 2022 की  फेसबुक पोस्ट में लिखा है- "आ रहा है आजीवक मक्खलि गोसाल के दर्शन और संघर्ष पर केंद्रित हमारा तीसरा उपन्यास जो न नियतिवादी था, न रैदास की परंपरा में।"(1) इसे ही पुराण पाथना  कहते हैं। ये पुराणकर ब्राह्मण की सीख में हैं, तभी इन की भाषा भी बिगड़ी हुई है।

इसी पुराण पाथने को प्रक्षिप्त गढ़ना भी कहते हैं। और, 'पहले का पुराणकार ही आज का उपन्यासकार बन गया है।'(2) और, पुराणकार का अर्थ ही है कि 'इन के पास इतिहास बोध नाम की कोई चीज नहीं है। सच यह है कि अन्य पुराणकारों की तरह यह भी इतिहास से लड़ने बैठ गए हैं।'(3) कोई इन से पूछे, ये आजीवक महापुरुष पर पुराण पाथने के इतने इच्छुक क्यों हैं? क्या इन्हें पौराणिक पात्रों की कमी पड़ गई है? फिर, ये ऐसे लिख रहे हैं मानो 'नियति' के कितने बड़े जानकार हों! नियति का एक शब्द नहीं जानते और घोषणा कर दी कि नियतिवादी गोसाल 'न नियतिवादी था, न रैदास की परंपरा में।' कोई इन से पूछे, अगर गोसाल नियतिवादी नहीं थे, तो क्या वे पुनर्जन्मवादी थे? चूंकि, नियतिवाद आया ही है पुनर्जन्म के सिद्धांत को ध्वस्त करते हुए, जिस के नियंता मक्खलि गोसाल थे। अब इन के लिखे गोसाल तो नियतिवादी थे नहीं, तब इन्हें बताना पड़ेगा कि नियतिवाद का प्रणेता कौन था? हो सके तो थोड़ी 'नियति' की भी व्याख्या कर दें। असल में ऐसा लेखन साहित्यिक अपराध की श्रेणी में आता है।

इन का यह लिखना तो बेहद हास्यास्पद है कि "न रैदास की परंपरा में।" मतलब यह है कि अपनी चलती में इन्हें उल्टी गंगा बहानी है। इन की लेखनी का समर्थन करने वाले किसी एक भी व्यक्ति ने नहीं पूछा, गोसाल कैसे रैदास की परंपरा में हो सकते हैं? हां, सद्गुरु रैदास अवश्य महान मक्खलि गोसाल के परंपरा में थे। ऐसे ही कबीर साहेब भी आजीवक थे। ऐसे लगता है ये इसी बात से परेशान हो गए हैं! इन की इस परेशानी का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। कल को ये कह देंगे कबीर भी डॉ. धर्मवीर परंपरा में नहीं थे! कोई इन का मुंह थोड़े पकड़ सकता है। वैसे, इन से पूछा सकता है कि रैदास की परंपरा क्या है? हो सके तो ये गोसाल की परंपरा ही बता दें। फिर दलित अपने आप समझ लेंगे की कौन किस परंपरा में है। इस बात को इन के समेत सभी अच्छे से जानते हैं कि ना तो गोसाल को, ना रैदास को और ना ही कबीर को, इन में किसी को भी वर्णवादी परंपरा किसी भी रूप में स्वीकार नहीं। वैसे, इन्हें अपनी बतानी चाहिए, ये किस परंपरा में आते हैं?

दरअसल, ये पुराणकार इस सदी के अमीचंद शर्मा हैं। बेशक ये लोहार जाति से हैं, जिन्हें दलित विमर्श के दबाव में द्विजों ने आगे कर दिया है। अमीचंद वह है जिस ने पिछली सदी में दलितों में फूट डालने के लिए एक दलित जाति को ब्राह्मण वाल्मीकि से जोड़ दिया। आज उस जाति के लोग तथाकथित वाल्मिकन धर्म के नाम से वाल्मीकि को जिस तरह ढो रहे हैं वह किसी से छुपा नहीं है। जहां तक कुछ दलितों के खुद को वाल्मीकि बताने की बात है तो इसे ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की लिखत के माध्यम से भी देखा जा सकता है। वाल्मीकि जी ने अपनी आत्मकथा 'जूठन' में साफ शब्दों में दर्ज किया है-"महाराष्ट्र प्रवास के दौरान ऐसे अनुभव हुए के लोग 'वाल्मीकि' सरनेम के कारण मुझे ब्राह्मण समझ बैठे थे।"(4) उन्होंने यह भी बताया है, 'मेरी पत्नी चंदा मेरे इस सरनेम को कभी आत्मसात नहीं कर पाई। न इसे अपने नाम में जोड़ती है। मेरे निकम्मेपन की गिनतियों में यह सरनेम भी एक है, जिसका जिक्र यदा-कदा वह कर देती है।'(5) ऐसे ही वाल्मीकि जी ने लिखा है, 'मैंने पाटिल से पूछा था, "मेरे बारे में वे जानते हैं?" "शायद नहीं... वाल्मीकि सरनेम से शायद ब्राह्मण समझते हैं।"(6)

यूं, खुद को वाल्मीकि से जोड़ने वालों की बात है तो इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि वाल्मीकि ने रामायण नाम का पुराण रच कर क्या किया है। अगर इन से पूछ लिया जाए कि वाल्मीकि का चिंतन क्या है तो ये बगले झांकने लगेंगे। एक जनाब ने तो यहां तक लिख दिया, 'अमीचन्द शर्मा की पुस्तक ‘श्री बाल्मीकि प्रकाश’ लिखे जाने का मुख्य कारण  ‘स्वामी अछूतानन्द’ जी और ‘स्वामी शूद्रानन्द’ जी आलोचना कर वाल्मीकि कौम के 1931 की जनगणना में ‘आदि धर्म’  के कालम से दूर रखना था, “न कि इनका वालमीकि-करण करना”।(7) कोई इन से पूछे, किसी दलित जाति को 'आदि धर्म या आदि हिन्दू' आंदोलन से दूर करने का अर्थ क्या है? उत्तर में बताया जा सकता है, यह दलितों में दो-फाड़ करना है। जिसे वाल्मीकि-करण बताया जा रहा है यह दलितों में विभाजन का बड़ा षड्यंत्र है। यह दलितों की वैचारिक रूप से कमजोर जाति को हथियार बना कर किया गया। ऐसे ही दलितों के सब से शिक्षित व्यक्ति ने महारों को दलितों से अलग कर दिया।

अब जब आजीवकों की तरफ से आ रहे सवालों पर ब्राह्मणी मानसिकता की चपेट में आए दलितों से बोलते नहीं बन रहा तो ये किसी अमीचंद जैसे के ही बनाए सद्गुरु रैदास के जनेऊधारी चित्र को आगे कर के उछल-कूद करते हैं। इन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा कि ब्राह्मण किस तरह से प्रक्षिप्त गढ़ता है। ऐसा ही प्रक्षिप्त दलितों को बौद्ध बताने का गढ़ा गया है।

यह बताने में कोई हिचक नहीं है कि वर्णवादी इन जैसों के माध्यम से  आदिवासियों को अपना शिकार बनाने की फिराक में हैं। तभी तो इन की पोस्ट पर डॉ. चौथी राम यादव भी इन्हें बधाई दे रहे थे। यह जानते हुए भी कि इन के आने वाले कथित उपन्यास में जो भी लिखा होगा प्रक्षिप्त, मनगढ़ंत और झूठ के सिवाय कुछ नहीं होगा। असल में इसे पिछड़ों की भी सीमा ही माना जाना चाहिए। क्योंकि, ये महान मक्खलि गोसाल और उन के चिंतन से डरे हुए लोग हैं। तभी ये द्विजों के सिखाए में चल रहे हैं।

दरअसल, जब से 'आजीवक चिंतन' सामने आया है, तभी से वर्णवादी इसे प्रक्षिप्त ही नहीं कर रहे बल्कि इस में घुसपैठ की जुगत में हैं। इस में इन्हें कथित पिछड़े बुद्धिजीवियों का साथ भी मिला हुआ है। वर्णवादियों ने पिछड़े बुद्धिजीवियों का एक गैंग प्रक्षिप्त लेखन के काम में लगा दिया गया है। हालत यह है कि पिछड़े कबीर साहेब को ले कर सिर धुन रहे हैं। मक्खलि गोसाल तो इन की समझ से बाहर हैं। वैसे, जब 'आजीवक और इस के नियति के सिद्धांत' को डॉ. भीमराव अंबेडकर ही समझ नहीं  पाए, तब इन जैसों की क्या कही जाए!

असल में, पिछड़ों में कुछ ब्राह्मण से भी आगे बढ़ कर प्रलाप कर रहे हैं, एक ने अभी पिछले दिनों अपने व्याख्यान में कहा- "कबीर के जनपद में धर्म का कोई सांगठनिक रूप नहीं है।"(8) यूं, बस इन्हें  बोलने से मतलब है, फिर जो चाहे मन में आए बोलो। इन जैसों की यह हालत तो तब है जब कबीर साहेब पर 1997 से 2017 तक चली बहस में कबीर पर विशेषज्ञ का दावा करने वाले सारे तथाकथित लेखक- आलोचक धूल- धूसरित किए जा चुके हैं।

ऐसा नहीं है कि इन के पुराणवादी लेखन की आजीवक ही आलोचना कर रहे हैं। इन्हीं की फेसबुक वॉल पर 04 जुलाई, 2022 की एक अन्य पोस्ट देखी जा सकती है। जिस में इन्हीं की एक अन्य पुस्तक 'माटी माटी अरकाटी' के बारे में नीदरलैंड के एक प्रवासी भारतीय विशेषज्ञ ने लिखा है, 'मैंने अश्विनी कुमार पंकज की पुस्तक माटी माटी अरकाटी पढ़ी है। मेरा ख्याल था कि उनकी किताब मॉरीशस के आदिवासियों की स्थिति के करीब होगी। दुर्भाग्य से, यह वास्तविकता से परे महज एक कल्पना है।' (9) इस पर इन्होंने लिखा, 'आपने सही लिखा है कि यह एक काल्पनिक उपन्यास है। लेकिन आप इसके नए संस्करण में क्या परिवर्तन चाहते हैं, उसका उल्लेख आपके मेल में नहीं है। मैं आभारी रहूंगा यदि यह बता सकें कि मेल में आप किन बिंदुओं की बात कर रहे हैं जिस पर मुझे विचार करना चाहिए।'(10) इन की इस टिप्पणी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इन की काल्पनिक लेखनी कैसे चलती है।

असल में, पुराणकार कभी भी सच्ची बात सामने नहीं आने देना चाहता। यह मनगढ़ंत लिखता है और सच्ची बात को छुपा देना चाहता है। महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने बताया ही है, 'पहले का पुराणकार आज का उपन्यासकार बन गया है। इतिहास के बारे में दो हरफ नहीं जानते और सारी छूट लेनी चाहते हैं।'(11)   कबीर साहेब को तभी कहना पड़ा है, 'मैं कहता सुरझावन हारी, तू राखे अरुझाय रे।'(12) वैसे, अगर इन्हें लिखने का इतना ही शौक है तो इन्हें एक काम दिया जा सकता है। ये ''लोहार जीवन पर जारकर्म का प्रभाव'' विषय पर किताब लिखें। इस काम में आजीवक इन की भरपूर मदद करेंगे। वैसे, जमींदारों के लौंडे शाम होते ही अक्सर इन के डेरे-तंबुओं के इर्द-गिर्द मंडराते देखे जा सकते हैं। डॉ. तुलसी राम ने ऐसे एक नट परिवार की गवाही अपनी आत्मकथा में दर्ज की है।  

असली बात यह है कि आजीवक चिंतन के आने से ये बुरी तरह भयभीत हो गए हैं। इस बारे में मनीष कुमार चांद ने बिल्कुल सही लिखा है, 'आपका सबसे बड़ा टेंशन है, डा. धर्मवीर की किताब - महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल। आप इस किताब से लड़ रहे हैं, अवर्णवादी से युद्ध कर रहे हैं, और आजीवकों से लड़ाई छेड़ रखे हैं...।'(13) मनीष जी की बात बिल्कुल सही है। वर्णवादी को जिस बात से भय लगता है वह है अवर्णवादी चिंतन। जिस के प्रणेता हैं मक्खलि गोसाल और जिस को पुनः स्थापित करने वाले हैं डॉ. धर्मवीर। आजीवक चिंतन से वर्णवाद नेस्तनाबूद हो जाता है। पुराण पाथने वालों के लिए तो कबीर साहेब ने कहा ही है :

   बैठा पंडित पढ़ै पुरान।

   बिन देखे का करत बखान।।(14) तो इन के उपन्यास में मनगढ़ंत बातों के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला।

पूछा जाए, ये गोसाल पर पुराण क्यों लिख रहे हैं, ऐतिहासिक रिसर्च क्यों नहीं कर रहे? बताइए, कोई गोसाल पर उपन्यास लिख रहा है तो कोई डॉ. अंबेडकर पर! किसी को सपने में अंबेडकर दिखाई दे रहे हैं तो कोई किसी बैंच और पेड़ के नीचे बैठ अंबेडकर की कल्पना कर रहा है। गजब हालत है! अगर अंबेडकर पर लिखना ही है तो उन की किताब पढ़ कर उस की आलोचना ही लिख दें। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि इन के द्वारा लिखी गई प्रत्येक पुस्तक काल्पनिक गप्पों से भरी मिलेगी। जिन की प्री-बुकिंग की गुहार लगाते पति-पत्नी देखे जा सकते हैं। डॉ. धर्मवीर ने ऐसे ही प्रक्षिप्तकारों के लिए कहा है, 'अच्छा यही रहेगा कि इन का वह उपन्यास कोई ना पढ़े।' (15) दलित के लिए तो यह गुणने योग्य बात है।

                       ***

 

संदर्भ:

1, 9, 10

AK Pankaj की 04 जुलाई, 2022 की फेसबुक पोस्ट।

2, 3, 11, 12, 14,15

महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली -110 002, संस्करण : 2017, पृष्ठ 142, 151, 142, 349, 349, 142

4, 5, 6.जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड जी-17, जगतपुरी, दिल्ली 110 051, संस्करण : 2019, पृष्ठ 153, 154, 118

7. मेरी 08 जुलाई, 2022 की फेसबुक पोस्ट पर चली बहस में शंबूक अनमोल का कथन।

8. कमलेश वर्मा की 16 जून, 2022 की फेसबुक पोस्ट

13. मनीष कुमार चांद की 05 जुलाई, 2022 की फेसबुक

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