दिनेश चौधरी/ कथित पत्रकारों के साथ लालू यादव की क्या झड़प हुई है, मुझे नहीं मालूम। लालू बहुत डिप्लोमेटिक हैं और प्रेस से भागते भी नहीं। भागने वाले तो 3 साल से भाग रहे हैं। लालू मुलायम की तरह ढुलमुल भी नहीं रहे और उनका स्टैंड हमेशा बहुत साफ़ रहा। पर थोड़ी बात आज की पत्रकारिता पर करनी है, जो बहुत थोड़ी बची हुई है।
छत्तीसगढ़ में देशबन्धु को छोड़कर अन्य अखबारों ने सरकार विरोधी विज्ञापन छापने से मना कर दिया। यानी अब पेड न्यूज वाला वह दौर भी चला गया जब आप पैसे देकर कुछ भी छपवा सकते थे। अब जो दौर आ गया है उसमें आप पैसे देकर खबर छपवा सकते हैं और पैसे देकर विज्ञापन रुकवा सकते हैं। यानी यह पेड न्यूज के साथ पेड सेंसरशिप की नई जुगलबन्दी है और पेड न्यूज के बीते दौर से और भी ज्यादा खतरनाक है। कैसा बुरा जमाना आ गया है कि जो सरकार सूचनाओं को अनब्याही माँ की तरह छुपाती थी, वो अब सूचनाओं के लिए बाध्य है और जो मीडिया इनके लिए जमीन-आसमान एक कर देता था, अब उन्हें छुपाने के खेल में शामिल हो गया है।
यह पैसे की ताकत का निर्लज्ज खेल है और इसमें लिप्त लोग जो कुछ भी कर रहे हों, कम से कम पत्रकारिता तो नहीं कर रहे हैं। ये शक्तिशाली माफियाओं के नेतृत्व वाले संगठित गिरोह हैं, जिनकी गर्भनाल सत्ता और पूंजी के निर्लज्ज गठजोड़ के केंद्र में है और जिन्होंने पत्रकारों के नाम बाउंसर्स को छुट्टा छोड़ रखा है। इनके बॉस वे एंकर हैं जो चरित्र हत्या की सुपारी लेते हैं।
पेड न्यूज तब था जब मीडिया और सेठ भिन्न थे। सेठ मीडिया को पे करता था। अब सेठ ही मीडिया हो गया है तो नंगा नहाए क्या और निचोड़े क्या, छापे क्या और छुपाए क्या? ये बेशर्म पूँजी का खुला खेल फरक्काबादी है। इसे मीडिया कहना मीडिया की तौहीन है क्योंकि पुराने दिनों के कामों के कारण अब भी इस शब्द में थोड़ी गरिमा चिपकी हुई है।
श्वान अपने मालिक का कितना भी वफादार हो, राह चलते को लपक कर काटता नहीं है। इस तरह काटता वही है जो एक विशेष अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ये सब विशेष अवस्था को पहुँचे हुए हैं और इनसे बचाव करने की जिम्मेदारी खुद की है।