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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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ये इसरो और भारतीय वैज्ञानिकों की शाम है, न्यूज एंकरों की नहीं

विनीत कुमार न्यूज एंकरों में इतनी भी समझदारी नहीं बची है कि वो अपने दर्शकों को बता सकें कि आज इसरो और उनके वैज्ञानिकों का दिन है. ख़ुद ही फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता में शामिल होकर उन्हें अपदस्थ करने में लगे हैं. हम भारतीय आज जिनके बूते जश्न मना रहे हैं, स्क्रीन पर उनके होने का कोई भाव ही पैदा नहीं हो रहा. ऐसे-ऐसे क्रोमा वॉल तैयार किए जा रहे हैं कि जैसे कि अब कल से प्राइम टाइम के न्यूज एंकर चांद पर से एंकरिंग करेंगे.

बहुमत की सत्ता का पिछलग्गू कारोबारी मीडिया के भीतर इस बात की ग़ैरत पूरी तरह खत्म हो चुकी है कि किस मौक़े पर किन्हें आगे दिखाना-बताना है और ख़ुद को पीछे रखना है ! इस कवरेज से समझने में वैसे तो मुश्किल नहीं होती कि हमारे न्यूज एंकरों ने सालों पहले लिखना-पढ़ना और संवेदनशील ढंग से सोचना छोड़ ही दिया है, साथ ही यह भी समझ आता है कि निजी स्वार्थ इतना हावी है कि अपने आगे दूर-दूर तक देश और उसके वाज़िब हक़दार नज़र नहीं आते. एक क्रोमा वॉल के बूते वो किसी का भी हक़ मार ले सकते हैं, तकनीक का कैसे फूहड़ इस्तेमाल किया जा सकता है, ये न्यूज चैनलों से बेहतर शायद ही कोई जानता हो.

चौबीस घंटे देश-देश की कंठीमाला जपनेवाले इन एंकरों में रत्तीभर की क्षमता नहीं है कि देश के प्रति प्रेम और गर्व का भाव कैसे पैदा किया जा सकता है जिससे कि नागरिकों के भीतर साथ-साथ तार्किकता, तथ्यपरकता और समझदारी पैदा हो सके. उनके लिए बड़ी से बड़ी घटना और संदर्भ कुछ घंटे की हो-हो भर है जिसमें कवरेज के नाम पर देश कम, न्यूज एंकरों की निजी कुंठा साफ दिखाई देती है. वो ऐसे मौक़े पर जो वो नहीं हो सके, वैसा दिखने और जो हो गए, उन्हें अप्रासंगिक बनाने में पूरी बेशर्मी से लग जाते हैं. नहीं तो आज देश के वैज्ञानिकों से बड़ा हीरो कौन है भला ?

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना