अरूण आजीवक/ मनुष्य सामाजिक प्राणी है अर्थात मनुष्य का अपना एक समाज होता है। दरअसल मनुष्य मनुष्य ही इसी रूप में हुआ है कि उस ने समाज के रूप में रहना शुरू किया। समाज का आधार मनुष्य की एक-समान विचारधारा और जीवन-यापन का तरीका है। अलग-अलग विचारधारा और जीवन-यापन के तरीकों के आधार पर मनुष्यों के अलग-अलग समाजों का अस्तित्व सामने आया है।
जन्म से ले कर मरने तक के जीवन के समस्त क्रिया कलापों, खुशी और शोक के कार्यक्रमों को हर मनुष्य अपने समाज की विचारधारा और रीति-रिवाज के अनुसार ही करता है। समाज से कट कर मनुष्य का अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता है।
दुनिया के अन्य समाजों की तरह दलितों का भी अपना एक पृथक और स्वतंत्र समाज है। समाज होने का अर्थ ही यही है कि उस की एक ऐतिहासिक विचारधारा है। दलितों का भी अपना एक समाज है जिस का मतलब है कि दलित समाज की भी अपनी एक स्वतंत्र ऐतिहासिक विचारधारा है जिस कारण यह अन्य समाजों से अलग पहचान रखता है। उसी ऐतिहासिक विचारधारा के गर्भ से दलितों की समस्त परम्पराएँ निकली हैं।
समस्या क्या है? समस्या यह है कि जहाँ दुनिया की कौमें ऐतिहासिक संघर्ष में अपनी मूल पहचान को बनाए रखीं वहीं दूसरी तरफ दलित कौम अपनी मूल पहचान को खोती रही है। अपनी पहचान के साथ होने का कौम को फायदा यह होता है कि वह संघर्ष कर राजनीतिक और आर्थिक गुलामी से मुक्ति पा लेती है। दलित कौम जब अपनी पहचान ही खो दी तो वह कौन सी गुलामी के खिलाफ लडे़गी और कैसे लडे़गी? यही कारण है कि दलितों की समस्याओं का अंत नहीं हो रहा है। पहचान के साथ होने का कौम को यह भी फायदा होता है कि एक ईसाई को कोई मुस्लिम नहीं कह सकता। इसी तरह एक मुसलमान को कोई ईसाई नहीं कह सकता। वहीं दूसरी तरफ, बिना पहचान के दलित को ब्राह्मण आराम से हिन्दू कह देता है। फिर हिन्दू कहने के साथ वह दलित पर अपनी विचारधारा थोप कर उस का सांस्कृतिक-धार्मिक उपनिवेशीकरण करता है।
पहचान क्या है? कौम की पहचान का अर्थ है धर्म। कौम अपनी विचारधारा और उस से जुड़ी परम्पराओं, रीति-रिवाजों, मान्यताओं को समेकित कर एक नाम देती है जिसे उस का 'धर्म' कहा जाता है। यह इतना आसान नहीं है जितना यहाँ लिख दिया जा रहा है। इस नाम के साथ ही एक कौम स्वतंत्र रूप से स्थापित हो जाती है। इस के लिए कौम को महासंग्राम लड़ना पड़ता है। ऐसा ही महासंग्राम प्राचीन समय में महान मक्खलि गोसाल ने लड़ा था। इस नाम से कौम अन्य कौमों से अपनी स्वतंत्र और पृथक पहचान बनाती है तथा उस की विचारधारा और परम्पराएँ सुरक्षित रहती हैं। इसी के आधार पर संगठित हो कर कौम पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों के लिए लड़ती है।
क्योंकि दलित अपने धर्म को बिसराये रहे हैं इसलिए वे अपने कौम की मूल विचारधारा से भी कट गए। हां परम्पराएं, रीति-रिवाज, मान्यताएँ कभी मिटती नहीं हैं। लेकिन विचारधारा से कटे होने के कारण ये तितर-बितर हो जाती हैं। दलितों की भी परम्पराएँ उन के जीवन में विद्यमान रही हैं पर विचारधारा से कटने के कारण एक तो दलित उन की ताकत को पहचान नहीं सके और दूसरे ब्राह्मण अपनी विचारधारा का रंग भी उन पर चढ़ाता गया।
हर दलित चाहे वह गरीब हो या अमीर हो, शिक्षित हो या अशिक्षित हो, मजदूर हो या नौकरीपेशा वाला हो उस का मन गृहस्थी में ही रमता है। वह विवाह करता है। पत्नी और बच्चों के साथ रहता है। वह कितना ही गरीब क्यों न हो अपनी पत्नी और बच्चों का पेट कमा कर ही भरता है, भीख नहीं मांगता। पति-पत्नी में न बनने पर वे एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं और फिर पुनर्विवाह कर जीवन जीते हैं। विधवा होने पर दलित बेटी पुनर्विवाह कर घर बसाती है। यही सब दलितों की परम्पराएं हैं। इन्हीं परम्पराओं और इन के पीछे की विचारधारा से दलित का 'धर्म' सामने आता है। महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर दलितों की इन्हीं परम्पराओं को व्यवस्थित कर इन्हें इन की मूल विचारधारा 'नियतिवाद' तक पहुंचाते हैं और दलितों के "आजीवक धर्म" को सामने लाते हैं।
सब कुछ होते हुए भी पहचान के अभाव में दलित धर्म के मामले में भिखारी बना रहा है। जीवन के हर सुख और दुख के कार्यक्रमों में धर्म की आवश्यकता पड़ती है। चूंकि दलित धर्महीनता की स्थिति में रहते आये हैं इसलिए उन के हर सुख-दुख के कार्यक्रम में ब्राह्मण अपना पोथा-पथरी ले कर धन्धा चमकाने दलित के दुआर पर पहुंचा रहता था। इन्हीं में से जीवन का एक सब से बड़ा उत्सव 'विवाह' होता है। विवाह में धर्म की सब से ज्यादा जरूरत पड़ती है। वर-वधू के धर्म का इस अवसर पर डायरेक्ट रिफ्लेक्शन होता है। विवाह पद्धति को देख कर कोई भी आसानी से बता सकता है कि वह अमुक धर्म का विवाह है। लेकिन दलितों के विवाह के मामले में क्या है?
दलित गृहस्थ लोग हैं। गृहस्थी का आधार विवाह है। दलितों के जीवन में विवाह का महत्व सर्वोपरि है। इस देश में दलितों ने ही विवाह की गरिमा को बनाए रखा है, उस को ऊंचाई प्रदान की है। पर, यह कितने दुर्भाग्य और मन को कचोटने वाली बात है कि अपने विवाह के लिए उन्हें ब्राह्मण का मोहताज होना पड़ता है। दलितों का विवाह कराने पहले ब्राह्मण पहुंच जाता था अब उस का स्थान बौद्धों ने ले रखा है। यही सांस्कृतिक और धार्मिक गुलामी है। यह दुनिया की सब से बड़ी गुलामी है। दलितों को इसी गुलामी से पार पाना है। बताइए, जिन का विवाह से कुछ लेना-देना नहीं उन का दलितों के विवाह में क्या काम! एक घर में रहते हुए विवाह संस्था की धज्जियाँ उडा़ता है और उस की गरिमा को तार-तार करता है और दूसरा तो विवाह का ही विरोधी है। बावजूद इस के वे दूसरे का विवाह कराने निकल पड़ते हैं! खैर, ये दोनों दलितों के लिए पराए ठहरे। विवाह खुद के ही धर्म-दर्शन के क्रम में पूर्णता और वैधता को प्राप्त होते हैं।
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मेरा मूल निवास उत्तर प्रदेश के जनपद - बस्ती के ग्राम - देवापार में है। मेरा गांव सद्गुरु कबीर की समाधि स्थल 'मगहर' से करीब पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर है। 27 नवम्बर, 2020 को अपने एक सगे चाचा के बेटे की सगाई में सम्मिलित होने मैं गांव गया था। लड़के के माता और पिता अर्थात मेरे चाचा और चाची दोनों का देहांत हो चुका है। लड़के का बड़ा भाई है। बड़ा भाई खुद विवाहित है और उस के तीन बच्चे भी हैं। बड़ा भाई मेहनत मजदूरी कर के पत्नी, अपने तीनों बच्चों के साथ-साथ अपने छोटे भाई और दो बहनों की भी जिम्मेदारी संभालता है। इस जिम्मेदारी में उस की पत्नी उस का पूरा पूरा साथ देती है। एक बहन का विवाह उस ने वर्ष 2015 में कर दिया था। सगाई करवाने के लिए भाई ने गांव के ही एक नवबौद्ध जो भंते का काम भी करता है, को बुला रखा था। सगाई का कार्यक्रम लड़की के घर पर सम्पन्न हुआ। सगाई के दौरान भंते बना वह नवबौद्ध 'बुद्ध वचन' नाम की एक छोटी सी पुस्तिका में से मंत्रों को पढ़े जा रहा था और फिर अंत में उस ने वर-वधू के साथ-साथ समारोह में उपस्थित सभी लोगों से 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का नारा लगवाया। वातावरण था तो सगाई का पर मुझे घुटन महसूस हो रही थी।
सगाई में विवाह की तारीख 07 मई, 2021 निर्धारित की गई। सगाई के उपरांत घर आने पर मेरी भाभी ने मुझ से कहा -'भैया, सगाई के समय भंते की बातों को आप दोहरा नहीं रहे थे और गुस्से में भी दिख रहे थे।' मैंने भाई और भाभी दोनों को इस का कारण बताया। इस के साथ ही उन दोनों को मैंने समझाया - "बौद्ध धर्म हमारे समाज का धर्म नहीं है। हमारे बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म को अपनाया था। अपनाने का अर्थ ही है कि वह हमारा धर्म नहीं है। जब वह हमारा धर्म नहीं है तो उस की परम्पराएं भी हमारी नहीं हैं। हमारा समाज हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई की तरह एक अलग समाज है जिस की अपनी परम्पराएँ, रीति-रिवाज और विचारधारा है। हमारे विवाह या कोई भी सुख दुख के कार्यक्रम अपने समाज की रीति-रिवाज से ही होने चाहिए, परायों की रीति-रिवाज से नहीं।" इस पर भाभी ने पूछा - 'फिर हमारा धर्म कौन सा है?' मैंने बताया - 'हमारे धर्म का नाम आजीवक धर्म है।' मैंने उन्हें आजीवक धर्म के बारे में बताया और यह भी बताया कि हमारे धर्म की खोज डा. धर्मवीर ने की है। इस पर भाई और भाभी दोनों ने पूछा - 'ये कौन हैं?' मैंने अपने फोन में से डा. साहब की फोटो दिखाई और कहा -'डा. धर्मवीर हमारे बाबा साहेब के आगे के और बडे़ महापुरुष हैं। डा. साहब ने हमारे समाज के धर्म और उस के इतिहास की खोज की है इसलिए वे हमारे समाज के महापुरुष और दार्शनिक के रूप में स्थापित हुए हैं।'
मैंने उन्हें अपने धर्म और बौद्ध धर्म के फर्क को बताया- "हम गृहस्थ कौम के हैं। हम विवाह करते हैं। पत्नी और बच्चों के साथ रहते हैं। पत्नी और बच्चों के साथ अर्थात गृहस्थी में रहते हुए ही हम जीवन में सारे काम करते हैं, ईश्वर की आराधना करते हैं, समाज और देश के लिए काम करते हैं। इन सब कामों को करने के लिए हमें पत्नी-बच्चों को त्यागने की जरूरत नहीं पड़ती है। आप अपने गांव में, आस-पास के गांव में, जिले में किसी एक दलित को भी ढूंढ लो जो घर-बार त्याग कर संन्यासी बना हो। कोई नहीं मिलेगा। यह कोई छोटी बात नहीं है। यही हमारी परम्परा है। वहीं दूसरी तरफ, बुद्ध ने अपनी जवान पत्नी और अपने नवजात पहले बच्चे को छोड़ कर संन्यास धारण कर लिया था। यह भी कोई छोटी बात नहीं है। यह पूरी की पूरी बुद्ध की परम्परा की बात है। भला कोई पुरुष अपनी पहली संतान के पैदा होने पर खुश होने के बजाए उस संतान और पत्नी को हमेशा के लिए छोड़ कर भाग क्यों जायेगा? सोचने की बात है। बुद्ध के सारे दर्शन और तथाकथित धर्म की नींव यही है। उन की परम्परा में तलाक और पुनर्विवाह की मनाही है इसलिए भले लोगों के लिए उन के धर्म ने संन्यास का रास्ता बना रखा है। और हमारी परम्परा में यदि पति-पत्नी में नहीं बनती तो वे एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं और फिर पुनर्विवाह कर के नया जीवन शुरू करते हैं अर्थात घर बसाते हैं। इसलिए हमारे यहाँ संन्यास की परम्परा नहीं है। बुद्ध ने खुद का तो घर छोड़ा ही बाद में उन्होंने औरों के बसे-बसाये घरों को भी उजाड़ा। कई पति-पत्नी को एक-दूसरे से अलग कर अपने संघ में शामिल किया। साथ ही बुद्ध ने साफ तौर पर विवाह का विरोध भी किया है। ऐसे बुद्ध के कौन सी रीति से दलित अपने विवाह कर रहे हैं, समझ में नहीं आता। इसलिए हम भाई का विवाह अपनी परम्परा से करेंगे किसी पराई परम्परा से नहीं।"
मेरी बात को भाई और भाभी ने ध्यान से सुना और समझा। उन्होंने अपनी परम्परा से छोटे भाई का विवाह करने की हामी भरी। उसी दिन मैंने मित्र संतोष कुमार जी से बात की और विवाह के बारे में बताया। मैंने उन्हें बताया कि विवाह हमारी आजीवक परम्परा से ही होना है। मैंने संतोष जी से विवाह कराने का आग्रह किया। उन्होंने तुरंत ही अपनी स्वीकृति दे दी।
विवाह की अगली चुनौती थी विवाह पद्धति की। बिना पद्धति के विवाह कैसे हो? अपने चाचा के लड़के के विवाह के बारे में मैंने सारी बातें आदरणीय कैलाश दहिया जी को बताई। दहिया जी ने बताया कि 'मैं आजीवक विवाह पद्धति पर ही काम कर रहा हूँ। विवाह के पहले हमारी पद्धति तैयार हो जायेगी।'
24 अप्रैल, 2021 को दहिया जी ने आजीवक विवाह पद्धति को तैयार कर 'भारतीय आजीवक महासंघ ट्रस्ट' को विचार हेतु सौंप दिया। जिसे पास करने और प्रकाशित करने के विषय पर मा० अध्यक्ष डा. भूरेलाल जी की अध्यक्षता में ट्रस्ट अपनी एक बैठक भी आयोजित कर चुका है। ट्रस्ट के माननीय सदस्यों ने कुछ सुझाव देते हुए प्रसन्नता के साथ इस पद्धति को स्वीकार किया है, और अपनी सहमति प्रदान की है। पद्धति के सम्बन्ध में प्राप्त सुझावों पर विचार करते हुए ट्रस्ट की अगली बैठक में 'आजीवक विवाह पद्धति' को अंतिम रूप से सर्वसम्मति से पास कर दिया जायेगा। यहाँ बताते चलें कि महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर ने 'आजीवक सिविल संहिता, 2007' तैयार की है जो पुस्तक 'दलित सिविल कानून' में संकलित है। आजीवक विवाह पद्धति इसी संहिता के क्रम में आई है। इस को तैयार कर आदरणीय कैलाश दहिया जी ने आजीवक आंदोलन के इतिहास में एक महती और ऐतिहासिक काम किया है।
आजीवक विवाह पद्धति के बन जाने से मैं विवाह को ले कर खासा उत्साहित हो गया था। विवाह के लिए अब मेरे पास आजीवक पद्धति भी थी और विवाह कराने वाला 'नियंता' (संतोष जी) भी। पर इसी दौरान देश में कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर ने भी तांडव मचा रखी थी। ऐसे में हम दोनों के लिए सार्वजनिक वाहन से बस्ती जाना खतरे से खाली नहीं था। लाकडाउन की अवधि सरकार दिनों दिन बढा़ती ही जा रही थी। विवाह की तारीख भी नजदीक आ गई थी। महामारी को देखते हुए मैंने विवाह की तारीख को आगे बढ़ाने के विषय पर गांव में भाई से बात की। उस ने बताया कि शादी टालना मेरे लिए मुश्किल है तथा लड़की पक्ष वाले भी शादी टालने के विचार में नहीं हैं। बस्ती जाने के सम्बन्ध में मैंने संतोष जी से बात की। उन्होंने कहा - 'गांव के भाई-भाभी हमारी बात को समझे हैं, अपनी परम्परा को समझे हैं ऐसे में हमें चलना ही चाहिए और विवाह सम्पन्न कराना चाहिए।' उन की तरफ से यह सकारात्मक उत्तर सुन कर मैंने तय किया कि कुछ भी हो, जैसे भी जाना पड़े यह विवाह आजीवक परम्परा से ही होना है। इस काम के लिए मुझे और संतोष जी दोनों को अपने-अपने परिवार की नाराजगी भी मोल लेनी पडी़।
इस विवाह को हम दोनों ने आंदोलन के एक भाग के रूप में लिया था। विवाह एक बड़ा आयोजन होता है। विवाह की हर प्रक्रिया के प्रति विवाह के समय उपस्थित लोगों का खासा अटेंशन रहता है। इसलिए आजीवक आंदोलन को धरातल पर लाने और उसे लोगों के बीच पहुंचाने का यह एक बड़ा अवसर था। गांव के भाई ने एक बात और कही, उन्होंने बताया कि - 'शादी के एक दिन पहले यहाँ लोग कथा सुनते हैं। जो शादी करायेगा उसी को कथा भी सुनाना होता है। इसलिए आप लोगों को छह तारीख की सुबह ही आना पड़ेगा।' मैंने संतोष जी को इस बारे में बताया। वे इस के लिए भी तैयार हो गए।
लोग हर अच्छे और बड़े काम पर चाहे विवाह हो, घर का निर्माण हो, जन्मदिवस हो अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार अपने ईश्वर या महापुरुषों को याद करते हैं और उन के आशीर्वाद की कामना करते हैं। दलित भी अपने अच्छे काम पर अपने महापुरुषों को याद करें और उन के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लें तो इस में कोई गलत बात नहीं। हमने सोचा कि विवाह के पहले कथा के बहाने हमें एक और अवसर मिल जायेगा अपने लोगों को अपनी परम्परा और अपना इतिहास बताने का, अपने महापुरुषों के बारे में बताने का। मैं इलाहाबाद से चौरी-चौरा एक्सप्रेस से 06 मई, 2021 की सुबह गोरखपुर पहुंचा। महाराजगंज से रोडवेज बस द्वारा संतोष जी भी सुबह दस बजे गोरखपुर पहुंच गये। फिर गोरखपुर से हम दोनों रोडवेज बस द्वारा दोपहर के एक बजे बस्ती पहुंचे। गांव पंहुचते-पहुंचते दोपहर के दो बज गए। घर पहुंच कर नहाने-धोने के बाद कथा के कार्यक्रम के लिए संतोष जी तैयार हुए। कथा घर पर बनाए गए माड़ो (मंडप) के नीचे होनी थी। कथा सुनने के लिए गांव के हर घर से एक-दो सदस्य आते हैं। जिस में महिलाएं और गांव की बहू-बेटियां ही होती हैं। इसलिए भी कथा सुनाना ज्यादा महत्वपूर्ण था।
आजीवक विवाह कराने वाले को 'नियंता' कहा जाता है। चूंकि विवाह नियंता कराता है इसलिए कथा भी वही सुनाता है। मेरे क्षेत्र में विवाह के एक दिन पहले वर और वधू दोनों परिवार द्वारा अपने-अपने घर पर कथा सुनने का रिवाज है। लाकडाउन के चलते समयाभाव के कारण नियंता (संतोष जी) वधू के घर कथा सुनाने नहीं जा सके। आजीवक कथा मेरे घर (वर के घर) पर ही 06 मई, 2021 को नियंता द्वारा सुनाई गई। पर, आगे जैसे-जैसे आजीवक विवाह पद्धति और आजीवक आंदोलन का प्रसार होता जायेगा यह कमी भी दूर होती जायेगी। एक बात यहाँ विशेष तौर पर बताई जा रही है कि, आजीवक विवाह पद्धति के अनुसार आजीवक नियंता कोई भी हो सकता है। अर्थात हमारे यहाँ विवाहित स्त्री और पुरुष दोनों ही नियंता बनने का अधिकार रखते हैं। हां, आजीवक विवाह पद्धति में नियंता के ऊपर कुछ प्रतिबंध अवश्य लगाए गए हैं ताकि वे इसे अपना पेशा न बना लें।
कथा का कार्यक्रम एक घंटे से भी अधिक समय तक चला। कथा की शुरुआत संतोष जी ने हमारे प्राचीन आजीवक महापुरुष मक्खलि गोसाल और उन की पत्नी हालाहला से की। मक्खलि गोसाल का जैन मुनि महावीर के साथ चले वैचारिक मतभेद को संतोष जी ने लोगों को बताया। किस तरह गोसाल साहेब ने हालाहला को 'अंजलि कम्म' करते हुए उन के साथ विवाह किया। कथा में आगे संतोष जी ने सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब के जीवन संघर्षों के बारे में बताते हुए उन के घर-गृहस्थी के ऊपर लिखे पदों को पढ़ कर सुनाया और उन का मतलब भी लोगों को बड़ी ही सहजता और प्रखरता से बताया। कथा सुनने वालों में गांव की स्त्रियाँ ही होती हैं। इस कथा में भी एक-दो पुरुष को छोड़ कर शेष गांव की बुजुर्ग महिलाएं और बहू-बेटियां ही थीं।
कथा सुनने आने वाली गांव की महिलाएँ अपने-अपने घरों से साथ में 'सीधा' ले कर आती हैं। सीधा का अर्थ है अनाज। गांव की महिलाएँ कथा में अपने-अपने घर से आटा, दाल, चावल आदि ले कर आती हैं इसे मेरे क्षेत्र में 'सीधा' देना कहते हैं। गांव के लोगों द्वारा दिये गये इन सीधों को ब्राह्मण और भंते (बौद्ध) अपने झोले में डाल चलते बनते हैं। इस के अलावा नकद राशि जो मिलती है सो अलग ही। लेकिन आजीवक विवाह पद्धति में हमारे नियंता को किसी भी प्रकार की नकद राशि, दान दक्षिणा आदि लेने की रोक लगाई गई है।
कथा सुनने के बाद उपस्थित महिलाओं-पुरुषों ने आश्चर्यचकित हो कर कहा - 'इस तरह की कथा हम पहली बार सुन रहे हैं। नियंता जी ने कथा में जितनी भी बातें बताई सब हमने सुनी और समझीं भी। ऐसा लग रहा था जैसे हम अपने बड़े बुजुर्ग की ही जुबानी सुन रहे हैं। कथा में कहे गए एक-एक शब्द हमें अपने शब्द ही लग रहे थे।' एकदम सही, हमारे सद्गुरुओं/महापुरुषों की वाणियां, उन के दर्शन हर आजीवक के रक्त में घुले हुए हैं। बस जरूरत है तो पहचान की। उन्होंने 'सीधा' को ले कर सब से ज्यादा आश्चर्य और प्रसन्नता प्रकट की। मेरे घर के लोग और कथा में उपस्थित गांव की महिलाओं ने बताया कि ब्राह्मण और भंते लोग तो कथा सुनाने के बाद कथा में दिए गए सभी सीधों को अपने साथ ले जाते हैं और नकद पैसे भी उन्हें मिलते हैं। पर यह हमारी आंखों के सामने पहली बार हो रहा है कि कथा सुनाने वाले ने न तो सीधा ही लिया और न ही किसी प्रकार का रुपया - पैसा।' मैंने उन्हें बताया कि' ब्राह्मण और भंते इसे अपना धन्धा समझते हैं। हमारे यहाँ यह कोई धन्धा नहीं है। हमारी विवाह पद्धति में नियंता के कार्य को धन्धा या पेशा बनने पर रोक लगायी गयी है। कथा में आप सब ने जो सीधा दिया है वह उपहार की तरह है जिस पर कथा आयोजित करने वाले परिवार का अधिकार होता है।'
अगला दिन अर्थात 07 मई, 2021 विवाह का दिन। विवाह के दिन जब दूल्हा बारात के साथ दुल्हन के घर जाता है तो इसे हमारी तरफ 'अगुवानी' होना कहते हैं। इस समय दुल्हन के पिता और भाई दूल्हे का स्वागत करते हैं और दूल्हे के माथे पर तिलक (टीका) लगाते हैं। हम बारात ले कर गये थे। नियंता भी हमारे ही तरफ से था। तिलक की प्रक्रिया हमारे नियंता अर्थात संतोष जी ने सद्गुरु रैदास के इस वाणी के साथ सम्पन्न कराया -
"हम घर आयहु राम भरतार, गावहु सखि मिल मंगलाचार।
तन मन रत करहिं आपनो, तौ कहुं पाइहि पिव पियार ।।
प्रीतम कूं जो दरसन पाए, मन मन्दिर में भयो उजियार।
हौं, मड़इ तै नौ निधि पाई, कृपा कीन्हीं राम करतार।।"
इस के बाद जयमाल का कार्यक्रम (दूल्हा दुल्हन द्वारा एक दूसरे को माला पहनाना) सम्पन्न कराने के बाद विवाह की प्रक्रिया नियंता द्वारा प्रारंभ की गई। जयमाल के दौरान दूल्हा-दुल्हन द्वारा एक-दूसरे को माला पहनाने के पूर्व उन से नियंता द्वारा हमारे सद्गुरुओं के ये पद कहलवाये गये -
दुल्हन की तरफ से -
आठ घड़ी चौंसठ पहर, मेरे और न कोय।
नैंना माहीं तू बसै, नींद ठौर नहिं होय।।
दूल्हे की तरफ से -
नैंना अंदर आव तू, पलक झांप तोहि लेव।
ना मैं देखूं और को, ना तोहि देखन देव।।
आजीवक विवाह पद्धति के अनुसार दुल्हन के घर पर बने माड़ो के नीचे दीया, एक लोटे में पानी तथा आजीवक महापुरुषों मक्खलि गोसाल (प्रतीकात्मक), रैदास, कबीर और डा. धर्मवीर की तस्वीर के सामने दूल्हा-दुल्हन को बिठा कर आजीवक विवाह पद्धति में दिए गए छह चरमों (वचनों) को नियंता द्वारा पूरा करते हुए विवाह सम्पन्न कराया गया। विवाह के समय मंडप के एक तरफ लड़की के परिवार के लोग बैठे थे तथा दूसरी तरफ बारात में आये लड़के के परिवार के लोग।
आजीवक विवाह पद्धति में छह चरम दिए गए हैं जो आजीवक विवाह के आधार हैं। इन छह चरमों में सद्गुर रैदास और कबीर की वाणियों को रखा गया है। इन छह चरमों के द्वारा ही आजीवक विवाह को मान्यता मिलनी है। नियंता ने एक-एक चरमों को पढ़ा और उस की व्याख्या दूल्हा-दुल्हन समेत विवाह के साक्षी बने लोगों को भी बतायी। दूल्हा-दुल्हन ने इन चरमों को मानने का एक-दूसरे से वादा किया। अंत में अंजलि कम्म करवाते हुए नियंता द्वारा विवाह को सम्पन्न कराया गया। इस तरह आजीवक विवाह पद्धति से पहला विवाह दिलीप कुमार पुत्र स्व. रामतौल एवं स्व. शकुंतला देवी, निवासी - ग्राम देवापार, जिला-बस्ती तथा सरोज कुमारी पुत्री श्री चंद्रबलि एवं श्रीमती मुन्नी देवी, निवासी - ग्राम मसहवाँ, जिला-बस्ती के बीच सम्पन्न हुआ। हमारी खुद की परम्परा से हुए इस पहले विवाह में सब से बड़ा योगदान आदरणीय कैलाश दहिया जी की एवं मित्र संतोष जी की रही। दहिया जी ने 'आजीवक विवाह पद्धति' तैयार की और संतोष जी ने नियंता की भूमिका निभाई।
आजीवक विवाह पद्धति से विवाह करने की सहमति जिस तरह दूल्हे के पक्ष वालों ने दी थी उसी तरह दुल्हन के पक्ष वालों ने भी अपने सद्गुरुओं रैदास और कबीर की वाणियों के साथ विवाह कराने की सहर्ष सहमति दी थी। यह बड़ी बात है। ध्यान देने की बात है कि हमारे उच्च शिक्षित दलित दिमाग एक तरफ रख कर किस तरह बुद्ध के पक्ष में और अपने आंदोलन के विरोध में गाली-गलौच तक करने पर उतारू हो जाते हैं जिसे फेसबुक पर आये दिन देखा जा सकता है। वहीं, दूसरी तरफ हमारे मेहनत मजदूरी करने वाले दलित किस तरह अपनी परम्परा को समझते हैं और स्वीकार करते हैं, इस विवाह के द्वारा इस का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत हुआ है । विवाह की प्रक्रिया को समारोह में उपस्थित सभी लोगों ने ध्यान से देखा और सुना। विवाह के उपरांत कुछ लोग यह कहते हुए सुने गयें कि 'यह विवाह पद्धति एक अनोखी और अच्छी पद्धति है। इस में कहीं किसी तरह का कोई आडंबर या पाखंड देखने को नहीं मिला। हिन्दू वाले (ब्राह्मण) और बौद्ध वाले (भंते) तो गठरी भर सीधा भी ले जाते हैं और नकद रूपये भी। इस के अलावा विवाह में वे क्या पढ़ते हैं समझ में आता भी नहीं। साथ ही उन के विवाह पद्धति थकाऊ और उबाऊ लगते हैं। यह विवाह ब्राह्मणों और बौद्धों की अपेक्षा बहुत ही सरल और सहज थी।' भाई से मालूम चला कि कुछ लोगों ने इसी पद्धति से अपने घर में होने वाले विवाह को कराने की इच्छा भी व्यक्त की है।