अंबरीश कुमार/ लखनऊ/ वर्ष 1968 में लालबाग क्षेत्र में ' चाइना गेट ' नाम का जो भवन यूपी प्रेस क्लब को सरकार ने दस साल की लीज पर दिया उसमे पहली बार पुलिस ने प्रवेश कर एक पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी ,प्रोफ़ेसर रमेश दीक्षित समेत आठ लोगों को सोमवार को गिरफ्तार किया . प्रेस क्लब के इतिहास में यह पहली बार हुआ ऐसा बताया जा रहा है .मुलायम मायावती जैसे ताकतवर मुख्यमंत्री के राज में भी पुलिस कभी प्रेस क्लब में प्रवेश नहीं कर पाई .रोचक यह है कि यह गिरफ्तारी तो प्रेस क्लब के कुछ कारिंदों ने ही शिनाख्त कर करवाई .
एसआर दारापुरी और अन्य संगठनों ने दलित उत्पीडन का सवाल उठाने के लिए प्रेस क्लब का हाल दो घंटे के लिए बुक कराया था .जानकारी के मुताबिक प्रेस क्लब के कारिंदों ने अचानक उनकी बुकिंग पुलिस प्रशासन के दबाव में रद्द कर दी .इसके बाद एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष रमेश दीक्षित ने सुझाव दिया कि वे प्रेस कांफ्रेंस उनके दारुलशफा स्थित दफ्तर में कर ले .यह तय होने के बाद वे बताने गए कि जो भी प्रेस के लोग वहां आए उन्हें दारुलशफा भेज दिया जाए .पुलिस सुबह से ही प्रेस क्लब को घेरे हुए थी .आसपास ज्यादातर बिरयानी कबाब की मशहूर दूकाने हैं जिन्हें बंद करा दिया गया था .वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब के पूर्व पदाधिकारी सिद्धार्थ कलहंस के मुताबिक न सिर्फ सारी दूकाने बंद करा दी गई थी बल्कि पास में खुली शराब की दूकान का शटर गिराकर उसके सामने घुड़सवार पुलिस तैनात कर दी गई थी .इस कार्यक्रम में ज्यादा लोगों की मौजूदगी भी नहीं थी पर पुलिस बंदोबस्त किसी आंदोलन जैसा था .कुल आठ लोग की गिरफ़्तारी से इस कार्यक्रम में शिरकत करने वालों का अंदाजा लगाया जा सकता था .हालांकि उन्हें भी पांच घंटे तक पुलिस लाइन में बैठाए रखा गया .गिरफ्तारी के समय भी पुलिस ने अपना चरित्र पूरी तरह दिखाया .स्थानीय प्रशासन किस तरह का कमाल दिखा सकता है इसका यह नायाब उदाहरण है .इसके लिए मुख्यमंत्री या किसी मंत्री ने कहा होगा ऐसा नहीं लगता .यह पुलिस का फैसला था और उसने प्रेस क्लब जैसी जगह को भी नहीं छोड़ा .साठ साल में पहली बार कैसे पुलिस प्रेस क्लब में आई इसपर विचार करना चाहिए . आईएफ़डब्लूजे के राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थ कलहंस ने इसकी निंदा की है .पर यूपी प्रेस क्लब ने कोई बयान तक जारी नहीं किया .यह शर्मनाक है .प्रेस क्लब की राजनीति और आरोप प्रत्यारोप अलग है पर प्रेस क्लब मीडिया की साझी विरासत है .यहां से लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लगातार संघर्ष होता रहा है .यह कोई ढाबा नहीं है बल्कि वह स्थल है जहां आपातकाल में भी पुलिस की यह हिम्मत नहीं हुई .यह ठीक है यूपी प्रेस क्लब की व्यवस्था ठीक नहीं है पर आए दिन लोग यहां सेमिनार गोष्ठी और संवाद करते रहते हैं .प्रेस कांफ्रेंस होती रहती है .ऐसे में लखनऊ के प्रतिष्ठित नागरिकों के प्रतिरोध वाले कार्यक्रम का पैसा लेने के बाद उसे पुलिस दबाव में रद्द कर देना कहां तक उचित है .इसके बाद प्रेस क्लब का कर्मचारी पुलिस को यह बताए कि ये लोग ही कार्यक्रम कर रहे थे इन्हें देखिए ,यह क्या है ?
हम मीडिया के लोग अभिव्यक्ति की आजादी की लड़ाई लड़ते हैं और हमारा प्रेस क्लब पुलिस का मुखबिर बन जाए यह कैसे होगा .आईएफ़डब्लू के एक खेमे ने इस घटना की तीखी निंदा की है .उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार संगठन को भी सामने आना चाहिए .और यूपी प्रेस क्लब को यह समझना चाहिए कि ये सिर्फ ढाबा नहीं है पत्रकारों का .यह वह जगह है जहां से बहुत से संघर्ष की शुरुआत हुई .इस अलोकतांत्रिक घटना की निंदा कर सरकार तक अपना पुरजोर विरोध दर्ज कराना चाहिए .यह आपकी जिम्मेदारी है जो आम पत्रकारों ने वोट देकर दी है .