दिल्ली / देश के प्रतिष्ठित गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता पुरस्कार से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों आज दिल्ली में प्रसिद्ध पत्रकार राहुल देव को सम्मानित किया गया।
राहुल देव ने पत्रकारिता की शुरूआत 1979 में स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान लखनऊ में ‘दि पायोनियर’ से की। इस तरह वे आपातकाल की छाया से ताजा-ताजा मुक्त हुए वातावरण में पत्रकार बने थे, जो एक तरह से देश के दूसरे मोहभंग (नेहरू से विरक्ति के बाद) का काल था। इंदिरा गांधी को हराकर विपक्षी दलों ने केंद्र में जो सरकार बनाई थी, उसमें विखंडन और टूट-फूट का दौर चरम पर था। खोजी पत्रकारिता से प्रारंभ उनका सफर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘करेंट’ के जरिए राजनैतिक और विश्लेषणात्मक लेखन की ओर मुड़ गया। ‘दि इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ (दोनों दिल्ली), 'दि वीक’ व 'प्रोब इंडिया’ (दोनों लखनऊ) तक वे अंगरेजी के पत्रकार रहे। बाद में लोकप्रिय हिन्दी पत्रिका 'माया’ के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बने। तत्पश्चात कुछ समय वे अंगरेजी पत्रिका 'सूर्या इंडिया’ के संपादक भी रहे।
1989 में वे 'दैनिक जनसत्ता’ के मुंबई संस्करण के स्थानीय संपादक बने। सही कहा जाए तो यहीं से असली राहुल देव के बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। उनके नेतृत्व गुणों, संगठन कौशल तथा मानवीय गुणों का उत्कर्ष हमें यहीं देखने को मिलता है। उन्होंने जनसत्ता में कार्यरत विभिन्न विचारधाराओं तथा मिजाजों के साथियों को संभालते-संवारते हुए जनसत्ता को मुंबई और गैर हिन्दी प्रदेश महाराष्ट्र में लोकप्रिय ही नहीं, जीवन की आवश्यकता ही बनाया। उन्होंने जनसत्ता के दौरान 1993 में सिर्फ 11 दिन की अवधि में सांध्य दैनिक 'संझा जनसत्ता’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। साप्ताहिक पत्रिका 'सबरंग’ भी उन्होंने ही शुरू की और ये तीनों प्रकाशन सामूहिक तौर पर मुंबई के साथ देशभर के पाठकों और लेखकों की अभिव्यक्ति का प्रभावी मंच साबित हुआ।
जब मुंबई में बाल ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों व पत्रकारिता के खिलाफ हल्ला बोला था और कुछ पत्रकारों पर हमले भी हुए थे, तब राहुल देव ने ही शिवसेना भवन के ठीक सामने पत्रकारों का बड़ा धरना देकर शिवसेना को झुकाया था। यह इस मायने में ऐतिहासिक घटना थी कि वह ठोकशाही में विश्वास करने वाली पार्टी के कार्यालय के सामने हुआ और उसमें देश के अनेक बड़े पत्रकार शामिल हुए थे। इसके कारण राहुल देव को करीब दो महीने पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई गई थी।
जिस प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी सांप्रदायिक सौहार्द्र के बड़े सेनानी थे, वैसे ही राहुल देव ने बाबरी मस्जिद के गिरने के कारण मुंबई में उपजी हिंसा को खत्म करने के लिए अपना जीवन दांव पर लगाते हुए अनेक दंगाग्रस्त क्षेत्रों में काम किया। शांति के लिए कार्यरत व्यक्तियों और संगठनों के साथ सामूहिक तौर पर तो कभी एकाकी रूप से उन्होंने काम किया। कुछ अशांत क्षेत्रों से राहुलजी ने अल्पसंख्यक परिवारों को सुरक्षित बाहर निकालने में भी मदद की।
जनसत्ता के माध्यम से राहुल देव ने मुंबई के हिन्दीभाषी समुदाय को सामाजिक और बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया। 100 से अधिक मंडलियों को जोड़कर रामलीला महासंघ बनाया और हिन्दीभाषियों को मुंबई में गरिमामय स्थान प्राप्त करने में मदद की। अनेक हिन्दीभाषी समुदायों की उपलब्धियों और गतिविधियों का प्रतिबिंब जनसत्ता बना।
बाद में राहुल देव जनसत्ता के दिल्ली में संपादक बने। फिर ‘आज तक’, ‘जी टीवी’, ‘सीएनईबी’, ‘दूरदर्शन’ आदि में कभी नियमित तो कभी बतौर फ्रीलांसर जुड़े और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी वैचारिकता, संवेदनशीलता और प्रतिभा से संपन्न किया।
अगर उनके प्रोफेशनल आयाम को एक तरफ रख दिया जाए, वर्तमान दौर में वे हिन्दी और भारतीय भाषाओं को बचाने का बड़ा अभियान छेड़े हुए हैं। हिन्दी की गहनता और ऊंचाइयों को दर्शाने वाले कार्यक्रम वे अपनी संस्था सम्यक न्यास की ओर से बनाते हैं तथा स्वयं देश भर में घूम-घूमकर हिन्दी को सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित करने तथा उसके अधिकाधिक उपयोग करने जनजागरण में रत हैं।
गणेश शंकर विद्यार्थी (26 अक्टूबर 1890-25 मार्च 1931) और राहुल देव के कालखंड चाहे पृथक हों, परंतु साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दी की प्राणप्रतिष्ठा दो ऐसे तथ्य हैं, जो इन दोनों पत्रकारों को आपस में जोड़ते हैं। राहुलजी की पत्रकारिता चाहे देश के नैराश्यकाल से प्रारंभ हुई हो, परंतु उनके लेखन को आशावाद हमेशा दमकाता चला आया है। नैतिक मूल्य और सहज मानवीय व्यवहार से लबरेज राहुल देव और उनकी पत्रकारिता हम सब के लिए आदर्श बनी रहेगी। व्यक्ति के रूप में वे हमारे आईकॉन तो हैं ही।
इस पुरस्कार के लिए राहुल देव का चयन अत्यंत सटीक है। हम पत्रकारों की राहुल देव को ढेरों बधाइयां।
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'