वीरेंद्र कुमार यादव/ पटना / मीडिया का सामाजिक चेहरा काफी तेजी से बदल रहा है। ब्राह्मण और कायस्थ आधिपत्य वाला मीडिया अब राजपूतोन्मुखी हो गया है। इसमें भूमिहारों ने भी अपनी पहचान की लंबी लड़ाई लड़ी है। हिन्दी और अंग्रेजी मीडिया में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व रहा है। लेकिन मुसलमानों में भी सवर्ण मुसलमान ही हावी रहे हैं।
बिहार के संदर्भ में देखें तो अखबारों के अनुमंडलीय संस्करण निकल रहे हैं। प्रमुख चैनलों ने जिला स्तर पर अपने रिपोर्ट रखे हैं। इसके साथ ही प्रमुख अनुमंडलीय मुख्यालयों में अपने प्रतिनिधि रखे हैं। मीडिया तंत्र में इसके आर्थिक पक्ष के बजाये सामाजिक पक्ष को देखने से स्पष्ट होता है कि मीडिया का चेहरा काफी तेजी से बदल रहा है। मीडिया के धंधे में पिछड़ी जाति के पत्रकारों की संख्या काफी बढ़ रही है। हालांकि दलित आज भी मीडिया को ‘अछूत’ मान रहे हैं। उनकी संख्या नगण्य है।
मीडिया में पिछड़ी जाति के पत्रकारों की संख्या में तेज गति से बढ़ रही है। इसकी वजह है कि इसमें रोजगार के अवसर और स्कोप भी बढ़े हैं। मीडिया विस्तार के साथ पत्रकारों की मांग भी बढ़ती जा रही है। उसके अनुसार मीडिया का सामाजिक दायरा भी बढ़ रहा है। पिछड़ी जातियों में यादव पत्रकारों की संख्या में इजाफा अन्य जातियों की तुलना में ज्यादा हो रही है। इसकी वजह है कि अधिक जनसंख्या का होना। साथ ही मीडिया की ढांचागत चुनौतियों को झेलने का जोखिम का साहस का होना।
पिछले साल 2016 में बजट सत्र की शुरुआत में राज्यपाल का अभिभाषण होना था। विधान सभा के पत्रकार दीर्घा में पत्रकार भरे हुए थे। पत्रकार हेमंत ने मजाक के ही लहजे में कहा कि इसमें कितने यादव हैं। हमने कहा कि नाम लिखिए। उन्होंने नाम लिखना शुरू किया और यादव पत्रकारों की संख्या 9 पहुंच गयी। हमने कहा कि करीब 60 पत्रकारों में 9 यादव हैं तो यादव की हिस्सेदारी समझ लिजीए। खैर यह मजाक में सर्वे हो गया था।
अभी हाल में कुछ साथियों ने मीडिया में कार्यरत यादव पत्रकारों की संख्या की गिनती शुरू की थी। इस दौरान यह निष्कर्ष आया कि पूरे राज्य में औसतन हर जिले में कम से कम 5 यादव पत्रकार विभिन्न समाचार संस्थानों से जुड़े हुए हैं। यह मीडिया के बदलते सामाजिक चेहरे का गवाह है। इसके अलावा कुर्मी, कोईरी, कहार और सूडी जाति के पत्रकारों की संख्या भी काफी है। बनिया के नाम पर सूडी ही मीडिया में दिखते हैं। यादव के बाद कुर्मी और कुशवाहा पत्रकारों की संख्या है।
करीब 4 साल पहले पटना में हमने यादव पत्रकारों की सूची बनायी थी। उस समय करीब 40 यादव पत्रकार पटना में कार्यरत थे। इसकी लिस्ट हमने वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र यादव को भेजी थी। हमने उनसे कहा कि आपलोग मीडिया में ब्राह्मणों और सवर्णों के आधिपत्य को गिनते और जोड़ते हैं। लेकिन इसमें पिछड़ों की बढ़ती हिस्सेदारी को हाशिए पर धकेल देते हैं। मीडिया में पिछड़ों की बढ़ती संख्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
योगेंद्र यादव ने पहली बार मीडिया में जातीय हिस्सेदारी पर सर्वे किया था। इसके बाद प्रमोद रंजन ने अपने साथियों के साथ मिलकर पटना में पत्रकारों के जातीय सर्वे किया था। दोनों ही सर्वे में सवर्ण आधिपत्य को प्रमुखता से उठाया गया था। पिछले दिनों हमारे कुछ साथियों ने भी इस मुद्दे पर पटना बेस्ड सर्वे किया था। इस सर्वे को हमने ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ के सितंबर 16 के अंक में छापा भी था।
इससे इतर हमने मीडिया में पिछड़ों की बढ़ती हिस्सेदारी और भागीदारी को लेकर बहस शुरू की। इसके बाद जो सूचनाएं उपलब्ध हो रही हैं, वह बता रही हैं कि मीडिया में सवर्णों के ढांचागत स्वरूप में बदलाव आ रहा है। इसके साथ ही इसमें पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। मीडिया के सामाजिक स्वरूप में आ रहे बदलाव का असर है कि समाचारों का संदर्भ बदल रहा है। खबरों में भी जातीय आयोजनों को प्रमुखता मिल रही है। मीडिया के आंतरिक ढांचे में बदलाव की सामाजिक अभिव्यक्ति भी हो रही है। इसमें और तेजी आएगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।