अभिमन्यू कुमार साहा/ मुख्यधारा की मीडिया से तमाम योग्यताओं के बावजूद दरनिकार कर दिए गए दलित-पिछड़े पत्रकार आज कीर्तिमान रच रहे हैं.
वक़्त बदल रहा है और ये खुद अपनी पहचान बना रहे हैं, उन अवाज़ों को बुलंद कर रहे हैं, जिसे ब्राह्मणवादी मीडिया के स्वरूप ने उसके असल रूप में उभरने नहीं दिया. समय-समय पर उन आवाज़ों को जगह तो दी गई पर वो फिल्टर होकर आती रहीं. अपने मुनाफे और राजनीति के हिसाब से ब्राह्मणवादी मीडिया उसका स्वरूप तय करता रहा.
इस बात को एक उदाहरण से समझिए... बीते साल 2 अप्रैल को दलित संगठनों की तरफ से देशव्यापी बंद का आह्वान किया गया था. पूरे देश के दलित सड़कों पर उतर आए थे, पर एक दिन पहले तक मुख्यधारा की मीडिया में उसका जिक्र तक नहीं था. बंद के दिन जिक्र भी किया गया तो आंदोलन के दौरान हुई छिटपुट हिंसा को मैग्नीफाई कर के दिखाया गया. यह नैरेटिव गढ़ा गया कि तमाम आंदोलनकारी हिंसक थे, ठीक उसी तरह जिस तरह से हाल ही में जामिया मिल्लिया इस्लामिया प्रकरण में मीडिया ने किया.
ऐसा नहीं है कि मीडिया के ब्राह्मणवादी स्वरूप में दलितों की बात नहीं होती रही है, होती है, बड़ी चालाकी से उनके मुद्दे भी उठाए जाते हैं पर उसका अपना एक अलग मुनाफा होता है. वो उसे पत्रकारिता के सर्वश्रेष्ठ अवार्ड और प्रगतिशील तमगे को हासिल कर भुनाते हैं. उनके इस चालाकी को इस तरह से समझिए...दलितों-पिछड़ों पर अत्याचार कौन करता है- फलाना शर्मा, ढिमका झा, फलाना द्विवेदी, ढिमकाना चतुर्वेदी, फलाना पांडेय...
उनकी आवाज़ कौन बनता है मतलब कि इन ‘बेजुबानों’ की आवाज़ कौन बनता है- वही फलाना शर्मा, ढिमकाना झा... फलाना पांडेय
इसका मतलब यह है कि शोषक भी वही हैं और उनके उद्धार की बात करने वाला भी वही. यह कैसे संभव है...? आख़िर जिस तबके को आप ‘बेजुबान’ कह रहे हैं, उनसे उनका जुबान को कौन छीन रहा है? उन पर ताले कौन लगा रहा है?
हर साल देशभर के पत्रकारिता के विश्वविद्यालयों में एक खूबसूरत छात्र-छात्राओं की भीड़ पहुंचती है. वो डयवर्स होती है. हर जाति की नुमाइंदगी वहां मिलती है. 50 फ़ीसदी से ज़्यादा छात्र दलित-पिछड़े वर्ग से होते हैं, लेकिन विश्वविद्यालयों से न्यूज़ रूम आते-आते वो 50 फ़ीसदी भीड़ कहीं गायब हो जाती है. आख़िर वो कहां जाती है? एक दलित समाज का बच्चा बिहार के एक छोटे से गांव से एक हज़ार किलोमीटर का सफर कर दिल्ली के आईआईएमसी तो पहुंच जाता है पर वो आईआईएमसी से महज कुछ किलोमीटर दूर नोएडा की फ़िल्म सिटी नहीं पहुंच पाता. आख़िर क्यों?
जाहिर सी बात है इसके पीछे एक साजिश है. मीडिया इंटरव्यू के दौरान इन छात्रों से जाति तक पूछ ली जाती है, कई मित्रों ने मुझे ऐसा बताया है. मुझसे भी मीडिया इंटरव्यू के दौरान एक बार मेरी जाति पूछी गई थी.
एक तर्क दिया जाता है कि भाई साब ये सभी आरक्षण की बदौलत विश्वविद्यालयों में पहुंच तो जाते हैं पर वो वहां अपनी योग्यता नहीं निखार पाते हैं, इसलिए उन्हें मीडिया में जगह नहीं मिलती हैं.
लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि यही लोग जब अपने पर आते हैं तो कीर्तिमान कैसे रच देते हैं! वेद प्रकाश, जिन्हें आप एक्टिविस्ट वेद के नाम से जानते हैं, मेरे साथ आईआईएमसी में साथ पढ़ा था. वो दलित समाज से आता है और तमाम भेदभाव झेल कर वो वहां पहुंचा था.
आईआईएमसी में प्लेसमेंट के दौरान वो बड़े मीडिया घरानों का रिटेन तो निकाल लेता था पर इंटरव्यू में नहीं हो पाता था. काफी मशक्कत के बाद देश के एक बड़े अख़बार घराने में उसे नौकरी मिली, जहां उसे बिजनेस बीट दिया गया था. वो वहां अच्छा काम कर रहा था पर उसे वहां टिकने नहीं दिया गया. दलितों के पक्ष फ़ेसबुक पोस्ट लिखने की वजह से उसे वहां प्रताड़ित किया जाता था. कितना भी अच्छा काम करने पर भी उसे बेकार बताया जाता था, अयोग्य करार दिया जाता था. अंत में तमाम प्रताड़नाओं से हार कर उसने इस्तीफा दे दिया था. लेकिन देखिए वही ‘अयोग्य’ वेद प्रकार बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री का मीडिया एडवाइजर रहा. उसने उनके लिए बेहतरीन काम भी किया. अब वो सोशल मीडिया ख़ास कर यूट्यूब पर धमाल मचा रहा है. दलित-पिछड़ों की आवाज़ को बिन फिल्टर के बुलंद कर रहा है. वो आज एक सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर बन चुका है.
वेद अपने यूट्यूब चैनल के लिए खुद शूट करता है, खुद एडिट करता है और डिस्ट्रीब्यूशन भी करता है. वो वन मैन आर्मी है. आज सावित्री बाई फुले का जन्मदिन है और इस बेहद ख़ास दिन पर आज एक्विस्ट वेद ने यूट्यूब पर 06 लाख सब्सक्राइबर पूरे कर लिए हैं.
बधाई वेद प्रकाश... और इनके जैसे उन तमाम बहुजन पत्रकारों को शुभकामनाएं, जो आज मुख्यधारा की मीडिया को चैलेंज कर रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि ब्राह्मणवादी स्ट्रक्चर से दरनिकार कर दिए गए ये पत्रकार एक दिन बेहतरीन इतिहास लिखेंगे.
(अभिमन्यू कुमार साहा के फेसबुक वाल से साभार)