लोकेन्द्र सिंह/ मौजूदा दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां चैनल/अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, जब उसकी खबरों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितनी ही सत्य खबर प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी। हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है। निष्पक्ष रहना संभव नहीं है। हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। बहरहाल, यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही। भारत में पत्रकारिता का एक इतिहास पक्षधरता का भी है। इसलिए भारतीय समाज को यह पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का ध्येय वाक्य था- 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत'। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। वास्तव में यही पत्रकारिता का राष्ट्रीय स्वरूप है। राष्ट्रवादी पत्रकारिता कुछ और नहीं, यही ध्येय है। राष्ट्र सबसे पहले का असल अर्थ भी यही है कि देशवासियों के हित का ध्यान रखा जाए।
अभी हाल में समाचार चैनल एनडीटीवी पर भारत सरकार के प्रसारण मंत्रालय ने एक दिन का प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया था। सरकार ने पठानकोट हमलों की कवरेज के दौरान सुरक्षा से जुड़ीं संवेदनशील जानकारियां देने के आरोप में यह प्रतिबंध लगाया था। लेकिन, जैसे ही एनडीटीवी पर प्रतिबंध की खबर सामने आई, पत्रकारिता और तथाकथित बुद्धिजीवियों के एक धड़े ने 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का रोना शुरू कर दिया। इन्होंने ऐसा वातावरण बनाया कि मानो देश में फिर से आपातकाल लगा दिया गया है। सरकार अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट रही है। एनडीटीवी पर प्रतिबंध के बहाने खड़ी हुई बहस में एक भी पक्षधर विद्वान इस बात पर चर्चा के लिए राजी नहीं हो रहा था कि आखिर दण्डस्वरूप एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध क्यों लगाया जा रहा है? कोई भी तर्कशील इस बात पर भी चर्चा के लिए राजी नहीं था कि आखिर पठानकोट हमले के संबंध में एनडीटीवी के कवरेज को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? मीडिया और बुद्धिजीवियों के इस खेमे का यह स्वभाव इस बात का प्रकटीकरण भी है कि अभिव्यक्ति की आड़ में इन्हें स्वतंत्रता नहीं,बल्कि स्वच्छंदता चाहिए। यह तबका न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहता है, कार्यपालिका पर नियंत्रण चाहता है और सरकार में भी रत्तीभर तानाशाही नहीं चाहता। यह चाहना, सही भी है। सबके लिए लक्ष्मणरेखा होनी ही चाहिए। लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए किसी भी व्यवस्था का तानाशाही होना, उसके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। लेकिन, यही तबका मीडिया पर तर्कसंगत नियंत्रण भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। देश में वर्षों से यह वर्ग अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में एक खास किस्म की स्वतंत्रता की माँग करता रहा है। विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति की आजादी की माँग करने वाले इस खेमे को संभवत: भारतीय परंपरा का ज्ञान नहीं है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गहरी परंपरा रही है। भारतीय समाज प्रारंभ से ही तर्कशील समाज रहा है। यहाँ समाज के नियम भी तर्कों की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही व्यवहार में लागू होते थे। लेकिन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय कभी भी यहाँ स्वच्छंदता से नहीं रहा है। भारत में अभिव्यक्ति वही श्रेष्ठ मानी गई है, जिसमें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण निहित हो। महर्षि नारद को संचार के अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार नहीं करने वाले वाम बुद्धिवादियों को एक बार ईमानदारी से नारद चरित्र का अध्ययन करना चाहिए। संभवत: नारद के अध्ययन से उन्हें ध्यान आए कि वास्तव में किस प्रकार के संवाद को आगे प्रसारित और प्रचारित करना चाहिए। भारत में एक सामान्य नागरिक को भी इस बात का बोध है कि किसी व्यक्ति के प्राण रक्षा के लिए बोला गया झूठ किसी भी सत्य वचन से बढ़कर है। अर्थात् उस प्रत्येक संवाद का भारत में सम्मान है, जिसमें लोक कल्याण का संदेश हो। जबकि वह सत्य भी निर्थक है,जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की हानि होती हो। वर्तमान पत्रकारिता पर एक नजर डालने पर यह ध्यान आता है कि'सबसे तेज' की चाह में 'राष्ट्र सबसे पहले' न केवल कहीं छूट गया है, बल्कि उसे भुला ही दिया गया है। मुंबई में ताज होटल में हुए आतंकी हमले में हमने मीडिया की इस मानसिकता के कारण जन-धन की हानि उठाई थी। समाचार चैनल इधर सबसे तेज के चक्कर में आतंकी हमले का सीधा प्रसारण कर रहे थे, उधर इस सीधे प्रसारण का दुरुपयोग आतंकियों के आका कर रहे थे। ऐसी पत्रकारिता किस काम की, जिसका फायदा देश के दुश्मनों को मिले।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले ढाई साल के कार्यकाल में इस बात की अनुभूति भी हुई है कि मीडिया का एक धड़ा मोदी विरोध में बहुत आगे निकल गया। उसने न केवल पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा को पार किया, बल्कि राष्ट्र हित की परवाह भी नहीं की। देश में जब कुछ लोगों ने सुनियोजित ढंग से असहिष्णुता की बनावटी मुहिम शुरू की तब समाचार माध्यमों के वाम धड़े ने उनके चिंदी विरोध को भी चद्दर बनाकर प्रस्तुत किया। जबकि उसके विरोध में सामान्य व्यक्तियों की बुलंद आवाज को भी दबा दिया गया। जिस वक्त में दुनियाभर में भारत की धमक बढ़ रही थी, उसी समय में मीडिया की मतिभ्रम स्थिति ने देश की छवि को एक धक्का पहुँचाया। मीडिया के वाम खेमे ने इस सरकार के प्रत्येक निर्णय और नीति की अंधाधुंध आलोचना की। विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के साहसिक और अभूतपूर्व निर्णय के बाद भी मीडिया में राष्ट्रीय भाव की कमी स्पष्ट दिखाई दी। आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी का निर्णय सुनाया था। कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हजार और पाँच सौ के नोट बंद करने के निर्णय पर तत्काल तो प्रत्येक समाचार माध्यम ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन, जैसे ही उनके वैचारिक आकाओं ने उन्हें आगाह किया कि आपकी सराहना से केंद्र सरकार और मोदी को ताकत मिली है, उसके बाद वाम विचारधारा के खूंटे से बंधे पत्रकारों और समाचार माध्यमों ने एडी-चोटी का जोर लगाकर इस निर्णय की बुराई की। सरकार के नीति और निर्णय की आलोचना करने के लिए पत्रकार स्वतंत्र है और होना भी चाहिए। लेकिन,सरकार की आलोचना करते-करते राष्ट्र की आलोचना पर उतर आना ठीक प्रवृत्ति नहीं। सरकार की आलोचना करते वक्त देश का हित और अहित ध्यान में रखना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि यह देश है, तो हम हैं। जब देश ही नहीं रहेगा, तब हम कहाँ ठौर पाएंगे। देश की प्रतिष्ठा है, तो दुनिया में हमारा सम्मान है। यदि हमारी पत्रकारिता से देश की प्रतिष्ठा धूमिल होगी, तब स्वाभाविक ही हम अपनी प्रतिष्ठा भी गिराएंगे। भारत के नागरिकों का आज दुनिया में सम्मान होता है, जबकि कई देशों के नागरिकों को कई देश अपनी सीमा में घुसने नहीं देना चाह रहे हैं। इसलिए यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि देश की प्रतिष्ठा से हमारी स्वयं की प्रतिष्ठा जुड़ी है। इसलिए अपनी पत्रकारिता में 'राष्ट्र सबसे पहले' होना ही चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं/ लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं )