“मुर्दहिया” के सृजनकार प्रोफ़ेसर तुलसीराम का निधन हो गया है । 1 जुलाई 1949 को जन्मे तुलसी राम जी का असामयिक निधन अफसोसनाक, दुखद एवं कष्टकारी है। जे एन यू दिल्ली की शान और आजमगढ़(यू पी)निवासी तुलसी राम जी ने अपनी आत्मकथा मुर्दहिया और मणिकर्णिका लिखकर समाज में उपेक्षित समाज को संघर्ष करने और आगे बढने के लिए प्रेरित किया।
चर्चित दलित लेखक एच एल दुसाद ने प्रोफ़ेसर तुलसीराम के निधन पर नमन करते हुये फेसबुक पर आज लिखा......मित्रो ……अभी-अभी प्रो.विवेक कुमार से जानकारी मिली….उन्होंने बताया कि तुलसीराम सर, ढाई महीने से भयंकर अस्वस्थ्ता के कारण जेएनयू कैम्पस से बाहर हॉस्पिटल में थे। कल उन्हें ऑपरेशन के लिए फरीदाबाद के एक हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया था,जहां सुबह उन्होंने आखरी सांस ली। मित्रों ! प्रो.तुलसीराम का जाना न सिर्फ दलित बल्कि सम्पूर्ण बौद्धिक जगत के लिए एक बड़ा आघात है। वैसे तो वर्षों से ही पूरे देश में ही उनके लेखन के लाखों कद्र दान थे। किन्तु ‘मुर्दहिया’ के प्रकाशन के बाद तो उनके पाठकों की संख्या में कई गुणा बढ़ोतरी हो गयी थी। हाल के वर्षो में कविता, कहानी, उपन्यास इत्यादि के आकर्षण से पूरी मुक्त मुझ जैसे व्यक्ति तक को मुर्दहिया ने कायल बना दिया था। मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’को आत्मकथाओं की खड़ी पाई मान लिया था। मेरी यह धारणा थी कि जूठन को और कोई आत्मकथा अतिक्रम नहीं कर पायेगी। ऐसे में मुर्दहिया की विस्मयकर चर्चा से भी लम्बे समय तक अप्रभावित रहा। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर तुलसीराम ‘जूठन’ से भी बेहतर रचना दे सकते हैं,इस पर विश्वास करना मेरे लिए कठिन था। किन्तु पूरे देश में धूम मचाने के एक लम्बे अन्तराल बाद मित्र बृजपाल भारती की निजी लाइब्रेरी में यह किताब जब सहजता से मिली,मैं अनमने भाव से इसके पन्ने उलटने लगा। कुछेक पन्ने उलटने के बाद इसकी भाषा ने इस कदर मुझे खींचा कि उसी दिन एक बैठक में पूरी किताब ख़त्म कर दिया।
मित्रों, मुर्दहिया एक इतिहास रच चुकी है। कुछ समीक्षकों के मुताबिक़ के अनुसार हिंदी दलित साहित्य में डेढ़ आत्मकथायें आई है, एक मुर्दहिया और आधी ‘जूठन’। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो कोई साहित्य मर्मग ही बता सकता है। किन्तु अपने तरफ से यही कहूँगा कि ‘जूठन’को दूसरे नंबर पर धकेल कर मुर्दहिया मेरी भी पसंदीदा आत्मकथा बन गयी। इसकी बहुत सी खूबियों में जो पक्ष मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया,वह थी उसकी भाषा. इस किताब का भरपूर उपभोग वही कर सकता है जो उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल देवरिया, गोरखपुर, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर, बनारस, जौनपुर की ग्रामीण भाषा से जुड़ा रहा है । इसमें प्रो.तुलसीराम ने ऐसे असंख्य शब्दों का इस्तेमाल किया है,जिनका अर्थ मैं गत दो-तीन दशकों से कोलकाता,दिल्ली जैसे शहरों में रहने और पत्रकारीय भाषा में लिखने के कारण धीरे-धीरे लगभग भूल चूका था.उस किताब को पढ़ते हुए मुझे ताज्जुब हुआ कि वर्षों से जेएनयू में अध्यापन करने वाले तुलसीराम कैसे अपनी स्मृति में उन शब्दों को संजो कर रखने में सफल रहे जिनका हम अबाध इस्तेमाल चालीस-पचास साल पहले किया करते थे.
मुर्दहिया के जरिये साहित्य जगत में अमर हो चुके प्रो.तुलसीराम की पहचान मुख्यतः दलित चिन्तक के रूप में रही है। उनके सम्पदान में कुछ ही अंक निकलने के बावजूद ‘अश्वघोष’पत्रिका को लोग आज भी नहीं भूले हैं। उनका मार्क्सवाद से अम्बेडकरवाद की ओर विचलन दलित बौद्धिक आन्दोलन की सुखद घटना रही। वैसे तो वह विभिन्न विषयों पर गंभीर टिपण्णी करते रहे,पर संघ परिवार के खिलाफ हमला करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते.व्यक्तिगत तौर पर उनके साथ मेरे बहुत अच्छे संपर्क थे किन्तु उनका बसपा विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता था। इसलिए कई बार उनकी आलोचना करते हुए लेख लिखा। आज जबकि बसपा बहुजनों की निराश करती जा रही है,मानना पड़ेगा कि तुलसीराम एक दूरदर्शी राजनीतिक भी चिन्तक थे। ऐसे परिनिवृत विद्वान् लेखक को कोटि-कोटि नमन।
चर्चित आलोचक वीरेंद्र यादव ने उनके निधन पर दुख व्यक्त करते हुये फेसबुक पर लिखा , अफ़सोस कि डॉ. तुलसी राम नहीं रहे. बीती रात उनका निधन दिल्ली में हो गया. हाशिये के समाज के प्रवक्ता और बौद्धिक का यह असमय अवसान एक बड़ी रिक्ति है. हार्दिक शोक श्रद्धांजलि.
चर्चित कवि मुसाफिर बैठा ने लिखा, 'मुर्दहिया' एवं 'मणिकर्णिका' जैसी मील का पत्थर साबित हुई हिंदी ।आत्मकथाओं के रचयिता डा. तुलसीराम की मृत्यु की खबर आ रही है। दलित साहित्य के लिए भी यह अपूरणीय क्षति है। मेरे लिए यह बेहद त्रासद एवं दर्दनाक खबर है। शोकाकुल हूँ।
प्रोफ़ेसर तुलसीराम के निधन पर मीडिया मोरचा की ओर से कोटि-कोटि नमन