अविनाश कुमार //
ये कौन पत्रकार है, ये कौन पत्रकार
जिसका पथ है त्याग का ,
सत्य का परमार्थ का,
पीर परमहंस सा, …
अविनाश कुमार //
ये कौन पत्रकार है, ये कौन पत्रकार
जिसका पथ है त्याग का ,
सत्य का परमार्थ का,
पीर परमहंस सा, …
कैलाश दहिया / प्रेम कुमार मणि के प्रक्षिप्त लेखन से शुरू हुई बात इनके द्वारा धमकी के रूप में सामने आई है। खैर, आगे बात की जाए। …
मनिष कुमार//
समय के अभाव से गुस्साते परिवार-रिश्तेदार हैं
साथ ही ना अच्छा घर ना कार है
क्योंकि पेशे से हम पत्रकार हैं!…
गुलाम कुन्दनम//
मुज्जफरनगर फिर धधक उठा,
काशगंज मुज्जफरनगर बन रहा,
जो बीज सत्ता के खातिर बोए गये थे
आज वही रक्तबीज बन रहा।…
पूजा प्रांजला //
पत्रकार तो बन रही,
पत्रकारिता कैसे करूँ?
अच्छाइयां मिलती नहीं,
बुराइयाँ कितनी लिखूं ?
ये देश है जितनी बड़ी…
राम प्रकाश वरमा/ हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के कर्मकांडी श्राद्धपर्व के माहौल में हिन्दी बोलने पर जुर्माने की सजा! हिन्दी का पिण्डदान करने सरकारी अय्याशों के साथ ‘कामसू़त्र’ की नई विधा तलाशने का सपना संजोए हिंदी पुत्रों के विदेश जाने का शुल्क बस पांच हजार! देश में रोमन लिप…
अमलेंदु कुमार अस्थाना //
हम नहीं लौट पाते,
जैसे शाम ढले पंछी लौटते हैं घोंसलों में,
अंधेरी रात जब दौड़ती है मुंह उठाए हमारी ओर…
मनोज कुमार/
दर्जनों डिग्री लेकर जब मैं बेरोजगार बना, सम्पादक की मेहरबानी से बिन तनख्वाह पत्रकार बना।
जेब में कैमरा, गाड़ी में PRE…
मनोज कुमार झा //
विज्ञापन ख़बरों की तरह
और ख़बरें विज्ञापनों की तरह
अख़बार में देश-दुनिया का हाल
कुछ इसी तरह
नँगाझोर बाज़ारवाद …
एम् एम् चन्द्रा / ‘जब बदलाव करना सम्भव था
मैं आया नहीं: जब यह जरूरी था
कि मैं, एक मामूली सा शख़्स, मदद करूँ,
तो मैं हाशिये पर रहा।’…
अर्पण जैन "अविचल"/ ये उँची-लंबी, विशालकाय बहुमंज़िला इमारते, सरपट दौड़ती-भागती गाड़ीयाँ, सुंदरता का दुशाला औड़े चकमक सड़के, बेवजह तनाव से जकड़ी जिंदगी, चौपालों से ज़्यादा क्लबों की भर्ती, पान टपरी की बजाए मोबाइल से सनसनाती सभ्यता, धोती-कुर्ते पर शरमाती और जींस पर इठलाती जव…
(मैं, राजदेव रंजन)
ग़ुलाम कुन्दनम//
उपरवाले के घर से मैं,
राजदेव रंजन बोल रहा हूँ।
मेरे साथ चतरा के इंद्रदेव,
चंदौली के हेमंत,…
अतुल गर्ग //
आज कलम का कागज से ""
मै दंगा करने वाला हूँ,""
मीडिया की सच्चाई को मै ""
नंगा करने वाला हूँ ""
मीडिया जिसको लोकतंत्र का ""…
इस बार चरखा नहीं, वालमार्ट
मनोज कुमार / बापू इस बार आपको जन्मदिन में हम चरखा नहीं, वालमार्ट भेंट कर रहे हैं. गरीबी तो खतम नहीं कर पा रहे हैं, इसलिये गरीबों का खत्म करने का अचूक नुस्खा हम इजाद कर लिया है. खुदरा बाजार में हम विदेशी पूंजी न…
तारकेश कुमार ओझा/ जब मैने होश संभाला तो देश में हिंदी – विरोध और समर्थन दोनों का मिला – जुला माहौल था। बड़ी संख्या में लोग हिंदी प्रेमी थे, जो लोगों से हिंदी अपनाने की अपील किया करते थे। वहीं दक्षिण भारत के राज्यों खास कर तामिलनाडु में इसके हिंसक विरोध की खबरें भी जब …
भावनाओं का ऐसा ज्वार उन्हीं मामलों पर हिलोरे मारता है जो मीडिया की सुर्खियों में हो
तारकेश कुमार ओझा/ मेरे मोहल्ले के एक बिगड़ैल युवक…
तारकेश कुमार ओझा / व्यापमं....। पहली बार जब यह शब्द सुना तो न मुझे इसका मतलब समझ में आया और न मैने इसकी कोई जरूरत ही समझी। लेकिन मुझे यह अंदाजा बखूबी लग गया कि इसका ताल्लुक जरूर किसी व्यापक दायरे वाली चीज से होगा। मौत पर मौतें होती रही, लेकिन तब भी मैं उदासीन बना …
तारकेश कुमार ओझा / उन दिनों किसी अखबार में पत्रकार होना आइएएस – आइपीएस होने से किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं था। तब किसी भी पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी के कार्यालय के सामने मुलाकातियों में शामिल करोड़पति से लेकर अरबपति तक को भले ही अपनी बारी के लिए लंबी प्रतीक्षा कर…
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी/ समीक्षक का काम टिप्पणी करना होता है। उसकी समझ से वह जो भी कर रहा है, ठीक ही है। मैं यह कतई नहीं मान सकता, क्योंकि टिप्पणियाँ कई तरह की होती हैं। कुछेक लोग उसे पसन्द करते हैं, बहुतेरे नकार देते हैं। पसन्द और नापसन्द करना यह सम…
मनोज कुमार/ अखबार रोज एक न एक रोचक खबर अपने साथ लाती है. यह खबर जितनी रोचक होती है, उससे कहीं ज्यादा सोचने पर विवश करती है और लगता है कि हम कहां जा रहे हैं? आज एक ऐसी ही खबर पर नजर पड़ी. खबर में लिखा था कि राज्य के एक बड़े मंत्री प्याऊ का उद्घाटन करेंगे. खबर पढक़र चेहरे पर बरबस मुस्…
डॉ. लीना