तारकेश कुमार ओझा/ जब मैने होश संभाला तो देश में हिंदी – विरोध और समर्थन दोनों का मिला – जुला माहौल था। बड़ी संख्या में लोग हिंदी प्रेमी थे, जो लोगों से हिंदी अपनाने की अपील किया करते थे। वहीं दक्षिण भारत के राज्यों खास कर तामिलनाडु में इसके हिंसक विरोध की खबरें भी जब – तब सुनने – पढ़ने को मिला करती थी। हालांकि काफी प्रयास के बावजूद इसकी वजह मेरी समझ में नहीं आती थी। संयोगवश 80 के दशक के मध्य में तामिलनाडु समेत दक्षिण भारत के राज्यों में जाने का मौका मिला तो मुझे लगा कि राजनीति को छोड़ भी दें तो यहां के लोगों की हिंदी के प्रति समझ बहुत ही कम है। बहुत कम लोग ही टूटी – फूटी हिंदी में किसी सवाल का जवाब दे पाते थे। ज्यादातर नो हिंदी ... कह कर आगे बढ़ जाते। चूंकि मेरा ताल्लुक रेल शहर से है, लिहाजा इसके दफ्तरों में टंगे बोर्ड ... हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इसे अपनाइए ... दूसरों को भी हिंदी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें जैसे वाक्य बरबस ही मेरा ध्यान आकर्षित करते थे। सितंबर महीने में शहर के विभिन्न भागों में हिंदी दिवस पर अनेक कार्यक्रम भी होते थे। जिसमें राष्ट्रभाषा के महत्व और इसकी उपयोगिता पर लंबा – चौड़ा व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता । हिंदी में बेहतर करने वाले पुरस्कृत होते। लेकिन वाईटू के यानी 21 वीं सदी की शुरूआत से माहौल तेजी से बदलने लगा। हिंदी फिल्मी तो पहले जैसे लोकप्रिय थी ही, 2004 तक मोबाइल की पहुंच आम – आदमी तक हो गई। फिर शुरू हुआ मोबाइल पर रिंग – टोन व डायल टोन लगाने का दौर। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य होता कि ज्यादातर अहिंदीभाषियों के ऐसे टोन पर हिंदी गाने सजे होते। वहीं बड़ी संख्या में हिंदी भाषी अपने मोबाइल पर बांग्ला अथवा दूसरी भाषाओं के गाने रिंग या डायल टोन के तौर पर लगाते। इस दौर में एक बार फिर यात्रा का संयोग बनने पर मैने महसूस किया कि माहौल अब तेजी से बदल चुका है। देश के किसी भी कोने में हिंदी बोली और समझी जाने लगी है। और तो और आगंतुक को हिंदी भाषी जानते ही सामने वाला हिंदी में बातचीत शुरू कर देता। 2007 तक वैश्वीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ने पर छोटे – शहरों व कस्बों तक में शापिंग माल व बड़े – बड़े ब्रांड के शो रुम खुलने लगे तो मैने पाया कि हिंदी का दायरा अब राष्ट्रीय से बढ़ कर अंतर राष्ट्रीय हो चुका है। विदेशी कंपनिय़ों ने भी हिंदी की ताकत के आगे मानो सिर झुका दिया है। क्योंकि मॉल में प्रवेश करते ही ... इससे सस्ता कुछ नहीं... मनाईए त्योहार की खुशी ... दीजिए अपनों को उपहार ... जैसे रोमन में लिखे वाक्य मुझे हिंदी की शक्ति का अहसास कराते। इसी के साथ हिंदी विरोध ही नहीं हिंदी के प्रति अंध व भावुक समर्थन की झलकियां भी गायब होने लगी। क्योंकि अब किसी को ऐसा बताने या साबित करने की जरूरत ही नहीं होती। ऐसे नजारे देख कर मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूं कि क्या यह सब किसी सरकारी या गैर सरकारी प्रयास से संभव हुआ है। बिल्कुल नहीं.. बल्कि यह हिंदी की अपनी ताकत है। जिसके बूते वह खुद की उपयोगिता साबित कर पाई है। यही वजह है कि आज दक्षिणी मूल के बड़ी संख्या में युवक कहते सुने जाते हैं... यार - गुड़गांव में कुछ महीने नौकरी करने के चलते मेरी हिंदी बढ़िया हो गई है... या किसी बांग्लाभाषी सज्जन को कहते सुनता हूं... तुम्हारी हिंदी बिल्कुल दुरुस्त नहीं है... तुम्हें यदि नौकरी राज्य से बाहर मिली तो तुम क्या करोगे... कभी सोचा है..। चैनलों पर प्रसारित होने वाले कथित टैलेंट शो में चैंपियन बनने वाले अधिकांश सफल प्रतिभागियों का अहिंदीभाषी होना भी हिंदी प्रेमियों के लिए एक सुखद अहसास है। सचमुच राष्ट्रभाषा हिंदी के मामले में यह बहुत ही अनुकूल व सुखद बदलाव है। जो कभी हिंदी प्रेमियों का सपना था। यानी एक ऐसा माहौल जहां न हिंदी के पक्ष में बोलने की जरूरत पड़े या न विरोध सुनने की। लोग खुद ही इसके महत्व को समझें। ज्यादा नहीं दो दशक पहले तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जो आज हम अपने – आस – पास देख रहे हैं। आज के परिवेश को देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी हिंदी अब फुल स्पीड में है जो किसी के रोके कतई नहीं रुकने वाली...।
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सम्पादक
डॉ. लीना