दिनेश चौधरी/ अनुप्रास के उदाहरण के रूप में हम सब अपने बचपन से 'चाँदी के चम्मच से चटनी चटाई' पढ़ते आ रहे थे। अब चूंकि दसों दिशाओं में पतन का जोर है तो इसे 'चटनी चखते चाँदी की चम्मच चुराई' के रूप में पढ़ा जा सकता है। काम भले ही बुरा हो, अनुप्रास तो बढ़िया सधता है। यह कलाकर्म वाला मामला है, जिसे पश्चिमी कूढ़-मगज कभी नहीं समझ सकते। चौर्य-कला हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही अत्यंत विकसित-समृद्ध रही है।
खबर है कि ममता बेनर्जी के साथ गए पत्रकारों के एक दल ने लन्दन में एक भोज के दौरान चमचे चुराने की कोशिश की। इसमें कुछ वरिष्ठ पत्रकार-सम्पादक भी शामिल बताए जा रहे हैं। पहली नजर में मुझे यह खबर थोड़ी-सी इसलिए खटक रही है कि एक साथ इसमें कई लोगों की संलिप्तता बताई जा रही है। तो इसका एक आशय यह हुआ कि यह घटना स्वतः स्फूर्त नहीं बल्कि सुनियोजित चोरी के प्रयास के रूप में देखी जानी चाहिए। या फिर चम्मच षोडसी युवती की तरह इतने ज्यादा आकर्षक और बला के खूबसूरत रहे होंगे कि एक साथ कई लोगों के मन डोल गए और उन्होंने मन में उठती तरंगों को मूर्त रूप देने का प्रयास कर डाला। इस स्टोरी के बहुत से एंगल हो सकते हैं और रहस्य-रोमांच-कथा लिखने वालों को यह प्लॉट मैं बिल्कुल मुफ़्त में मुहैया करा रहा हूँ। चौर्य-कथाओं पर धारावाहिक फ़िल्म बनाने वाले भी इस पर हाथ आजमा सकते हैं।
पत्रकारिता इन दिनों एक ऐसा पेशा बन गया है, जिसमें पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारिता को छोड़कर कुछ भी किया जा सकता है। इसमें खबरों को रोकना-दबाना, भय-दोहन करना, विविध सत्ता-शक्ति केंद्रों के बिचौलिए के रूप में काम करना, चरित्र-हनन करना, सुपारी लेना, मालिकान के हितों के आगे बिछ-बिछ जाना; यही सब शामिल है। मुख्यधारा के पत्रकार अब यही हैं। असल अपवाद की श्रेणी में आ गए हैं और सन्निपात की अवस्था में हैं कि बची-खुची पत्रकारिता को किस तरह से बचाकर रखें। तो जो लोग चम्मच-चोर गिरोह के पत्रकारों के रूप में सामने आए हैं, हो सकता है कि पत्रकारिता की इसी मुख्यधारा के अंश हो। असली घी, असली खादी और असली पत्रकारिता के दिन अब लद गए हैं। जो लोग पत्रकारिता के नाम पर कुछ कर रहे हैं, वे प्रकारांतर में चाँदी के चम्मच ही चुरा रहे हैं और इस चोरी की उन्हें छूट भी मिली हुई है। गलती से इस विशेषाधिकार को इन्होंने गैर-मुल्क में अपना लिया और धरे गए।
यों फिरंगियों से अपनी पुरानी रंजिश है। नस्लवाद का फेर भी हो सकता है। चिढ़ते भी हैं अपन से। नफ़रत करते हैं। हेय दृष्टि से देखते हैं। एक बार मशहूर अदाकारा नरगिस पर तौलिया चुराने का आरोप लगाया था। बताइए भला! नरगिस दत्त तौलिया चुराएँगी? यह किस्सा तब सामने आया था जब सुधीर नाइक पर मोज़े चुराने का आरोप लगा था। उन दिनों एक छोर पर सुनील गावस्कर स्थायी ओपनर होते थे और दूसरे ओपनर के लिए अस्थायी-अनुकम्पा-प्रायोगिक-प्रोबेशनरी नियुक्ति चलती रहती थी। सुधीर नाइक इसी प्रयोग का हिस्सा थे और मोज़े वाले प्रसंग ने उनका करियर खराब कर दिया। इस प्रसंग पर ज्यादा कुछ नहीं मालूम क्योंकि उन दिनों ऐसे प्रसंगों पर बस अखबारों में एकाध कॉलम की खबर होती थी। ये बात और है कि तब के सिंगल कॉलम समाचार आज के दिन भर के कानफोडू चख-चख से ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी होते थे।
चौर्य-कर्म पर पढ़ी हुई एक कथा भी याद आ रही है। एक बहुत धनाढ्य महिला अपनी पुत्री के साथ खरीदारी के लिए निकलती है। एक बड़ी-सी दुकान में नजर बचाकर रुमाल चुरा लेती है। लड़की देख लेती है। बेहद शर्मिंदा है। बाहर आकर माँ से झगड़ती है। कहती है, 'छि छि..! हम लोगों को किस बात की कमी है। और आपने एक सड़ा-सा रुमाल चुरा लिया। वह शायद अपने नीरस जीवन से उकताई हुई महिला होती है। कहती है, ' तुम नहीं समझोगी। इस काम में एक थ्रिल है।'
हम सब ने अपने बचपन में अपने घरों में लड्डू वगैरह चुराए हैं। आपने नहीं चुराया तो, माफ़ करें, आप निहायत शरीफ और शायद खडूस किस्म के उबाऊ इंसान हैं। होली-दीवाली में पहले से बन गए लड्डू-बर्फी वगैरह को भगवान के भोग के नाम पर माँ-दादी इन्हें डिब्बों में सीलबन्द कर देती थीं। इन डिब्बों से उड़ाए हुए लड्डूओं का स्वाद किसी भी 5 सितारा होटल के शेफ के बनाए किसी डिश में मुमकिन ही नहीं है। कन्हैया इसीलिए माखन चुराते थे क्योंकि चुराए हुए माखन का स्वाद अन्यथा हासिल माखन में नहीं आता।
चमचे चुराने वाले पत्रकार जब भी मुल्क लौटकर आएँ उनका यथोचित सम्मान किया जाना चाहिए।
(दिनेश चौधरी के फेसबुक वाल से साभार)