साहित्य, कला और संस्कृति की नई पत्रिका समकालीन सरोकार
पत्रिका का लेखकीय योगदान सहित, सहयोग के लिए अपील
किसी भी समाज में मीडिया की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका
होती है। न केवल समाचारों को बिना किसी रंग के पूरी वस्तुनिष्ठता से
लोगों तक ले जाने में,
बल्कि सामाजिक, आर्थिक
और राजनीतिक गत्यात्मकता को, इन क्षेत्रों में छोटे से छोटे
परिवर्तनों के निहितार्थ एवं संभावित
परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक करने में। आजादी की
लड़ाई को ताकत देने
में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है,
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अब वो हाल नहीं है। मीडिया का
चेहरा बहुत बदल गया है। खासकर हिंदी
मीडिया की दशा-दिशा तो बहुत ही चिंतनीय है। हिंदी के पाठक की
जरूरत से पूरी तरह
अनजान कुछ खास किस्म के अंग्रेजीदां प्रबंधक तय कर रहे हैं कि हिंदीवालों
को क्या पढ़ना चाहिए। वे यह प्रचारित भी कर रहे हैं कि वे जो सामग्री अखबारों में परोस रहे हैं, वही और सिर्फ वही लोग पढ़ना चाहते हैं। उन्होंने
कभी कोई सर्वे नहीं किया, कभी
पढ़ने वालों से जाकर पूछा नहीं कि
वे जो सोच रहे हैं,
वह सही है भी या नहीं। उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं है। उनका
मंसूबा ही कुछ और है। वे तो पूंजी के खेल के हिस्से भर हैं, मीडिया के
विशाल कारोबार में छोटे-मोटे पुर्जे भर हैं। वे पूंजी के वफादार सिपाही हैं।
वे कुछ ऐसा चमत्कार करने की कोशिश में
हैं कि ज्यादा से ज्यादा लाभ
के हालात बने। यह कमाई पाठकों के अखबार खरीदने से नहीं हो सकती, यह तो केवल और केवल विज्ञापन से हो सकती है।
परंतु विज्ञापन आए, इसके
लिए पाठकों की
तादाद ज्यादा से ज्यादा होनी चाहिए। जाहिर है वे अपना सर्कुलेशन बढ़ाना तो
चाहते हैं लेकिन इसलिए नहीं कि उन्हें हिंदी की या पाठकों की बहुत चिंता है
बल्कि इसलिए कि वे अधिकतम विज्ञापन समेटना चाहते हैं। पाठक संख्या बढ़ाने
के तमाम खेल हैं, उसका
अखबारों की सामग्री और पाठकों की पसंद से कोई वास्ता नहीं। इस होड़ में पिछले कुछ
वर्षों में समाचारपत्रों ने न केवल
अपने मूल्य ( नैतिक व आर्थिक दोनों स्तरों पर) बेतरह घटाये हैं, बल्कि तमाम तरह के इनामों के लालच भी पाठकों को
देने शुरू कर दिये हैं। वे पाठक को अब
पाठक नहीं ग्राहक समझते हैं और उसे मूर्ख बनाकर या ललचाकर खरीद
लेना चाहते हैं।
मीडिया के जरिये पूंजीवादी ताकतें खतरनाक षड्यंत्रकारी भूमिका
भी निभा
रही हैं। अखबारों में ऐसी खबरें या टिप्पणियाँ बहुत कम नजर आती हैं, जो जनता को जगा सकें, जनचेतना को धारदार बना सकें। एक तरफ
सत्ता और पूंजीवादी
साम्राज्यवाद के खिलाफ जाने वाली ज्यादातर सूचनाओं को दबाने की कोशिशें
की जा रहीं हैं, तो
दूसरी ओर नाच-गाने, मौज-मस्ती, माल-टाल की चकाचौंध में उलझाकर आदमी को निष्क्रिय
और निस्तेज बनाने का अभियान चलाया जा
रहा है। मीडिया प्रतिपक्ष की अपनी भूमिका भूलकर सत्ता
प्रतिष्ठानों के आगे दुम
हिलाता दिखाई पडता है।
व्यवसाय कोई बुरी चीज
नहीं है, विज्ञापन
भी अपना सूचनात्मक महत्व रखता
है, समाज
को उसकी भी जरूरत हो सकती है, लेकिन
इन्हें लूट, धोखा
और झूठ की
सीमा तक नहीं जाना चाहिए। कहना न होगा कि विज्ञापनों की दुनिया में फरेब
भरा पड़ा है। मीडिया को इसकी चिंता ज्यादा है,
अपने पाठकों की कम। यह
अधूरा सच होगा,
अगर कहा जाय कि पाठक अखबारों की सामग्री से संतुष्ट है, उसे किसी और चीज की तलाश नहीं है। पिछले दो
सालों में हमें एक बिल्कुल नया
अनुभव हुआ कि अखबारों ने साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया को जिस तरह व्यवसाय
की दृष्टि से प्रतिगामी मानकर त्याग दिया है,
ज्वलंत सामाजिक और
राष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर बातचीत के लिए मंच उपलब्ध कराने को
फिजूल मानकर पल्ला
झाड़ लिया है, वह
उनके प्रतिकूल गई है। इन सामग्रियों के पाठकों की कमी नहीं है। लोग ऐसी सामग्री चाहते
हैं। इस जरूरत को तमाम लघु पत्रिकाएं
पूरा कर रही हैं।
हिंदी समेत सभी भाषाओं में अनेक ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो कविता,
कहानी, संस्मरण, नाटक,
समीक्षा और कला के अन्य रचनात्मक आयामों को प्रस्तुत करती
रहती हैं, उन
पर बात भी करती रहती हैं। राजनीति हमारे जीवन की नियंता बनी हुई है। उस पर बात होनी ही चाहिए, उसके दांव-पेच पर बात करने वाली पत्रिकाओं
की भी कमी नहीं है। ऐसी पत्रिकाएं चटनी की तरह साहित्य और कला पर भी
थोड़ी-मोड़ी सामग्री परोसती रहती हैं।
इलेक्ट्रानिक मीडिया खबरों के अलावा सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा
करता तो है, लेकिन
उसकी प्रस्तुति या तो मनोरंजनात्मक होती है या फिर दर्शक संख्या बढ़ाने को लक्षित। समाज को
बांटने और दरार पैदा करने वाले
तमाम जटिल और लंबे समय से अनसुलझे सवालों पर आज के समय में
गंभीर बातचीत की जरूरत
है। हमारे अंचलों की, जनपदों
की, गाँवों
की बहुत उपेक्षा होती आई है, अब भी हो रही है। उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को न अखबार जगह देते हैं, न साहित्य और राजनीति की ये पत्रिकाएं।
कई बार तो उनकी ओर तब ध्यान
जाता है, जब
वहां से उठी लपटों की आंच राजधानियों को झुलसाने लगती हैं। हमारा मानना है कि ऐसी एक पत्रिका की
जरूरत है जो इन मसलों को उठाये, जिसमें
साहित्य और कला के लिए भी जगह हो और जो गंभीर सामाजिक और बुनियादी सवालों
पर विमर्श का एक सशक्त मंच भी बन सके,
साथ ही जो हिंदी भाषी प्रांतों के विभिन्न अंचलों और जनपदों की भी
खोज-खबर ले सके।
सहयोग की अपील
हमने पूर्व योजना में समय सरोकार नाम सोचा था, मगर समाचारों के पंजीयक द्वारा हमें अंततः समकालीन सरोकार नाम मिला है। सितंबर की शुरुआत तक समकालीन सरोकार का पहला अंक आपके सामने होगा। पर भाई यह कोई आसान काम नहीं। सबसे बड़ा संकट है इसका अर्थतंत्र। हमें नहीं मालूम वह कैसे बनेगा, पर न जाने क्यों एक भरोसा है कि बनेगा, जरूर बनेगा। यह भरोसा क्यों है, हम यह भी नहीं जानते। हो सकता है आपके ही प्रयास से बात बन जाए। बिना आप की मदद के यह काम पूरा नहीं हो सकता। लेखकीय योगदान की अपेक्षा के साथ ही आप सभी मित्रों से, इसे पाने वाले, पढ़ने वाले हर किसी से मेरा आग्रह है कि हमारा भरोसा टूटने न दें। अगर कोई इसे प्रायोजित करना चाहता है या इस योजना में कोई सहभाग करना चाहता है तो वह हम लोगों से संपर्क कर सकता है।
सुभाष राय ( मोबाइलः 09455081894)
हरे प्रकाश उपाध्याय ( मोबाइलः 08756219902)