वीरेन्द्र यादव। 19 अक्टूबर, के नवभारत टाईम्स ,लखनऊ में प्रकाशित.
'लेखकों ने प्रतिरोध की इस पहलकदमी से प्रेमचंद के उस कथन को सही सिद्ध कर दिखया है जिसमें उन्होंने कहा था- “साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं ,उसके आगे-आगे चलनेवाला ‘एडवांस गार्ड’ है” काश आज के ‘देशभक्त’ इसे समझ पाते !'
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कौशल किशोर। 21अक्टूबर, के नवभारत टाइम्स में "अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे " शीर्षक से मेरी एक टिप्पणी .--"ऐसा नहीं है कि पहले विचारों की स्वतंत्रता का हनन नहीं हुआ। पहले भी ऐसा होता रहा है। कलाकारों पर हमले होते रहे हैं। दो साल पहले पुणे में कबीर कला मंच के कलाकारों को गिरफ्तार किया गया था। पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश और सफदर हाशमी जैसे नाटककार की हत्या हुई है। लेकिन आज की स्थितियांे ने अंधकार को घना किया है। बढ़ रही घटनाएं इस बात की सूचक हैं कि भारत अंधे दौर से गुजर रहा है। मुक्तिबोध ने साठ के दशक में ‘अंधेरे में’ कविता की रचना की थी लेकिन वह अंधेरा आज की सच्चाई है। यह ऐसा यथार्थ बन गया है जहां एक अफवाह किसी की जान ले सकता है, गांव के गांव उजाड़ सकता है बस्तियां जला सकता है। अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी सुरक्षित नहीं है। "