क्या
हममें से अधिकांश लंपट हैं???
मनोज कुमार/ आज अख़बार में छपे एक रपट पर नज़र पड़ी, जिसका शीर्षक है – “ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की कमी नहीं”
मेरी मंद बुद्धि ने ‘कमी नहीं’ को सीधा कर पढ़ा तो उसे लगा “अधिकता है”। मेरे अंतर्मन ने मुझसे एक प्रश्न किया, जिसे मैं आप ब्लॉगर बंधुओं के सामने रखना चाहता हूं –
“क्या ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की अधिकता है???
आगे कुछ लिखने से पहले शब्दकोश का सन्दर्भ लेना ज़रूरी समझा। आचार्य रामचन्द्र वर्मा द्वारा रचित और लोकभारती से प्रकाशित प्रामाणिक हिंदी कोश, के अनुसार –
लंपट – वि. [सं.] [भाव. लंपटता] व्यभिचारी, विषयी, बदचलन।
इससे संतुष्ट न हो पाने की स्थिति मेँ द पेंगुइन – हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी भाग – 3, की शरण मेँ गया जिसके अनुसार –
लंपट
कामुक (lecherous), गुंडा (hooligan), छलकर्ता (deceiver), परगामी (पुरुष) (adulterous(male)), लंपट (libertine)
लंपटता
अश्लीलता (obscenity), कामुकता (lechery), परगमन (adultery), लंपटतापूर्ण, अश्लील (obscene)
लंपटा
कुलटा (slut), परगामिनी (adulterous(female))
मित्रों यह
वक्तव्य मुझे विचलित करता है, चिंतित करता है, धिक्कारता है और
ललकारता है। पिछले तीन सालों की ब्लॉगिंग में मैंने
प्रतिदिन लगभग छह से आठ घंटे ब्लॉग जगत को दिए हैं, जिसपर
मेरे परिवार के सदस्योँ का अधिकार होना चाहिए। किंतु, मैं
इस विशेषण का अधिकारी न तो ख़ुद को मानता/पाता हूं और न ब्लॉग जगत
को और ऐसे मेँ कठोर से कठोर शब्दोँ मेँ इसकी भर्त्सना करते हुए अपना विरोध
दर्ज करता हूं।
आप क्या सोचते हैं?
ये उस बिके हुए मीडिया की शालीन भाषा है, जिसकी सोच यह है कि हम (ब्लॉगर) वहां छपने के लिए लालायित हैँ और वहाँ स्थान न पाने की स्थिति मेँ ब्लॉग जगत में आकर लंपटतापूर्ण व्यवहार करने लगे हैँ। वे जो कह रहे हैं तनिक उसपर ध्यान देँ – ‘ब्लॉग की भाषा प्रौढ़ नहीं हुई है’, ‘ब्लॉग लंपटों के हाथों में आ चुका है’, ‘भाषा बेहद ख़राब हो चुकी है’, ‘अशक्त और कमज़ोर लोग – ब्लॉग पर अपनी बातें कह रहे हैं’, ‘चाकू – लंपट के हाथ में’, आदि-आदि।
मित्रों! हमारा काम (ब्लॉगिंग) यदि प्रिंट मीडिया के विद्वजनों की दृष्टि में व्यभिचार है, तो ऐसा व्यभिचार मैं सौ बार करूंगा और ऐसे व्यभिचारियोँ की आवश्यकता है वर्त्तमान मेँ।
तीन ब्लॉग के ज़रिए 991, 927 और 380 शालीन पोस्ट्स प्रस्तुत करने के उपरांत यदि “लंपट” विशेषण से ब्लॉग जगत के अधिकांश लेखकोँ/प्रस्तोताओँ को अलंकृत किया जाता है, तो यह कम-से-कम मुझे सह्य नहीं हो सकता। मेरी मांग है कि प्रिंट/पल्प मीडिया का वह समाचार-पत्र विशेष इस शब्द पर पुनर्विचार करे और इसे वापस ले। … और अगर उनमें ऐसा न करने का माद्दा है तो उन लंपटों का नाम दें।
पहले भी कुछ गण्यमान्य ब्लॉगरों के समक्ष एक प्रिंट मीडिया के अख़बार ने ब्लॉगरों के बारे में अवांछित टिप्पणी की थी, तब मैंने एक पोस्ट लिखी थी - मैं गर्व और शान से ब्लॉगिंग करता हूं! आप चाहें तो एक बार देख लें।
उस अखबार के ज़रिए कहा गया था- ब्लागिंग का मतलब है गालियां खाना और लिखते जाना, ... ब्लॉग ठीक उसी तरह है जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा, ... ब्लागिंग ने यदि लिखने की आजादी दी है, तो फिर गाली गलौज तक सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ... ब्लॉगिंग एक निजी डायरी है। इसमें आप कुछ भी लिख सकते हैं, ... ब्लॉगर्स को भाषा के प्रति सतर्क रहना चाहिए ....। ....
इसके विरोध में उस पोस्ट पर कही गई कुछ बातों को मैं यहां दुहराना चाहूंगा।
भाषा के प्रति सतर्क क्या हम नहीं रहते? क्या प्रिंट मीडिया वाले ही रहते हैं? एक ही दिन के छह सात अखबारोँ को ले लीजिए और उनकी भाषा एक ही विषय पर देखिए ... कोई भड़काऊ ... तो कोई उबाऊ तो कोई झेलाऊ ... तो कोई पकाऊ। सबके अपने प्रिय मत और फिर उस मत पर लिखने वाले प्रिय लेखक हैं।
पांच सात साल की हिंदी ब्लॉगिंग ने, मुझे लगता है, अठाहरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू हुए हिंदी पत्रकारिता को चुनौती दे दी है। इसे वो पचा नहीं पा रहे। उनकी सीमा रेखा सिमटती जा रही है और यहां (चिट्ठाजगत) SKY IS THE LIMIT .... !!
हम ब्लॉगर्स को, फिर मैं कहूँगा मुझे लगता है, प्रिंट मीडिया की चालाकी और कोशिशों से बचना चाहिए। यहां (ब्लॉगजगत में) जो हैं उनकी लेखन क्षमता असीम है। ब्लॉग जगत में प्रतिदिन अनेकों गीत, ग़ज़ल, आलेख, इतिहास, विज्ञान, समाज, कहानी, संस्मरण, सब विधा में लिखा जा रहा है। यहां पर अधिकांश को प्रिंट मीडिया में छपने का लालच नहीं है। यहां पर, यह इनकी आजीविका भी नहीं है। तो डर किस बात का ... इसलिए वे बेलाग लिखते हैं। अब यही सब उनकी आंख की किरकिरी बनी हुई है। उनकी दुनिया के कुछेक लोग, मुझे लगता है, यहां आए, तो जम नहीं पाए, शायद यह भी उन्हें सालता है।
अगर हम गाली गलौज करते हैं तो उनके भी छह आठ पेज बलात्कार, डकैती, लूट-पाट, दुर्घटना के जैसे सनसनीख़ेज़ समाचारों से भरे पडे होते है। ... और आजकल तो चलन सा बन गया है .. नंगी, अधनंगी तस्वीरें डालने का।
ब्लॉगिंग के जरिए कई गृहणियां, बच्चे, कम पढ़े-लिखे लोग भी अपनी भावनाएं, विचार और सृजनात्मक लेखन को एक दिशा दे रहे हैं, जिन्हें प्रिंटमीडिया वाले घास नहीं डालते।
इतिहास गवाह है कि कई कम पढ़े लिखे लोग भी साहित्यिक धरोहर दे गए।
(मनोज कुमार की ब्लॉग- http://manojiofs.blogspot.in से साभार)