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मीडियामोरचा

___________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हिंदी पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां और संभावनाएं

खबर को रोचक बनाने के सकारात्मक उपाय आजमाये जाने चाहिए, वैल्यू एडिशन हों

अभिषेक दास/ उदंत मार्तण्ड के साथ शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता के समक्ष वर्तमान समय में अनेक प्रकार की चुनौतियां  खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। स्थापित सिद्धांत और मूल्य को साथ लेकर पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की ओर जाती, तब संभवत: कम समस्याएं आतीं। क्योंकि मूल्यों और सिद्धांतों की उपस्थिति में प्रत्येक व्यवसाय में मर्यादा और नैतिकता का ख्याल रखा जाता है। किंतु, जैसे ही हम तय सिद्धांतों से हटते हैं, मर्यादा को लांघते हैं, तब स्वाभाविक तौर पर चुनौतियां सामने आने लगती हैं। नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ हो रहा है। मीडिया के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। स्वामित्व का प्रश्न। भ्रष्टाचार का प्रश्न। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के शोषण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न हैं। वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं। 'भारतीय भाव' को तिरोहित करने का प्रश्न। इन प्रश्नों के कारण उत्पन्न हुआ सबसे बड़ा प्रश्न- विश्वसनीयता का है।

यह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं पूँजीवादी व्यवस्था से। सामान्य-सा फलसफा है कि बड़े लाभ के लिए बड़ी पूँजी का निवेश किया जाता है। आज अखबार और न्यूज चैनल का संचालन कितना महंगा है, हम सब जानते हैं। अर्थात् मौजूदा दौर में मीडिया पूँजी का खेल हो गया है। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा 'बाय प्रोडक्ट' था। लेकिन, उदारीकरण के बाद बड़ा बदलाव मीडिया में आया है। 'बाय प्रोडक्ट' को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है। वर्ष 2009 में सामने आया कि समाचार के बदले अब मीडिया संस्थान ही पैसा लेने लगे हैं। स्थिति यह बनी की देश के नामी-गिरामी समाचार-पत्रों को 'नो पेड न्यूज' का ठप्पा लगाकर समाचार-पत्र प्रकाशित करने पड़े। संपादक गर्वित होकर बताते हैं कि पूरे चुनाव अभियान के दौरान उनके समाचार-पत्र के विरुद्ध पेड न्यूज की एक भी शिकायत नहीं आई। मालिकों के आर्थिक स्वार्थ समाज हितैषी पत्रकारिता पर हावी नहीं होते, तब यह स्थिति ही नहीं बनती। 

तटस्थता

केवल मालिकों की धन लालसा के कारण ही मीडिया की विश्वसनीयता और प्राथमिकता पर प्रश्न नहीं उठ रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी भूमिका इसमें है। देखने में आ रहा है कि कुछ पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं। ऑन स्क्रीन ही नहीं, बल्कि ऑफ स्क्रीन भी न्यूज रूम में वह आपस में राजनीतिक प्रवक्ताओं की भांति संबंधित पार्टी का पक्ष लेते हैं। कांग्रेस बीट कवर करने वाला पत्रकार कांग्रेस को और भाजपा बीट देखने वाला पत्रकार भाजपा को सही ठहराने के लिए भिड़ जाता है। वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता तो और भी अधिक हैं। भले ही देश के प्रत्येक कोने से कम्युनिस्ट पार्टियां खत्म हो रही हैं, लेकिन मीडिया में अभी भी कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक पत्रकारों की संख्या जरा ज्यादा है। हालात यह हैं कि मौजूदा दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां चैनल/ अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां चैनल/ अखबार भाजपा- आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, तब उसके समाचारों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितना ही सत्य समाचार प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी।

हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है। निष्पक्ष रहना संभव नहीं है। हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही। भारत में पत्रकारिता का एक इतिहास पक्षधरता का भी है। इसलिए भारतीय समाज को यह पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। यदि पत्रकारिता में 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जाग गया तब पत्रकारिता के समक्ष आकर खड़ी हो गईं ज्यादातर चुनौतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी।

प्राइवेट मीडिया के लिए सफलता दर्शक रेटिंग पर निर्भर है, इस बात पर नहीं कि दर्शकों को प्रोग्राम अच्छा या पर्याप्त लगा कि नहीं। बाजार केवल उस मीडिया को तवज्जो देता है, जिनकी टीआरपी ऊंची है। इस बात से बाजार को कोई लेना-देना नहीं कि अमुक चैनल को देखने वाले या अखबार को पढ़ने वाले लोग कितने जागरूक, कार्यक्रम का विश्लेषण कितना सटीक था, दर्शक कितने सन्तुष्ट हुए।

कई जानकार मानते हैं कि दर्शकों की तादाद पर फोकस करने के चक्कर में मीडिया दर्शकों की क्वालिटी पर ध्यान देना भूल जाता है। मीडिया फ्रीडम नाम की किताब के मुताबिक, ‘‘खेल की खबरों की लय-ताल, राजनीतिक उठा-पटक का रोमांचक लाइव कवरेज, विदेशों में लड़े जा रहे युद्ध अब घर की महफूज चारदीवारी में उपलब्ध हैं- 80 के दशक के अंत तक न्यूज प्रोग्राम में जानकारी और मनोरंजन के इस मिश्रण को इंफोटेनमेंट कहा जाने लगा-’’ आज इंफोटेनमेंट के इस जॉनर को लोग खबरों के रूप में पूर्णतः स्वीकार कर चुके हैं। यह पहलू भी बाजारवाद की ही देन है, पर कितने लोग क्रिकेट की मनोरंजक मैच रिपोर्ट या सीरिया में चल रही हिंसा के विश्लेषण को बाजार से जोड़ते हैं, यह जानना दिलचस्प होगा। हिन्दुस्तान के दर्शक विदेशों की अपेक्षा अधिक उदार हैं।

मीडिया में बाजारवाद के एक ऐसे प्रभाव की भी चर्चा विदेश में है, जिसे शायद भारतीय दर्शक सालों से बगैर सवाल किए कुबूल कर चुके हैं। इस युग में दर्शकों को खींचने के लिए मीडिया को अति सरलीकरण का दोषी माना जाता है। अपनी किताब ‘द इंटरप्ले ऑफ इंफ्लूएंस- न्यूज, एडवर्टाइजिंग, पॉलिटिक्स एंड द इंटरनेट’ में कैथलीन हॉल जेमीसन लिखती हैं कि टीवी न्यूज की खबरों को पांच में से एक श्रेणी के हिसाब से बनाया जाता है। दिखावा बनाम हकीकत/ छोटा आदमी बनाम बड़ा आदमी/ अच्छाई बनाम बुराई/ दक्षता बनाम अक्षमता/ अद्भुत बनाम साधारण।

कैथलीन के मुताबिक दुनिया में सब कुछ श्वेत या श्याम की श्रेणी में आता है, यह अवधारणा ही गलत है। यह समाज की सोच को सरल बनाने की बजाय उलझा देता है। मीडिया दरअसल केवल एक ऐसा ढांचा देने की कोशिश करता है, जिसे आसानी से बाजार में बेचा जा सके, जिसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सके।

वैल्यू एडिशन

भारत में अगर मीडिया और बाजारवाद पर चर्चा होती है, तो यह उस पहलू को उजागर करने की कोशिश है कि हमारे देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं को क्या दिलचस्प खबरों की वजह से नज़रअन्दाज किया जाता है।

स्पष्ट है, खबरों को दिखाने के लिए जब चैनलों की होड़ है, तो दर्शक खींचने की होड़ होना भी लाजमी है। इस वक्त मीडिया इंडस्ट्री में क्या चल रहा है, इसे लेकर लोगों का अलग-अलग आकलन है, जो कहीं सही, कभी भ्रम से बोझिल है, पर क्या होना चाहिए- सन्तुलन कैसे बनाना चाहिए, यह अहम है।

खबर को रोचक बनाने के सकारात्मक उपाय आजमाये जाने चाहिए। मसलन संसद की बहस दिखाते हुए यदि कामकाज का लेखा-जोखा भी दिखाया जाए, तो खबर को सन्दर्भ मिलेगा। किसी सदस्य की कही हुई कोई बात, अगर पूर्व में कही उन्हीं की किसी बात से उलट है, तो इससे भी नजरिया मिलेगा। ऐसी चीज़ों को वैल्यू एडिशन कहा जाता है और ये दर्शकों के लिए दिलचस्प होने के साथ साथ ज्ञानवर्द्धक भी होती हैं।

सन्तुलन

खबरों में पक्षपात को लेकर अमेरिका का एक उदाहरण भी दिलचस्प है। 2008 में जॉर्ज डब्लू बुश के प्रेस सेक्रेटरी स्कॉट मैक्कलीलन ने अपनी किताब में इस बात को स्वीकार किया कि वे वरिष्ठों के निर्देश पर नियमित रूप से मीडिया को ऐसी खबरें लीक किया करते थे, जो पूरी तरह से सच नहीं होती थीं। इन खबरों को मीडिया तथ्य के तौर पर पेश किया करता था। मैक्कलीलन ने लिखा कि प्रेस मोटे तौर पर सच्चाई दिखाना चाहता है और सच के साथ है, पर अधिकतर पत्रकार और नेटवर्क व्हाइट हाउस की जी हुजूरी करते हैं। भारत में शायद इतनी सच्चाई से कोई नेता या राजनीतिज्ञ ऐसी बातों को कुबूल नहीं करेगा।

यह भी समझने की आवश्यकता है कि खबर का दायरा राजनीति से शुरू होकर राजनीति पर खत्म नहीं होता। खेल से लेकर सेना, फिल्मों से लेकर सामाजिक मुद्दे, सभी खबर हैं। चौबीस घंटे के दायरे में इन सभी खबरों का सटीक मिश्रण कई समस्याओं का निवारण है। मुश्किल तब खड़ी होती है, जब किसी भी एक तरह की खबर पर ज़रूरत से ज्यादा फोकस किया जाता है। किसी जुर्म का ब्यौरा दिया जाए, तब तक वह खबर है, पर हर आधे घंटे पर उस वारदात की बारीकियां बताना कई दफा सनसनी की श्रेणी में चला जाता है। मीडिया को इससे बचने की ज़रूरत है।

सन्तुलन का एक और पहलू मीडिया स्टडीज की बुनियादी सीख में शुमार है, वह यह कि किसी भी खबर का केवल एक पहलू नहीं दिखाना चाहिए। अगर विवाद हो, तो हर पक्ष की बात सामने रखी जाए। अगर कोई बात करने से इन्कार करे तो इस बात को भी स्पष्ट सुबूत के साथ लोगों के समक्ष रखा जाए, ताकि फैसला चैनल न दे, बल्कि दर्शक ले सकें।

भूमिका का सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण मुमकिन नहीं

एक सवाल हमेशा खड़ा होता है कि एक पत्रकार की भूमिका क्या है, एक सन्देशवाहक की या कुछ और ? जो कुछ उसके आस-पास घट रहा है, वह ख़बर लोगों तक पहुंचाने की या फिर जो घट रहा है, वह अच्छा है या बुरा, यह भी बताने की. यह सवाल पेचीदा है, क्योंकि अगर टीवी स्क्रीन पर आप एक बहू को बुजुर्ग सास की निर्मम पिटाई करते देखते हैं, तो एंकर का संयम आपको परेशान कर सकता है। अगर किसी शो में कोई राजनेता सफेद झूठ बोलकर बचने की कोशिश कर रहा हो, तो उसे न रोकना पक्षपात के दायरे में आएगा।

पत्रकार की भूमिका का सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण मुमकिन नहीं, क्योंकि जो एक समुदाय के लिए निष्पक्ष होगा, वह दूसरे के लिए जहरीला विश्लेषण होगा। जो ख़बर एक पार्टी को सच्ची लगेगी, वह दूसरी पार्टी के लिए झूठी होगी। इसीलिए बाजारू ख़बरों के तमगे से बचने के लिए हम पत्रकारिता के बुनियादी नियमों के पालन पर ही लौटें। अपने सोर्स से मिल रही ख़बरों की सभी पक्षों से पुष्टि करवायी जाए। ख़बर लिखते वक्त अन्दाज से अधिक महत्त्व तथ्यों को दिया जाए और टिप्पणी के लिए जानकारों की मदद ली जाए।

भाषा

आज के दौर में भाषा के स्वरूप को भी लेकर चर्चा होती है। सच्चाई यह है कि संचार और संवाद के लिहाज से भाषायी शुद्धता और पूर्णता बेहद जरूरी हो जाती है। जब बात मीडिया की आएगी तो यहां भाषायी शुद्धता, स्पष्टता और उपयोग में दक्षता और भी अहम हो जाती है। चिंताजनक यह कि तकनीकी के वर्तमान दौर में मीडिया में उपयोग होने वाली भाषा का रूप भी विकृत हुआ है। मीडिया समाज में कितना प्रभाव पैदा कर पाता है, इसका निर्धारण इससे होता है कि उसके द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा का किस तरह से उपयोग किया जाता है। परंपरागत मीडिया की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि भाषा के महत्त्व से किसी तरह का कोई समझौता न हो, उसके लिए इसमें सेवारत पत्रकार एवं लेखक व्यक्तिगत एवं पेशेवर जीवन में गहन एवं गंभीर अध्ययन करते थे ताकि भाषा को लेकर स्थापित मानकों के साथ कोई समझौता न हो। लेकिन सोशल मीडिया सरीखे मीडिया के नूतन माध्यमों के आगमन के साथ ही ये भाषायी प्रतिबद्धताएं हाशिए की ओर खिसक गईं। अब सोशल मीडिया में खुद को महत्त्वपूर्ण मानने वाले प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ लिखना है, बिना यह सोचे-समझे कि उस अभिव्यक्ति की भाषागत मांग क्या है। सोशल मीडिया पर एक होड़ सी मची हुई है, अपनी वॉल को ज्यादा से ज्यादा व्यस्त रखने की।

इस आपाधापी में किसी के पास इतना वक्त ही नहीं बचा कि कुछ लिखने से पहले पर्याप्त स्व-अध्ययन भी किया जाए। इस दौड़ में हम अपने भाषायी ज्ञान को उस स्तर तक ले जाने में हर तरह से अक्षम हैं जहां से समुचित शब्द, सुपरिभाषित व्याकरण में बंधकर भाव खुद को सही रूप में अभिव्यक्त कर पाएं। शब्दों और व्याकरण के स्तर पर पाई जाने वाली त्रुटियां मुख्यधारा के परंपरागत मीडिया में आम तौर पर दृष्टिगत हो जाती हैं। हैरानी यह कि यह मानवीय चूक के बजाय लापरवाही ज्यादा प्रतीत होती है। कारण चाहे जो भी हों, लेकिन मीडिया जगत में भाषा के स्तर पर जो संकट पैदा हुआ है, वह चिंताजनक है। मीडिया की विश्वसनीयता यदि आने वाले समय में भी बनाए रखनी है तो प्रमाणित और निष्पक्ष खबर के साथ-साथ भाषायी पवित्रता को भी जिंदा रखना होगा। तभी मीडिया अपने निर्धारित लक्ष्यों तक पहुंच पाएगा।

डिसइनफॉर्मेशन या फेक न्यूज

हाल के वर्षों में भारतीय लोकतंत्र एक नई समस्या के मुकाबिल है। यह समस्या डिसइनफॉर्मेशन या फेक न्यूज की है, जिसके जरिए जनमत को प्रभावित करने की संगठित तरीके से कोशिश की जा रही है। पश्चिमी देशों में ये समस्या बहुत बड़े रूप में सामने आई है और वहां के राष्ट्रीयविमर्श में फेक न्यूज एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। समस्या की गंभीरता का अंदाजा इसबात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस, यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र में इस बारे में बाकायदा स्टडी हो चुकी है और रिपोर्ट आ चुकी है तथा सरकारेंइस बारे में विचार कर रही हैं. अमेरिका में इस बात की जांच हो रही है किराष्ट्रपति चुनाव में रूस से आने वाली फर्जी खबरों ने कितनी भूमिका निभाई।

फेक न्यूज एक नई तरह की समस्या है और इसका असर भी ज्यादा गहरा है। वैश्विक अध्ययनों में ये बात उभरकर सामने आई है कि दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतें इनका ज्यादा और बेहतर इस्तेमाल करती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य विचारों के दल मिसइनफॉर्मेशन का अभियान नहीं चलाते।

इसका असर गहरा इसलिए है क्योंकि पश्चिमी देशों की ही तरह भारत के लोग भी तेजी से डिजिटल वातावरण का हिस्सा बन रहे हैं। लगभग 45 करोड़ लोगों के जीवन में किसी न किसी तरह से इंटरनेट की दखल है। ये ही वे लोग हैं जो बाकी जनता के लिए ओपिनियन लीडर हैं। यानी देश में विचार के निर्माण में डिजिटल मीडिया का अब बड़ा रोल है। इंटरनेट का दायरा आने वाले दिनों में और बढ़ेगा

इसका ये भी मतलब है कि डिसइनफॉर्मेशन भी अब ज्यादा तेजी से और बहुत आसानी से पूरे देश में या टारगेटेड ऑडियंश में फैल सकता है। इसकी वजह से सूचना और झूठ के बीच की सीमाएं धुंधली हो रही हैं। हम जिन बातों को पढ़ या देख रहे हैं, उनमें क्या असली है और क्या फेक न्यूज, इसका पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है। सूचनाओं के प्रवाह में इतनी तेजी है और सूचनाएं इतनी बेशुमार हैं कि ठहरकर सोचना असंभव है। चूंकि ये सूचनाएं सोशल मीडिया पर अक्सर लोगों तक किसी परिचित के माध्यम से पहुंचता है, इसलिए इन पर शक करना और भी मुश्किल हो जाता है।

यह न सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया, बल्कि कानून और व्यवस्था, समाज के सौहार्द और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है। भारत जैसे देश के लिए ये और भी गंभीर है क्योंकि यहां मीडिया साक्षरता लगभग शून्य है। मीडिया, सूचना और समाचारों को लेकर आम लोगों में जानकारियों के अभाव के कारण फेक न्यूज यहां जनमत को प्रभावित करने की ज्यादा क्षमता रखते हैं।हालांकि इस बारे में अभी और शोध की आवश्यकता है।

अंत में एक बार फिर ले चलूंगा हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड की ओर जिसका ध्येय वाक्य था- 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत'। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। यही तो 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव है। समाज के सामान्य व्यक्ति के हित की चिंता करना। उसको न्याय दिलाना। उसकी बुनियादी समस्याओं को हल करने में सहयोगी होना। न्यायपूर्ण बात कहना।

निष्कर्षतः अच्छी पत्रकारिता का आधार सिर्फ तात्कालिकता नहीं बल्कि उसके मर्म में छुपा विचार होता है।

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सम्पादक

डॉ. लीना