(‘मूकनायक’ के 100 साल- 31 जनवरी, 2020 पर विशेष)
संजय कुमार/ डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर किसी परिचय के मोहताज नहीं है, संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा के तौर विख्यात हैं। डॉ. अम्बेडकर के परिचय में एक सफल पत्रकार एवं संपादक शब्द भी जुड़ा है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में डॉ.अम्बेडकर एक ऐसे महान एवं जुझारू पत्रकार थे जिन्होंने सामाजिक क्रांति का जो बीज पत्रकारिता की दुनिया में बोया था, वह आज भी ‘शिकायत’ के साथ प्रासंगिक है। मुख्यधारा की मीडिया में गांधी, तिलक, राजेन्द्र प्रसाद, आदि की पत्रकारिता की चर्चा तो खूब होती है, लेकिन अंबेडकर ने जो और जिस तरह की पत्रकारिता की थी, उसकी चर्चा नहीं के बराबर दिखती है। भेदभाव की तस्वीर साफ है। जितना आसान गांधी, तिलक, राजेन्द्र प्रसाद आदि की पत्रकारिता थी उतनी डॉ. अंबेडकर की नहीं। डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता खास और अलग थी। समाज और देश को आइना दिखाने वाली पत्रकारिता थी। बल्कि, आज भी हैं। डॉ. अंबेडकर ने एक ऐसे वंचित समाज की पत्रकारिता की बात की जो हासिये पर था और है।
पत्रकारिता का अपना उद्देश्य होता है। सबने उद्देश्य के तहत ही इसे अपनाया। अंबेडकर के सामने उद्देश्य के साथ-साथ मिशन और एक लड़ाई थी। जाति के सवाल को लेकर। अछूत और पिछड़ों के हक को लेकर। कह सकते है कि समाज में व्याप्त गैर बराबरी के सवाल को लेकर एक ऐसा वैचारिक युद्ध जो समाज में सभी जाति को बराबरी देने को लेकर था। जहां एक ओर सवर्ण और पैसे वालों ने पत्रकारिता को अपनाया और ब्राह्मण-हिंदू हितों की रक्षा के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। वंचितों की समस्याओं और सवालों को जगह नहीं दी। वंचित वर्ग पत्रकारिता की छाया से दूर ही नहीं रहा बल्कि, द्विज मीडिया ने उनकी ओर तंाका तक नहीं। तभी तो, जब डॉ. अंबेडकर ने बेजुबानों का नायक ‘मूकनायक’ के प्रकाशन की घोषणा का विज्ञापन पूरे शुल्क के साथ तिलक के समाचार पत्र ‘केसरी’ में दिया तो, तिलक ने विज्ञापन को छापने से साफ इंकार कर दिया था। देखा जाये तो द्विजों के पत्र-पत्रिकाओं ने जमकर अछूत-पिछड़ों को जलील करने का काम किया। ऐसे में डॉ. अंबेडकर सामने आये और उन्हें उनकी ही भाषा में जवाब देने के लिए पत्रकारिता की शुरूआत की। वे, हिन्दुवादी मीडिया के तेवर को भांप चुके थे कि द्विजों का मीडिया अछूत-पिछड़ों के पक्ष में कतई खड़ा नहीं होगा।
डॉ.अंबेडकर एक पत्रकार की भूमिका में आये, उन्हें लग गया था कि मीडिया एक सशक्त माध्यम है जो बहुजनों को गोलबंद कर सकता है। जैसे द्विज मीडिया अपने समाज के लिए कर रहा था। बाबा साहब का मानना था कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना स्वयं का मीडिया का होना बहुत जरूरी है। इसी मकसद के लिए उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ कर, पहल शुरू की। डॉ. अंबेडकर ने कलम को थामा और उसे सिपाही बनाया। इस ‘मूकनायक’ के प्रकाशन हेतु शाहू महाराज ने उस समय रूपये 2500/- की सहायता की थी। चूँकि उस समय डॉ.अंबेडकर मुम्बई के सिडनहेम कालेज में प्राध्यापक थे, सरकारी सेवा में थे, इसीलिए उन्होंने संपादन के रूप में पांडुरंग नंदराय भटकर का नाम डाला। ‘मूकनायक’ पाक्षिक होकर शनिवार को प्रकाशित होता था और इसका पंजीयन क्रमांक बी-430 था, शीर्षक के दायीं ओर विज्ञापन की दरें और बायीं ओर वार्षिक शुल्क तथा फुटकर अंक का दाम दिया जाता था। इसके कार्यालय का पता-हरारवाला बिल्डिंग, डॉ. बाटलीवाला रोड़, पोपबावड़ी, परेल, मुम्बई था।
डॉ.अंबेडकर ने मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक का प्रकाशन प्रारंभ कर, हमला बोला। यह हमला समाज के ठेकेदारों पर हुआ। डॉ. अंबेडकर ने कलम को थामा और उसे सिपाही बनाया। स्वयं ही अपने सीमित साधनों से समाचार पत्र का प्रकाशन किया। हालांकि, कई तरह की दिक्कतें आयी लेकिन डॉ. अंबेडकर हारने वालों में से नहीं थे। समाचार पत्र वंचित समाज में बदलाव लायेगा इस बात का उन्हें भरोसा था। अम्बेडकर जानते थे कि सामाजिक आन्दोलन या क्रांति में समाचार पत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। शोषित एवं दलित समाज में जागृति लाने के लिए समाचार पत्रों की ओर मुड़े। ज्यादा पढ़ी लिखी जनता नहीं थी, केवल मराठी ही समझ पाती थी। ऐसे में उन्होंने कई मराठी पत्रों का प्रकाशन एवं सम्पादन किया। मूकनायक (1920), जनता (1930), बहिष्कृत भारत (1927), समता (1928) एवं प्रबुद्ध भारत (1956) पत्रों का प्रकाशन शुरू कर डॉ. अम्बेडकर ने देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सहित अन्य मुद्दों पर अपनी धरदार लेखनी से पत्रकारिता की शुरूआत की। अम्बेडकर की पत्रकारिता ने दलित आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
दलित पत्रकारिता के आधार स्तम्भ डॉ. अम्बेडकर दलित पत्रिकारिता के पहले संपादक, संस्थापक एवं प्रकाशक बने। डॉ. अम्बेडकर का कार्य क्षेत्र महाराष्ट्र होने की वजह से स्वभाविक था कि सभी पत्रों को मराठी भाषा में ही निकाला। सबसे बड़ा कारण यह भी था कि मराठी वहां की जन भाषा है। उन्होंने जिस तरह, ‘मूकनायक’ से सामाजिक पत्रकारिता की शुरूआत कर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की पत्रकारिता यात्रा की और षानदार सामाजिक एवं जनपक्षीय पत्रकारिता करते रहे वह अपने आप में खास था। जो, बाबा साहब को एक महान पत्रकार-संपादक के रूप में स्थापित करता है।
बाबा साहब ने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत समाचार पत्रों के माध्यम से अपने विचारों से स्पृश्य यानी अछूतों को जागृत करने का काम किया। समाचार पत्रों ने दलितों की सोच एवं जीवन में परिवर्तन लाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि पत्रकारिता पर ब्राह्मणों का शुरू से कब्जा रहा है। डॉ. अंबेडकर ने 1945 में कहा था कि और दलितों के पास अपना कोई प्रेस नहीं है। और कांग्रेस के पास जो प्रेस है उसका दरवाजा दलितों लिए बंद है। अछूतों का अपना प्रेस हो ही नहीं सकता। कारण बिल्कुल साफ है। कोई भी प्रेस विज्ञापन की आय के बिना जिंदा नहीं रह सकता है। विज्ञापन की आय व्यापारियों से होती है। भारत में तमाम व्यापारी बड़े और छोटे दोनों कांग्रेस से जुड़े हैं और किसी गैर कांग्रेसी संगठन की तरफदारी कभी नहीं करेंगे। भारत में एसोसिएटेड प्रेस प्रचार समाचार वितरण की एक प्रमुख संस्था है। उसमें सब मद्रासी ब्राह्मण है। तस्वीर साफ है कि भारत में पूरा प्रेस ब्राह्मणों के ही हाथ में है। ये लोग किसी ऐसे समाचार को प्रचारित नहीं करते जो कांग्रेस के प्रतिकूल हो, यह वह कारण है जो अछूतों के बस के बाहर है।
जहां तक बात ‘मूकनायक’ की है तो, 31 जनवरी 2020 को मूकनायक समाचार पत्र का शताब्दी वर्ष है। यह ऐतिहासिक मौका है। मूकनायक के जरिये बाबा साहब उनकी आवाज बने थे। जो समाज में दबे कुचले थे, जिनमें अपनी आवाज उठाने की ताकत तक नहीं थी। ‘मूकनायक’ समाचार पत्र को निकाल कर डॉ..अम्बेडकर ने दलित मीडिया की एक ऐेसी आधारशिला रखी जिसने उस वक्त के हिन्दूवादी मीडिया के मंुह पर तमाचा मारते हुए उनकी बोलती बंद कर दी थी। इतिहास के पन्ने गवाह है कि भारतीय हिन्दूवादी मीडिया ने बहिष्कृत लोगों की आवाज बनने की बात तो दूर उनकी ओर ताका तक नहीं। हालात आज भी वैसे ही है। आज का जो मीडिया है वह भी बहुजन समाज को तरजही नहीं देता। वंचित की खबरों को पूरी तरह नहीं छपता। डॉ.अंबेडकर ने जिस दौर में दलित पत्रकारिता की शुरूआत की थी। इन बातों को डॉ. अंबेडकर समझते थे और मीडिया के पक्षपात पूर्ण रवैया से लोहा लेने के लिए मीडिया में प्रवेश किया।
बाबा साहब ने 1943 में भारतीय मीडिया को हिंदू और कांग्रेसी मीडिया कह कर संबोधित किया था। वहीं, 1970 के दशक में मान्यवर कांशी राम ने भी भारतीय मीडिया को मनुवादी करार दिया था। भारतीय मीडिया पर अंबेडकर को कतई भरोसा नहीं था। जो बात बाबा साहब ने 50 साल पहले कही थी, वह आज भी मीडिया में दिखती है। मुख्यधारा की मीडिया में पहले भी बहुजनों को जगह नहीं मिलती थी और आज भी मीडिया में बहुजन विमर्श ना के बराबर दिखता है। वजह भी साफ है, उस दौर में भी मीडिया पर द्विजों को कब्जा था और आज भी। वर्ष 2006 में सीएसडीएस द्वारा भारतीय मीडिया का सर्वे किया था। मीडिया के अभिजात वर्ग के सामाजिक चरित्र को इस सर्वे ने उजागर किया था और बता दिया कि शिखर पर सवर्णों का कब्जा है। अंग्रेजी भाषा के प्रिंट मीडिया के 90 प्रतिशत निर्णायक करता अधिकारी और टेलीविजन के 70प्रतिशत अधिकारी उच्च जाति के है। दलितों की संख्या शून्य मिली थी। जब मीडिया की कमान ही द्विज के पास हो और सदियों से दलितों को अपने से दूर रखने की साजिष चली तो आज हृदय परिवर्तन कैसे होगा? यह एक बड़ा सवाल है कि बदलते परिवेश में आज का मीडिया एक खास वर्ग के साथ क्यों खड़ा है। इसके अपने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक मायने हो सकते हैं। धार्मिक नेता हो या राजनीतिक उन्हें खूब जगह दी जाती है। लेकिन बहुजनों के नेताओं की ओर झांका तक नहीं जाता है।
बाबा साहब भारतीय पत्रकारिता की अवधारणा पर कहते हैं कि भारत में कभी पत्रकारिता व्यवसाय था। जो व्यापार व उद्योग के रूप में हैं। डॉ. अंबेडकर कहते हंै कि इनके पास साबून बनाने से ज्यादा कोई नैतिक भूमिका नहीं बची है। डॉ. अंबेडकर की नजर में भारतीय प्रेस ने देश के हित को सफलतापूर्वक त्याग कर नायक पूजा या भक्ति को ही अपना मूल लक्ष्य बना लिया है। बाबा साहब ने भारतीय पत्रकारिता की जो व्याख्या की थी वह आज भी सटीक है।
बाबा साहब ने 36 वर्षों तक पत्रकारिता की। एक संपादक एवं पत्रकार की भूमिका में निष्पक्ष रहते हुए काम किया। समाज के ठेकेदारों, राजनीतिक दलों एवं नेताओं के साथ-साथ मीडिया के खिलाफ भी लंबी लड़ाई लड़ी। डॉ. अंबेडकर द्वारा प्रकाशित समाचार पत्रों में मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत का आकलन करें तो तस्वीर साफ दिखती है। डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता के खास मकसद थे। समाचार पत्रों के नामों को ध्यान से देखें तो सभी नामों में एक खास मकसद छुपा हैं। एक घार है, जो संदेश देता है। बाबा साहब अपने समाचार पत्रों के नाम के जरिये वंचित समाज को निश्चित दिशा में ले जाने के लिए संधर्ष करते रहे।
’मूकनायक’ को ही लीजिये। नायक का शाब्दिक अर्थ होता एक दिशा देने वाला। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर पूरे ‘बहिष्कृत भारत’ की बात करते हैं। वैसा भारत जहां एक ओर समाज में ऐसे लोग है जिन्हें सब कुछ करने की आजादी है जबकि दूसरी ओर समाज में दूसरे यानी अछूत लोगों पर प्रतिबंध है। वे बहिष्कृत है। डॉ. अंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ के लोगों की आवाज को, इस पत्र में जगह देते हुए आवाज बुलंद कर ‘समता’ समाज की वकालत ही नहीं बल्कि अधिकार की लड़ाई ‘समता’ पत्र से लड़़ी। फिर ‘जनता’ को लेते हुए भारत को प्रबुद्ध भारत बनाने के लिए ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्र निकालते हैं। जहां बाबा साहब के समाचार पत्रों में प्रगतिशीलता के साथ-साथ सामाजिक परिर्वतन की बात थी। वहीं, उस दौर के अखबारों के नामों में और आज के अखबारों में भी ठहराव नजर आता है। हिंदुस्तान टाइम्स, द हिंदू, नवजीवन, दैनिक जागरण, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स सहित अन्य पत्रों के नामों को अगर देखें तो इनकी धारा, विचार-धारा, सोच और मकसद ही अलग है। वहीं, बाबा साहब के समाचार पत्रों के पैमाने ही अलग है। बाबा साहब ने जितने भी समाचार पत्र निकालें उसमें बहुजन आंदोलन की जड़ें थी। हासिये के लोगों थे। एक समाज था।
मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत केवल समाचार पत्र ही नहीं थे, बल्कि अपने आप में एक हथियार थे। एक ऐसा हथियार जो आजादी व मुक्तिगाथा के शब्दों से पिरोया हुआ था। तभी तो अंबेडकर भी मीडियानुमा हथियार की ताकत को जान कर सामाजिक क्रांति के अग्रदूत बहुजन आंदोलन में मीडिया की आवश्यकता पर जोर देते हुए अपनी राजनीतिक पार्टी की राज्यों को भी अपना पत्र निकालने के लिए प्रोत्साहित किया था। सिर्फ खुद ही पत्र नहीं निकालते थे बल्कि अपने समाज के लोगों एवं संगठन के लोगों को भी कहते थे कि वह पत्र के माध्यम से लोगों को गोलबंद करें। 1945 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की कोलकाता इकाई के मुखपत्र पीपुल्स हेराल्ड अंग्रेजी पत्र का उद्धाटन करते हुए बाबा साहब ने समाचार की परिभाषा और भूमिका पर टिप्पणी की थी और कहा था कि आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में समाचार पत्र एक अच्छी सरकार का मुख्य आधार है या लोगों को शिक्षित करने का एक साधन है।
मूकनायक समाचार पत्र के कुल 19 अंक निकले थे। अंक 12 तक मुख्य समाचार पत्रिका लेखन पूरी तरह से बाबा साहब ने किया 5 जुलाई 1920 को बाबा साहब लंदन चले गए।उसके बाद उनकी जिम्मेदारी ज्ञानदेव रुवनाथ घोलप जी ने उठाई और अंक13 से 19 कुल 7 अंक निकाले थे ।
बाबा साहब का मानना था कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका स्वयं का मीडिया का होना अति आवश्यक है। ‘मूकनायक’ के प्रवेशंाक के संपादकीय में डॉ. अंबेडकर ने इसके प्रकाशन के औचित्य पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए लिखा था, खासकर समाज में व्याप्त जाति के सवाल को लेकर। बाबा साहब ने अपने पहले संपादकीय में हिंदू धर्म में व्याप्त भेदभाव को सवालों के घेरे में लिया। वे लिखते हैं, मैं हिंदू हूं कहने मात्र से समाधान नहीं होगा, उसे उसकी जाति क्या है यह बताना जरूरी होता है। मतलब यही होता है कि हिंदू को उसकी मानवीय पहचान दिखाने के लिए प्रत्येक हिंदू को जातिगत भेदभाव दिखाना पड़ता है। संपादकीय में हिंदू धर्म की आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं कि भेदभाव जितना अनुपम है उतना ही निंदनीय भी। क्योंकि भेदभाव पूर्ण आचरण में से हिंदू धर्म का जो स्वरूप बनता है वह हिंदू धर्म की पवित्रता को शोभा नहीं देता। हिंदू धर्म में जो जातियां है ऊंच-नीच की भावना से प्रेरित होती है। हिंदू समाज का स्वरूप एक मीनार की तरह है जहां हरेक जाति उस मीनार की मंजिल के रूप में है। लेकिन यहां एक बात याद रखनी चाहिए कि इस मीनार की मंजिलों के बीच कोई सीढ़ी नहीं होती है। इसलिए एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने का कोई मार्ग नहीं मिलता है। जो जिस मंजिल में जन्मा है उसी में उसे मरना होता है। नीचे की मंजिल का मनुष्य कितना लायक क्यों ना हो उसके लिए उसे ऊपर की मंजिल पर प्रवेश नहीं मिल सकता तथा ऊपर की मंजिल का मनुष्य कितना भी नालायक क्यों न हो उसे नीचे की मंजिल में भेजने की ताकत किसी में नहीं है। बाबा साहब लिखते हैं कि सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि जाति-जाति के बीचए ऊंच-नीच की भावना मनुष्य के गुण-अवगुण की नीवं पर नहीं रखी गई है, ऊंची जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी अवगुणी क्यों ना हो, उसे उच्च जाति का ही कहना पड़ता है। उसी तरह नीची जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी गुणवान क्यों ना हो उसे नीच ही कहा जाता है। दूसरे, उन लोगों में एक दूसरे के बीच रोटी बेटी का व्यवहार भी नहीं होता। इसके हर एक जाति में भाईचारे के संबंध जातिगत है। निकट संबंध को नजरअंदाज भी कर लें, फिर भी एक दूसरे से बाहरी आचरण खुला नहीं है। अछूत जाति का अर्थ होता है ऐसा मनुष्य जिसे छू लेने मात्र से दूसरी जाति के लोग अपवित्र हो जाते हैं। भ्रष्ट हो जाते हैं। अपने पहले संपादकीय में बाबा साहब ने पिछड़ों पर भी कलम चलाई है उन्होंने लिखा है कि सत्ता और ज्ञान के अभाव में ब्राह्मणेत्तर (मुख्य रूप से ओबीसी) पिछड़े रह गए यही कारण है कि उनकी प्रगति नहीं हो सकी, यह बात स्पष्ट है। परंतु उनके दुख में दरिद्रता शामिल नहीं थी, क्योंकि उनके लिए खेती, व्यापार उद्योग और नौकरी करके जीवनयापन करना कठिन नहीं था। लेकिन सामाजिक भेदभाव के कारण अछूत, बहिष्कृत समाज पर जो प्रभाव पड़ा, वह बड़ा ही भयानक है। दुर्बलता, दरित्रता और अज्ञान के त्रिवेणी इतना बड़ा बहिष्कृत, अछूत समाज पूर्णतः बह गया है। वे संपादकीय में आज हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय को दूर करने की चिंता व्यक्त करते हैं। यही नहीं, उस दौर के समाचार पत्रों पर भी हमला करते हुए बाबा साहब लिखते हैं कि मुंबई से निकलने वाले समाचार पत्रों को बारीकी से देखा जाए तो पता चलता है उनमें से ज्यादातर पत्र किसी खास जाति की हित को संरक्षित करते हैं। वे दूसरी जातियों की परवाह नहीं करते। कभी-कभी नुकसान पहुंचाने वाली बातें भी उन पत्रों में दिखाई दे जाती है। ऐसे समाचार पत्रों से हमारा कहना है कि समाज में भी कोई एक जाति पतन की ओर जाती है तब उसकी अवनति का कलंक दूसरी जातियों पर लगने से रोका नहीं जा सकता।
डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता में समाज का दर्पण दिखता था। खासकर वंचितों को लेकर। समाज में जांति के नाम पर इंसान, इंसान के बीच व्याप्त भेदभाव की तुलता जानवर से करते हैं। 14 अगस्त 1920 के अंक में प्रखर हो कर संपादकीय में ये बात उठाते हैं कि, कुत्ते बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं। बच्चों का मल खाते हैं। उसके बाद वरिष्ठों स्पृष्यों के घरों में जाते हैं, तो उन्हें छूत नहीं लगती। वे उनके बदन से लिपटते चिपटते हैं। उनकी थाली तक में मुंह डालते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो वह पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है। घर का मालिक दूर से देखते ही कहता है अरे अरे दूर हो या बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छूएगा। यह संपादकीय टिप्पणी जाति में बैठे भारतीय समाज को आईना दिखाने में आज भी सक्षम है।
बाबा साहब 28फरवरी 1920 को प्रकाशित मूकनायक के तीसरे अंक में ‘स्वराज नहीं हमारे, ऊपर राज्य है’ शीर्षक संपादकीय में लिखा कि स्वराज मिले तो उसमें अछूतों का भी हिस्सा हो। स्वराज पर डॉ. अंबेडकर का चिंतन लंबे समय तक चला। 27 मार्च 1920 को प्रकाशित मूकनायक के पांचवें अंक के संपादकीय शीर्षक है स्वराज हमारा आरोहण, उसका प्रमाण और उसकी पद्धति। इसमें बाबा साहब ने इन बिंदुओं को उठाया था।
-भारत भावी राज्य एक सत्तात्मक या प्रजा सत्ताम्मक न होकर प्रजा प्रतिनिधि सत्तात्मक राज्य होने वाले हैं। इस प्रकार के राज्यों को स्वराज होने के लिए मतदान का अधिकार विस्तृत करके जातिवार प्रतिनिधित्व देना जरूरी है।
-हिंदू धर्म ने बहुत कुछ जातियों को श्रेष्ठ और वरिष्ठ एवं कुछ को कनिष्ठ और अपवित्र ठहराया है। स्वाभिमान शून्य नीचे की जातियों के लोग ऊपर की जातियों को पूज्य मानते हैं और शील शून्य ऊपर की जाति के लोग नम्र भाव रखने वाली इन जातियों को नीच मानते हैं।
-दलित उम्मीदवार को ऊंची जाति का मतदाता समझ कर मत नहीं देगा और आश्चर्य की बात यह है कि ब्राह्मणेतर और बहिष्कृत लोग ब्राह्मण सेवा का सुनहरा संयोग आया देख पुण्य संचय करने के लिए उनके पैरों में गिरने को दौड़ पड़ेंगे ।
-हरके व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिलने पर चुनाव की पद्धति से, संख्या के अनुपात से जातिवार प्रतिनिधित्व देना चाहिए।
-स्वराज मिलेगा, उससे प्राप्त होने वाली स्वयंसत्ता सब जातियों में कैसे विभाजित की जाएगी, जिसकी वजह से स्वराज्य ब्राह्मण राज्य नहीं होगा होना चाहिए, यह प्रश्न मुख्य है।
दर्जनों संपादकीय टिप्पणियों को मिलाकर बाबा साहब के 40 लेख मूकनायक में छपी। जो अपने आप में वह दस्तावेज है जो जाति के नाम पर समाज के आंखों पर लगी काली पट्टी को खोलने कोलेकर काफी है। डॉ. अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे। मीडिया के साथ ही सभी क्षेत्रों में दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चित किए जाने के प्रबल पक्षधर थे।
बाबा साहब डॉ.. अंबेडकर केवल वंचितों के महानायक नहीं थे बल्कि पत्रकारिता जगत के भी महानायक थे क्योंकि जो पत्रकारिता में जो सामाजिक क्रांति का बीच बोया था आज वह मिशाल के तौर पर है। (लेखक-वरिष्ठ पत्रकार है)
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संदर्भ-पुस्तक-मूकनायक, एक था डॉक्टर एक था संत(अरूंधति राय), डॉ..अंबेडकर सम्पूर्ण वाड्मय खंड एक, दलित दस्तक नंवबर2019,मीडिया और दलित(डॉ. श्यौराज सिंह बेचेन,एस एस गौतम),दलित पत्रकारिता (रूपचन्द गौतम)।