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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मेरा पसंदीदा रंग तो आज भी काला है...

साल 2022 की मीडिया

मनोज कुमार/ तुम खेलो रंगों से, रंग बदलना तुम्हारी आदत में है, मेरा पसंदीदा रंग तो आज भी काला है और काले रंग में समा जाना तुम्हारी फितरत में नहीं क्योंकि तुम रंग बदलने में माहिर हो. साल 2022 मीडिया के ऐसे ही किस्से कहानियों का साल रहा है. सबकी उम्मीदें रही कि मीडिया निरपेक्ष रहे लेकिन यह उम्मीद दूसरे से रही है. कोई खुद निरपेक्ष नहीं बन पाया. मीडिया निरपेक्ष हो भी तो कैसे? किसी एक के पक्ष में लिखना होगा और जब आप किसी के पक्ष में लिखेंगे तो स्वत: आप दूसरे के टारगेट पर होंगे. गोदी मीडिया एक शब्द गढ़ा गया लेकिन कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि गोदी मीडिया क्या है? आज जो सत्ता में है, गोदी मीडिया उसकी, कल जो सत्ता में आएगा, गोदी मीडिया उसकी लेकिन पत्रकारिता इन सबसे परे है. पत्रकारिता समाज की है. मुश्किल यह है कि जिस पुण्य कार्य से हमारी पहचान है, हमारा जीवन चलता है, उसे ही हम गरिया रहे हैं. साल 2022 ऐसे ही चरित्र के कारण गिना जाएगा.

मीडिया का मतलब अब जो समझा गया या समझा जा रहा है, वह सोशल मीडिया है. इसके बाद टेलीविजन का क्रम आता है और सबसे आखिर में प्रिंट का. सोशल मीडिया कितना बेहाल है, यह किसी से छिपा नहीं है. कोई नियंत्रण नहीं, कोई देखरेख नहीं, जिसे जो सूझा, वह लिख दिया और शेयर, लाईक और फालो पर सोशल मीडिया जिंदा है. जिन्हें जो भाया, उन्होंने उसे सत्य मान लिया और यही कारण है कि समाज को मार्ग दिखाने वाला खुद भटकाव का शिकार हो गया. सच और गलत के मध्य कोई लक्ष्मण रेखा शेष नहीं रहा. इसके बाद टेलीविजन मीडिया ने इसे आगे बढ़ाया. मीडिया की दुनिया से बावस्ता लोगों को इस बात का ज्ञान है कि रोज सुबह मीटिंग में तय किया जाता है कि आज किस खबर को खेलना है. ‘खबर खेलने’ का यह चलन टेलीविजन ने शुरू किया. और इसके बाद किसी एक विषय को लेकर दर्शकों का हैमरिंग किया जाता रहा. बचे-खुचे में शाम को डिबेट के नाम पर शोर-शराबा, आरोप-प्रत्यारोप और एकाध बार तो दंगल का मैदान भी बन चुका है. हालात यह हो गए कि उकता गए लोग अब न्यूज चैनल से तौबा करने लगे हैं. आम आदमी तो आम आदमी, मीडिया से जुड़े लोग भी अब न्यूज चैनल से दूरी बनाने लगे हैं. यह चलन 2022 में देखने को मिला.

2022 में सबसे ज्यादा विश्वसनीय बनकर उभरा तो प्रिंट मीडिया. प्रिंट मीडिया में भी अखबारों की भूमिका संजीदा रही. इसका एक बड़ा कारण समय का प्रतिबंध रहा क्योंकि लाख कोशिशों के बाद भी 24 घंटे में एक बार ही अखबार का प्रकाशन हो पाता है. पेज संख्या भी सुनिश्चित है इसलिए संपादक चाहे तो भी तो उसके हाथ बंधे होते हैं. अखबारों की मर्यादा यह भी है कि उसे नापतौल कर शब्द लिखने होते हैं और जब सूचनाओं का सैलाब तटबंध तोडक़र बह रहा हो तो सूचनाओं के मध्य खबर तलाशने में अखबारों को विशेष तौर पर मेहनत करनी होती है. और शायद यही कारण है कि हजारों चुनौतियों के बाद भी अखबारों की विश्वसनीयता ना केवल कायम रही बल्कि उसमें इजाफा भी हुआ.

मीडिया में नायक बनने का दौर भी 2022 ने देखा. सोशल मीडिया में नायक जैसा कोई चेहरा शायद ढूंढे से ना मिले और अखबारों में नायक संपादक होने का दौर लगभग खत्म हो चुका है क्योंकि संपादक संस्था कब से अपना अस्तित्व खो चुका है. हां, बेहतर रिपोर्टिंग के लिए रिपोर्टर को शाबासी मिलती है लेकिन नायक नहीं बनाया जाता है. हमारे समय के नायक रिपोर्टर के रूप में अरूण शौरी ने बोफोर्स सौदे का जो खुलासा किया, उसकी गूंज सालों साल तक गुंजती रही. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन अब इस पर भी विराम लग चुका है.  

नायक बनने और बनाने का दौर टेलीविजन पत्रकारिता तक सिमट कर रह गया है. थोड़ा गौर से देखें और समझने की कोशिश करें तो 2022 आते-जाते मीडिया के नायक के रूप में रवीश कुमार दिखते हैं. रवीश कुमार एंग्री यंग मेन की वैसी ही भूमिका में हैं जैसे कभी अमिताभ बच्चन हुआ करते थे. दोनों में साम्य इस बात को लेकर है कि दोनों परदे के हीरो तो रहे, परदे के एंग्री यंग मेन तो रहे लेकिन वास्तविक जिंदगी में इनका कोई असर नहीं दिखा. अमिताभ परदे पर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़े हो जाते थे, जैसे रवीश तथाकथित गोदी मीडिया के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. शासन-प्रशासन को आइना दिखाते हैं लेकिन सच तो यह है कि वास्तविक जिंदगी में कोई बदलाव नहीं दिखा. सच तो यह है कि हम जो नहीं कर पाते हैं या बोल नहीं पाते हैं, उसे परदे पर उतरता देख हम इत्मीनान कर लेते हैं कि चलो, कोई तो हमारी बात कह रहा है. यह मध्यमवर्गीय समाज का संकट सदियों से बना रहा है.    

साल 2022 की मीडिया को रवीश कुमार के लिए याद किया जाएगा. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाजे गए रवीश कुमार तथाकथित गोदी मीडिया के खिलाफ नायक बनकर उभरे. उनकी छवि ऐसी बन गई थी कि किसी पत्रकार, लेखक या कवि की पंक्ति को उन्होंने अपने प्रोग्राम में दोहरा दिया तो वह पत्रकार, लेखक या कवि स्वयं को धन्य मानता था. रवीश के रोज-ब-रोज आलोचनात्मक भाषण को लोगों ने चाव से सुना लेकिन याद नहीं पड़ता कि कभी उन्हें सीरियस लिया गया होगा. उनके ही एक पुराने सहयोगी दिल्लगी में याद दिलाते हैं कि कभी दूरदर्शन को बुद्धु बक्सा कहा गया और उसे सरकारी भोंपू पुकारा गया तब जसपाल भट्टी का उल्टा-पुल्टा हास्य प्रोग्राम शुरू किया गया. लोगों का मनोरंजन खूब हुआ लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला. आज भी कुछ वैसा ही है. उनकी बातेेंं अतिरंजित हो सकती है लेकिन एकाएक खारिज नहीं किया जा सकता है. 

पत्रकारों को गरियाने वाले, उन्हें गोदी मीडिया कहने वालों से साल 2022 पूछ रहा है कि क्या वे जिस चैनल में हैं, उसकी नीतियों के खिलाफ जा सकते हैं? क्या आप अपनी स्वतंत्र राय रख सकते हैं? शायद इन लोगों ने शशि कपूर अभिनीत फिल्म ‘न्यू देहली टाइम्स’ नहीं देखा है. एक बार देखिये कि चौथे स्तंभ और राजनीति में जब गठजोड़ होता है तो पत्रकार कैसे मरता है. उस दर्द को महसूस करिये कि मेहनत से लिखी गई आपकी खबर समझौते की भेंट चढ़ जाती है. कभी गौर से उन प्रोग्राम को जरूर देखिये जिसमें सरकार के पक्ष में तो एंकर चिल्लाता है लेकिन इस चिल्ल-पों के बीच एक वाक्य ठोंक भी देता है. इस एक वाक्य को हम जानबूझकर अनदेखा कर देते हैं. सवाल यह भी है कि जब आप किसी चैनल या अखबार की कमान सम्हालते हैं तो क्या आप उनकी नीतियों को आगे बढ़ाते हैं या उनके ही खिलाफ खड़े हो जाते हैं? यह दौर भी था कभी लेकिन अखबारों में. टेलीविजन इंडस्ट्री में ऐसी कल्पना करना भी बेमानी है. आखिरकार लाखों की सेलरी और करोड़ों का इंवेस्टमेट्स का मेंटनेंस कैसे होगा? ये सब बातें हैं बातों का क्या?  

सबसे दुखद और डरावना पक्ष यह है कि 2022 और इसके पहले के वर्ष के मीडिया के चरित्र और व्यवहार को देखें तो मीडिया में आने वाले नए विद्यार्थियों को देखकर डर लगने लगता है. वे मानस बनाकर आ रहे हैं. उन्हें इसी मानस के साथ पढ़ाया जा रहा है. कोई चार दशक पहले जब हमने पत्रकारिता का ककहरा सीखना शुरू किया था तब पत्रकारिता का अर्थ था समाज की समस्याओं से रूबरू होना. किसी दुखी-पीडि़त पक्ष को न्याय दिलाना. तब हमें बताया गया था कि सभा-सम्मेलन में जाएं तो यह अपेक्षा ना करें कि विशिष्ठ मेहमान के रूप में आपकी आवभगत की जाए बल्कि आपको एक गिलास पानी के लिए भी ना पूछा जाए तो दुखी ना होइए. आज दौर उल्टा है. मीडिया से होने का अर्थ बताया जा रहा है कि आप विशिष्ट हैं और आपका आवभगत करना आयोजकों का नैतिक दायित्व है. ये जो पीढ़ी पराढकरजी, विद्यार्थीजी, माखनलाल चतुर्वेदी, तिलक, भगतसिंह, गांधी को पढक़र तो आ रही है लेकिन इनके आदर्श 2022 में रूपक मर्डोक हो गए हैं. पत्रकारिता दिल्ली नहीं देहात से शुरू होती है और मीडिया दिल्ली से शुरू होकर देहात तक जाती है. लेकिन 2022 ने दिल्ली की पत्रकारिता को ही माइलस्टोन बना दिया.

रूखे-सूखे और मुझ जैसे दीन-हीन पत्रकार के लिए पीटर भाटिया एक उम्मीद की तरह मेरे सामने हैं जो अपने साथियों की नौकरी बचाने के लिए खुद की नौकरी को दांव पर लगा देते हैं. अमेरिका के प्रमुख प्रकाशन ‘डेट्रायट फ्री प्रेस’ के सम्पादक और उपाध्यक्ष भाटिया ने इसलिये नौकरी छोडऩे का फैसला किया कि उन्हें जितनी सेलरी मिलती है, उससे दस साथियों की नौकरी बच सकती है. मीडिया कहें या पत्रकारिता क्या भारत में ऐसा कोई नायक सामने आएगा जो अपने साथियों की नौकरी की खातिर अपनी नौकरी दांव पर लगा दे? यू ट्यूब पर हिट्स, लाईक और कमाई गिनते बड़े पत्रकारों ने अपनी इस कमाई का कितना हिस्सा कोरोना में बेरोजगार होते साथियों पर खर्च किया, यह सवाल जाते-जाते 2022 पूछ रहा है. इसलिये तो कहता हंू कि आज भी मेरा पसंदीदा रंग काला है.

लेखक शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं

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सम्पादक

डॉ. लीना