जिस वक्त रिपोर्टिंग की ज़रूरत है, .... उस वक्त मीडिया अपने स्टुडियो में बंद है
रवीश कुमार/ “अगर मीडिया नहीं दिखाएगा तो हमें ही पूरे भारत को दिखाना होगा। इसे वायरल करो।“ इस तरह के मैसेज वाले जाने कितने वीडियो देख चुका हूं जिसमें पुलिस लोगों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचा रही है। दुकाने तोड़ रही है। कार और बाइक तोड़ रही है। घरों में घुसकर मारने और गलियों में घुसकर मारने के बहुत सारे वीडियो वायरल हैं। इन्हें देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि मीडिया के नहीं होने से लोगों में कितनी बेचैनी फैली हुई है। जबकि मीडिया का काम है कि वह सभी सूचनाओं को वेरिफाई कर लोगों को बता दे मगर जिन जगहों से ये वीडियो आ रहे हैं उनकी कहीं कोई रिपोर्टिंग नहीं हैं।
यह मीडिया ब्रेकडाउन है। आपने लॉ एंड ऑर्डर ब्रेकडाउन सुना होगा। भारत में लॉ एंड आर्डर जितना ब्रेक डाउन कर जाए, मीडिया ब्रेकडाउन कभी नहीं करता था। पत्रकार, वीडियोग्राफर और फोटोग्राफर तीनों ऐसे मोर्चों पर होते थे और उनके द्वारा भेजी गईं ख़बरें कहीं न कहीं दिखाई जाती थीं और छापी जाती थीं। ये तीनों अब भी उन हिंसक झड़पों के बीच है लेकिन उनकी ख़बर कही नहीं है। लोगों को अब दिखने लगा है कि मीडिया वहां नहीं है जहां उनके घरों में पुलिस घुस कर मार रही है तो वो खुद से रिकार्ड करने लगे हैं। गलियों में छिप कर पुलिस की हिंसा के बहुत सारे वीडियो रिकार्ड किए गए हैं। लोगों को लगता है कि ये वीडियो मीडिया के पास जाना चाहिए और फिर वे इस पत्रकार से लेकर उस पत्रकार तक वीडियो भेजते रह जाते हैं। भेजते भेजते आपस में भेजने लगते हैं। एक तरह का सर्किल बन जाता है। जिसका बाहरी दुनिया से संपर्क टूट जाता है।
इस स्थिति को मीडिया ब्रेकडाउन कहा जाना चाहिए। मीडिया ब्रेकडाउन के कुछ लक्षण हैं। मीडिया ब्रेक डाउन जनता और मीडिया के बीच ही नहीं हुआ है, मीडिया के भीतर भी हुआ है। पत्रकार और उसके नेटवर्क के बीच भी हुआ है।
हर वीडियो किसी न किसी पत्रकार के पास पहुंच रहा है लेकिन वहां उसे दीवार मिलती है। वह देखता है और फिर डिलिट कर देता है। अपने चैनल या अखबार के व्हाट्स एप ग्रुप में डालता है लेकिन वहां भी कोई जवाब नहीं आता है। रिपोर्टर किनारा कर लेते हैं। मजबूर होकर कुछ पत्रकार अपने इंस्टाग्राम पर डाल रहे हैं या फिर ट्विटर पर पोस्ट कर रहे हैं। लेकिन उस वीडियो को उनका न्यूज़ चैनल या अख़बार अपने ट्विटर हैंडल या इंस्टाग्राम से पोस्ट नहीं करता है। न ही वेरिफाई कर उसकी खबर चलाता है। जबकि पत्रकार और न्यूज़ चैनल दोनों एक दूसरे को फॉलो करते हैं। लोगों ने न्यूज़ चैनलों के ट्विटर हैंडल पर भी ऐसे बहुत सारे वीडियो पोस्ट किए हैं मगर कोई कुछ नहीं कर रहा है।
मीडिया ब्रेकडाउन की स्थिति में लोगों पर ख़ास किस्म का मनोवैज्ञानिक दबाव बनता है। उनकी आशंकाएं और गहरी हो जाती हैं। शनिवार को यूपी के मुज़फ्फरनगर, लखनऊ और बिहार के फुलवारी शरीफ और औरंगाबाद से कई वीडियो आए। लोग पुलिस को घरों और गलियों में घुसते हुए गोलियां चलाते हुए देख आतंकित हुए जा रहे हैं। सरकार सुन नहीं रही है। पुलिस पर भरोसा नहीं है। जब लोगों को मीडिया से जवाब नहीं मिलता है तो वे रिश्तेदारों से लेकर दोस्तों के सर्किल में वीडियो और सूचना को घुमाने लगते हैं। रात रात भर जागने लगते हैं। तरह तरह की आशंकाओं से घिर जाते हैं।
मुज़फ्फरनगर और दिल्ली के दरियागंज को लेकर अचानक रात में कई लोग मैसेज करने लगे कि हमें वकीलों की ज़रूरत है। वकीलों का समूह अपने नंबर के साथ मैसेज करने लगता है कि जिसे भी मदद चाहिए वो हमसे संपर्क करे। कोर्ट में भी एक तरह से भरोसे का ब्रेकडाउन हो गया है। कहीं कहीं वकीलों को भी गिरफ्तार किया गया है। एक मैसेज में यह है कि दिल्ली से किसी संवाददाता को भेज कर मुज़फ्फरनगर के घरों की हालत कवर कराएं तो कोई चाहता है कि संवाददाता लखनऊ के घरों में जाए। मगर कोई नहीं जा रहा है। मीडिया ब्रेक डाउन हो चुका है।
न्यूज़ चैनल क्या कर रहे हैं? इसमें मैं किसी भी चैनल को अपवाद नहीं मानता। सब एक ही तरह के काम कर रहे हैं। डिबेट कर रहे हैं। जिस वक्त रिपोर्टिंग की ज़रूरत है, जाकर देखने की ज़रूरत है कि फिल्ड में पुलिस किस तरह की हिंसा कर रही है, पुलिस की बातों में कितनी सत्यता है, उस वक्त मीडिया अपने स्टुडियो में बंद है। वह सिर्फ पुलिस की बातों को चला रहा है। उसे सत्य मान ले रहा है। जनता ने जिस मीडिया को अपना भरोसा, वक्त और महीने का हज़ार पांच सौ देकर खड़ा किया वह मीडिया उन्हें छोड़ चुका है। उनके हाथ से वो चौथा खंभा निकल चुका है। चैनलों ने डिबेट का तरीका निकाल लिया है।
जो पत्रकार इन प्रदर्शनों को कवर कर रहे हैं उनके साथ भी हिंसा हुई है। इनमें से ज़्यादातर पत्रकार अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। उन्हें मज़हब के कारण भी निशाना बनाया गया है। लखनऊ में द हिन्दू के पत्रकार ओमर राशिद को पुलिस उठा कर ले गई। दो घंटे तक उनके साथ सांप्रदायिक टिप्पणियां की गईं। कमिटी अगेंस्ट असाल्ट ऑन जर्नलिस्ट के अनुसार नागरिकता कानून के विरोध प्रदर्शनों को कवर करते हुए 14 पत्रकार घायल हुए हैं। इनमें से कई पत्रकार अपने जोखिम पर वेब पत्रकारिता करने वाले हैं। शाहीन अब्दुल्ला को जामिया मिल्लिया इस्लामिया की हिंसा के वक्त प्रेस कार्ड दिखाने के बाद भी मारा गया। बीबीसी की पत्रकार बुशरा शेख ने प्रेस कार्ड दिखाया तो भी उन्हें गालियां दी गईं। उनका फोन छीन लिया गया। पल पल न्यूज़ के शारिक़ अदील युसूफ़ भी घायल हो गए। लाठियों से मारा गया। पुलिस ने प्रेस कार्ड ले लिया। फोन तोड़ दिया। फ्री लांस पत्रकार कविश अज़ीज़ ने भी जो मंज़र देखा और भुगता है वो भयावह है। पटना में रिपब्लिक टीवी के पत्रकार प्रकाश सिंह के साथ भी राजद समर्थकों ने धक्का मुक्की की और उन्हें अपना काम करने से रोका। इन सभी पर मीडिया में चुप्पी है।
मीडिया ब्रेकडाउन का एक और लक्षण है। जब मीडिया अपने साथियों के साथ होने वाली हिंसा को लेकर चुप हो जाता है। भीड़ भी पत्रकारों के साथ हिंसा करती है और पुलिस भी। हर जगह लोग मीडिया पर हिंसा नहीं करते हैं लेकिन कई जगहों पर गोदी मीडिया गो बैक के नारे लगे हैं। शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से। जंतर मंतर पर ऐसे नारे खूब लगे हैं।
अजीब स्थिति है। पत्रकार जिस संस्थान में है वो रिपोर्टिंग नहीं करता, जिस संस्थान के लिए रिपोर्टिंग करने जाता है वहां भीड़ से घिर जाता है। यह क्लासिक ब्रेक डाउन है। लोगों का मीडिया से भरोसा टूट गया है और मीडिया अपने मीडिया वालों का भरोसा तोड़ रहा है। जिस तरह एक आम आदमी अखबार या चैनल के सामने लाचार है उसी तरह रिपोर्टर या एंकर अपने संस्थान के भीतर लाचार खड़ा है। सिर्फ उन्हें छोड़ कर जो अपने संस्थान की तरह हो गए हैं। पत्रकार की तरह नहीं रह गए हैं। यानि मीडिया का प्लेटफार्म उनके हाथों में है जिनका काम पत्रकारिता नहीं रहा।
इसी बीच सरकार ने सलाह जारी करती है कि मीडिया ऐसी चीज़ें न दिखाए जिससे राष्ट्रविरोधी ताकतें मज़बूत होती है। कायदे से कहना चाहिए कि मीडिया जनता की आवाज़ दिखाए। आवाज़ न रोके इससे लोकतंत्र में आशंका और हताशा फैलती है। बल्कि कई वीडियो ऐसे आए हैं जिसमें बीजेपी के नेता नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को गोली मारने की बात कर रहे हैं। दिल्ली और कटिहार से ऐसे वीडियो आए हैं। बीजेपी के नेता विरोधियों को कीड़ा कहते हैं। बीजेपी के सांसद जामिया के छात्रों को आतंकवादी कहते हैं लेकिन मीडिया चुप है। उनकी गोली मारने वाली भाषा में राष्ट्र विरोधी गतिविधियां नहीं दिखती हैं। एक तरह से मीडिया पुलिस की हिंसा और सरकार के समर्थकों की हिंसक भाषा के साथ हो चुका है।
यह चुप्पी भयानक है। लोगों के पास वायरल अंतिम विकल्प बचा है। वे सही सूचना की तलाश में वायरल कर रहे हैं। उन्हें एक प्रकार का ज्वर हो गया है। वायरल का एक मतलब ज्वर भी होता है। इसका नाम मीडिया वायरल है। यह बुख़ार की शक्ल में भी हो सकता है और सनक के रूप में भी। यही मीडिया ब्रेकडाउन है।
(रवीश कुमार के फेसबुक वाल से साभार )