Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

मीडिया: दरकते भरोसे को बचाएं कैसे

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी/ हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते समय हम सवालों से घिरे हैं और जवाब नदारद हैं। पं.जुगुलकिशोर शुकुल ने जब 30 मई ,1826 को कोलकाता से उदंत मार्तण्ड की शुरुआत की तो अपने प्रथम संपादकीय में अपनी पत्रकारिता का उद्देश्य लिखते हुए शीर्षक दिया - 'हिंदुस्तानियों के हित के हेत'। यही हमारी पत्रकारिता का मूल्य हमारे पुरखों ने तय किया था। आखिर क्यों हम पर इन दिनों सवालिया निशान लग रहे हैं। हम भटके हैं या समाज बदल गया है?

कुछ  दिनों पहले दिनों, देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक द्वारा आयोजित एक सम्‍मान समारोह में मुख्‍य न्‍यायाधीश श्री डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि यदि किसी देश को लोकतांत्रिक रहना है, तो प्रेस को स्‍वतंत्र रहना चाहिए। जब प्रेस को काम करने से रोका जाता है, तो लोकतंत्र की जीवंतता से समझौता होता है। माननीय मुख्य न्यायाधीश, ऐसा कहने वाली पहली विभूति नहीं हैं। उनसे पहले भी कई बार कई प्रमुख हस्तियां प्रेस और मीडिया की स्‍वतंत्रता को लेकर मिलते-जुलते विचार सार्वजनिक रूप से अभिव्‍यक्‍त कर चुकी हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्‍तम्‍भ कहा जाता है, तो वह अकारण नहीं है। उसने समय-समय पर लोकतांत्रिक मूल्‍यों और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए बहुत काम किया है और इसके लिए बड़ी कीमत भी चुकाई है। इसके बदले उसे समाज का, लोगों का भरपूर विश्‍वास और सम्‍मान भी हासिल हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से बीते दो-तीन दशकों में यह विश्वास लगातार दरकता गया है, सम्‍मान घटता गया है।

मीडिया की इस घटती प्रतिष्‍ठा और विश्‍वसनीयता के पीछे बहुत सारे कारण गिनाये जा सकते हैं। सबसे पहला तो यही है कि उदारीकरण की आंधी से पहले जिस मीडिया ने खुद को एक मिशन बनाए रखा था, उसने व्‍यावसायिकता की चकाचौंध में बहुत तेजी से अपना ‘कॉरपोरेटाइजेशन’ कर लिया और खुद को ‘मिशन’ की बजाए खालिस ‘प्रोफेशन’ बना लिया। अब जब यह प्रोफेशन बना तो इसकी प्राथमिकताएं भी बदल गईं। ‘जन’ की जगह ‘धन’ साध्‍य बन गया। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के चक्‍कर में मीडिया प्रतिष्‍ठानों ने अपने तौर-तरीके पूरी तरह बदल लिए। ‘कंटेंट’ की बजाय उन्‍होंने ‘आइटम’ पर ज्‍यादा ध्‍यान देना शुरू कर दिया, ताकि रीडरशिप और टीआरपी में ज्‍यादा से ज्‍यादा ऊंचाई पर पहुंचा जा सके। जितनी ज्‍यादा ऊंचाई, उतना ज्‍यादा विज्ञापन राजस्‍व। उसमें भी भारी घालमेल। अधिकतर अखबार और टीवी चैनल, सामग्री की गुणवत्‍ता की बजाए आंकड़ों की बाजीगरी में अधिक भरोसा करने लगे। लेकिन, या तो उन्‍होंने इस पर ध्‍यान नहीं दिया, या फिर परवाह नहीं की, कि इस पूरे चक्र में वे समाज और लोगों का भरोसा खो रहे हैं।

अब स्थिति यह है कि मीडिया तो लगातार विस्‍तार कर रहा है, लेकिन लोगों में उसकी विश्‍वसनीयता लगातार कम हो रही है। आज मीडिया के बहुत सारे रूप हैं। मनोरंजन को छोड़ दीजिए, तो रेडियो ज्‍यादा लोग सुनते नहीं, टीवी देखते नहीं, अखबार पढ़ते नहीं… अगर यह सब करते भी हैं, तो ये माध्‍यम उनके मन में कोई सकारात्‍मकता जगा पाने में सफल नहीं हो पाते। जबकि कालांतर में ऐसे असंख्‍य अवसर आए हैं, जब मीडिया ने अपने सामाजिक और लोकतांत्रिक दायित्‍वों का भली-भांति निर्वहन किया है। विश्‍वसनीयता के मामले में पत्रकारिता को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक, 21 वीं सदी के आरंभ से पहले की पत्रकारिता और दूसरी इसके बाद की पत्रकारिता। पहले वर्ग में वह पत्रकारिता आती है जो समाज के लिए जयप्रकाश नारायण और विश्‍वनाथ प्रताप सिंह जैसे नायकों को मजबूती प्रदान करती थी, भ्रष्‍टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती थी, जनहित के लिए सत्ता की नाक में दम किए रहती थी। दूसरी पत्रकारिता वर्ष 2000 से बाद की पत्रकारिता है, जिसमें सनसनी है, स्टिंग हैं, मीडिया ट्रायल हैं, टीआरपी है, प्रायोजित यात्राएं हैं, निहित स्‍वार्थ हैं। अगर कुछ नहीं है, तो समाज का विश्‍वास। अब कोई मीडिया की ओर नहीं देखता। लोग उससे कोई उम्‍मीद नहीं रखते, उस पर भरोसा नहीं करते। उनके लिए मीडिया पर प्रसारित सामग्री मनोरंजन की चीज बन चुकी है। हालांकि अखबार अभी इस स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ इसी राह पर रहे हैं।

इसकी दूसरी वजह पिछले दस-पंद्रह सालों में वै‍कल्पिक मीडिया, या डिजिटल मीडिया, का दिनोंदिन फैलता फलक हो सकती है। वैकल्पिक मीडिया ने, आम लोगों को अपनी बात सामने रखने की ऐसी सहूलियत प्रदान की है, जिसने पारंपरिक संचार माध्‍यमों पर उनकी निर्भरता खत्‍म कर दी है। अब वे अपनी समस्‍याएं या चिंताएं लेकर अखबारों-टीवी चैनलों के चक्‍कर नहीं काटते, बल्कि फेसबुक या ट्विटर पर पोस्‍ट करते हैं। क्‍योंकि इनमें उन्‍हें भरोसा रहता है कि अब उनकी बात बिना किसी बाधा या समस्‍या के उन तमाम लोगों तक पहुंच जाएगी, जिन तक पहुंचनी चाहिए। तीसरी वजह, खुद वह समाज है जो मीडिया पर उसकी जिम्‍मेदारी ठीक से न निभाने का दोषारोपण तो करता है, लेकिन कभी किसी संकट के समय उसके साथ खड़ा नजर नहीं आता। ‘रिपोर्टर विदआउट बॉर्डर्स’ के मुताबिक वर्ष 2003 से 2022 तक, दो दशकों के दौरान दुनिया भर में 1668 पत्रकारों की हत्‍या हुई। यानि हर साल करीब 84 पत्रकार। इसके अलावा ‘कमेटी टू प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स’ की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक इस साल एक दिसंबर तक 363 पत्रकारों को गिरफ्तार कर जेल में डाला गया। ‘रिपोर्टर विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट इनकी संख्‍या 533 बताती है। उनकी ताजा रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया भर में पिछले साल 65 पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को बंधक बनाकर रखा गया और 49 लापता हैं।

अब आप याद कीजिए कि क्‍या कहीं आपने किसी देश, शहर या समाज में लोगों को इस बात के लिए इकट्ठा होकर कोई सामाजिक आंदोलन या धरना प्रदर्शन करते देखा है कि अमुक पत्रकार को जेल से रिहा किया जाए, या अमुक पत्रकार के हत्‍यारों को गिरफ्तार किया जाए या अमुक पत्रकार, जिसका अर्से से कोई अता-पता नहीं है, उसका पता लगाया जाए। और तो और, जिन लोगों के हित के लिए पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डाली है, समाज उनके परिवार की मदद के लिए भी कभी खड़ा नजर नहीं आता। वही समाज जो पानी न आने पर सड़कें जाम कर देता है, किसी सैनिक के शहीद होने पर श्रद्धांजलि यात्राएं निकालता है। अपने अधिकारों के लिए या अपने शहीदों के प्रति सम्‍मान प्रदर्शित करने के लिए सड़कों पर आना कतई गलत नहीं है और न ही यहां इसका विरोध किया जा रहा है, बल्कि कहने का आशय यह है कि एक पत्रकार जब अपना फर्ज निभाते हुए मारा जाता है तो उसकी शहादत, उस समाज से भी बदले में कुछ चाहती है,‍ जिसके लिए वह शहादत दी गई। बजाय इसके, हम उसके चरित्र पर सवाल उठाते हैं या उस पर हमले को जायज साबित करने की कोशिश करते हैं। कहने का आशय यह है कि अगर मीडिया और समाज के बीच विश्‍वास मिट रहा है, तो इसके लिए अकेले मीडिया को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आखिर मीडिया भी तो हमारे समाज का ही एक हिस्‍सा है, जैसा समाज हमने बीते कुछ दशकों में बनाया है, उसका असर मीडिया पर न पड़े, यह कैसे मुमकिन है।

इसलिए अगर मीडिया के प्रति लोगों में, समाज में, विश्‍वास की पुनर्बहाली करनी है, तो दोनों स्‍तर पर प्रयास करना आवश्‍यक है…क्‍योंकि ताली एक हाथ से नहीं बजती।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं)

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना