डा. देवाशीष बोस / बांग्लादेश में हो रहे जन जागरण आन्दोलन को भारत की मीडिया नजरअंदाज कर रही है। जबकि नेपाल के जनयुद्ध, श्रीलंका का तमिल आन्दोलन, पाकिस्तान का आतंकी अभियान तथा वर्मा का सैन्यीकरण को भारतीय मीडिया ने महत्वपूर्ण स्थान दिया था। आस पास की गतिविधियों को गौर किये बगैर हम अपनी विदेश नीति तय नहीं सकते हैं। बावजूद भारतीय मीडिया बांग्लादेश की परिघटनाओं से अछूता है।
बांग्लादेश की राजधानी ढ़ाका के शहवाग स्क्वायर में विगत 5 फरवरी से अब तक जनता खास कर युवाओं का हुजूम जमा है। ये आन्दोलनकारी शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगों के समर्थन में डटे हुए हैं। दिन पर दिन भीड़ की तायदात बढ़ती जा रही है। इन आंदोलनकारियों की मांग है कि बांग्लादेश के उदय के समय पाकिस्तान समर्थक युद्धअपराधियों को फांसी देने के अलावा जमाते इस्लामी को अवैद्य घोषित कर उसकी सम्पत्तियों का अधिग्रहण किया जाय। इस आन्दोलन को बांग्लादेश के अधिकाधिक मीडिया का समर्थन प्राप्त है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने आन्दोलन की ब्यापकता को देखते हुए अपना समर्थन प्रदान किया है। बुद्धिजीवि, कलाकार, रचनाकार तथा समाजिक कार्यकत्र्ता भी इसमें शामिल हो गये हैं।
विगत 5 फरवरी 2013 को ढ़ाका के ब्यस्ततम शहवाग स्क्वायर पर पहले सौ ब्लागर उपस्थित हुए। जिनके हाथों के बैनर पर लिखा था-‘यूद्धापराधीदेर राय आमरा मानी ना, कादेर मोल्लार फांसी चाई’। (युद्ध अपराधियों के निर्णय को हम नहीं मानते हैं, कादेर मोल्ला को फांसी दो।) इनके समर्थन में लाखों लोग शरिक हो गये और विश्व के समाजिक आन्दोलनों से इसकी तुलना की जा रही है। आन्दोलन की ब्यापकता के कारण शहवाग स्क्वायर अब ‘प्रजन्म 71’ के नाम से लोकप्रिय हो गया है। इसके पीछे कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। लेकिन अब सभी राजनीतिक दलों का इसे समर्थन प्राप्त है। बीएनपी ने पहले इसका विरोध किया, लेकिन आन्दोलन की मजबूती, ब्यापकता और जनापेक्षा को देखते हुए उसने भी अपना समर्थन दे दिया है।
1971 में बांग्लादेश के उदय का बिरोध तथा पाकिस्तानी फौज के साथ मिलकर संगठित हत्या, अपहरण, बलात्कार और लूट करने वालों के खिलाफ ‘यूद्धअपराधी कानून’ मौजूद है। इसके विचारण के लिए गठित ट्रिब्यूनल में बच्चू रजाकार को मृत्यु दण्ड दिया गया। लेकिन सैकड़ों हत्या और दुष्कर्म के आरोपी कादेर मोल्ला को महज उम्रकैद की सजा देने से युवावर्ग काफी आहत हुए। ब्लागर राजीव अख्तर की टिप्पणी के बाद उसकी हत्या कर दी गयी। ट्रिब्यूनल के इस फैसला के बिरोध में जमाते इस्लामी ने देष में हिंसा का तांडव चलाया। जमात के कुकृत्य के खिलाफ आम लोग स्वतःस्फुर्त आन्दोलित हुए हैं। जिसमें मुक्तियुद्ध नहीं देखने वाले, राष्ट्रीयता से लवरेज बांग्लादेषी तरुण और युवा अधिक शामिल हैं।
बांग्लादेश के उदय तथा मुक्तियुद्ध की कहानी नई पीढ़ी को मालूम है।उन्हें मालूम है कि जमाते इस्लामी, रजाकार, अल बदर तथा अल सम्स के खात्मे के बाद ही मुक्तियुद्ध का अधूरा सपना पूरा हो सकता है। लिहाजा ऐसे तत्वों के लिए फांसी की मांग नई पीढ़ी का नारा बन गया है। बांग्लादेश के तरुण पीढ़ी के लिए यह अस्तित्व की मांग है। वे अपनी राष्ट्रीय चेतना, मुक्तियुद्ध की किंवदन्ति, बुजूर्गों के अनुभव, गुजरे प्रसंग तथा वीरत्व की गाथा को हकिकत में देखना चाहते हैं। इसमें शामिल बूजूर्गों की इच्छा है कि उनके बच्चे मुक्तियुद्ध का इतिहास, मतादर्ष और चेतना के साथ आगे बढ़े। लिहाजा जमाते इस्लामी के हमलों और हत्याओं के खिलाफ आन्दोलनकारियों ने शान्तिपूर्वक जीवन्त आन्दोलन का रुपरेखा तय किया है।
इस बीच जमाते इस्लामी ने राष्ट्रब्यापी हिंसा प्रारम्भ कर दिया है। शहवाग स्क्वायर के आन्दोलन के समर्थन में गठित जनजागरण मंच तथा शहिद मीनार पर तोड़ फोड़ किया और राष्ट्रीय ध्वज को जला कर अपने साम्प्रदायिकता और हिंसक होने का फिर परिचय दिया है। रविवार को मुख्य विपक्षी दल बीएनपी के समर्थन से जमात ने हड़ताल किया। लेकिन बांग्लादेश के लोग जमात के हड़ताल के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। मानिकगंज में पुलिस मुठभेड़ में 4 सशस्त्र जमाती मारे गये। जबकि कक्स बाजार में एक की मौत हुई।शिक्षा संस्थान, दफ्तर, अदालत और बाजार बन्द नहीं हुए। छात्र खासकर युवतियां जमात के हड़ताल के बिरोध में अधिक सक्रिय रही। ब्यापक प्रतिआन्दोलन धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिषील बांग्लादेष का उदय है।
बांग्लादेश का राष्ट्रधर्म इस्लाम है। लेकिन संविधान सभी धर्मों के प्रति आदर रखता है। बांग्लादेश में द्विदलीय राजनीतिक शासन ब्यवस्था हैं। दोनों दल का नजरिया पूंजीवादी है। आवामी लीग का इतिहास जहां जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है वहीं बांग्लादेष नेषनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) का जन्म सेना शासन के अधिन साम्प्रदायिक ताकतों के साथ हुआ था। बीएनपी सरकार में जमाते इस्लामी के दो युद्धअपराधी मंत्री भी हुए थे। मुक्तियुद्ध के आदर्शों से गठित आवामी लीग 1975 में बंगबन्धु शेख मुजीब की हत्या के बाद अपने प्रारंभिक आदर्शों से मुंह मोड़ लिया और वोट के खातिर जमाते इस्लामी सहित अन्य साम्प्रदायिक ताकतों को सहयोग दिया था। अब यक्ष प्रष्न है कि इस आन्दोलन के अभिघात से राजनीतिक दलों की नजरिया बदलेगी ?
युद्ध अपराधियों के मसले पर विपक्षी बीएनपी सावधान है और सत्तारुढ़ आवामी लीग दृढ़ दिखती है। यह जनांदोलन बांग्लादेश के आगामी चुनाव को प्रभावित करेगा। जनांकाक्षा के अनुरुप बीएनपी अगर धर्मनिरपेक्ष होकर युद्ध अपराधियों के संदर्भ में अपनी नजरिया बदलती है और जमाते इस्लामी का साथ छोड़ देती है तो देश में स्थिरता आयेगी तथा जमाते इस्लामी कमजोर होगी। तत्पश्चात बांग्लादेश की नई पीढ़ी का सपना साकार हो सकेगा। युद्ध अपराधियों के संदर्भ में भारत का रुख साफ है। लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान तथा सउदी अरब का रुख बांग्लादेश में मायने रखता है। बावजूद इसके नई पीढ़ी के इस आन्दोलन ने चार दषकों से ‘अपहृत’ बांग्लादेश को बरामद कर लिया है। लेकिन पड़ोस की इस बड़ी घटना से भारतीय मीडिया अपनी नजर मूंदे बैठी है।
(ये लेखक के अपने विचार है। लेखक बांग्लादेश के जानकार हैं।
सम्पर्क-डा. देवाशीष बोस, नेताजी सुभाष पथ, मधेपुरा (बिहार), पिन-852113
दूरध्वनि-06476 222244, चलभाष-9431254951, 9304427044