पिछले दस दिनों की बहसों का क्या हासिल ?
रवीश कुमार/ चारों तरफ बहसों की भीड़ लगी है । जो जिधर से आ रहा है, मुद्दा लिये आ रहा है । एक मुद्दा उठता है, उससे कुछ सवाल उठते हैं फिर जवाब में एक दूसरा मुद्दा आता है और फिर नए सवाल उठते हैं । इस तरह दो दोस्त बहस करते हुए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से दिल्ली विश्विद्यालय पहुँच जाते हैं । भूल जाते हैं कि बहस किस बात को लेकर थी ।ऐसे ही तो हम सब बचपने में भटका करते थे, ऐसे ही तो हम आज भी भटक रहे हैं । जनता को भरमाने की नित नई नई कलाओं का प्रदर्शन हो रहा है। वक़्ता की उग्र शैली जवाब है । तथ्यों को भाव भंगिमाओं से विस्थापित किया जा रहा है ।
पिछले दस दिनों की बहसों का क्या हासिल हुआ ? क्या कोई मुकम्मल जवाब मिला ? पता ही नहीं चला कि कब राष्ट्रवाद पर बहस हो रही है, कब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस हो रही है । कब राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ पर तो कब रोहित वेमुला पर बहस हो रही है । जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में लगे नारे पर बहस के बीच महिषासुर और माँ दुर्गा का मसला आ जाता है तो देशद्रोह के आरोप की बहस में साठ के दशक का उदाहरण दिया जाने लगता । कोई ओर छोर नहीं । लग रहा है कि सब खिचड़ी पका रहे हैं । कोई दाल डाल दे रहा है तो कोई आकर हल्दी । जैसे ही खिचड़ी पकने वाली होती है कोई एक मुट्ठी मिर्च झोंक जाता है । लिहाज़ा हम कभी पानी तो कभी नमक डाल कर फिर से खिचड़ी पकाने लगते हैं ।
ये बहसें हमारे सार्वजनिक जीवन के पतन की निशानी हैं । संस्थाओं का पतन न हुआ होता तो इतने सारे सवालों की जरूरत नहीं पड़ती । वाइस चांसलर की संस्था का विकल्प सोच लिया जाना चाहिए । अगर इसे राजनीतिक हस्तक्षेप में ही काम करना है तो राज्यपाल व्यवस्था समाप्त करने की चर्चा की तरह वाइस चांसलर का पद समाप्त करने पर बहस होनी चाहिए । वाइस चांसलर की व्यवस्था फालतू हो चुकी है ।पहले से ही वीसी व्यवस्था लचर होती चली आ रही है । वीसी का काम विश्वविद्यालयों के भीतर गिरोहों को शह देना रह गया है । वीसी खुद गिरोहों के उत्पाद होते हैं ।
हम दो चार विश्वविद्यालयों के वीसी की तो चर्चा कर लेते हैं लेकिन क्या हमें पता है कि बाकी तमाम वीसी क्या कर रहे हैं । किसी को भनक तक नहीं है । विश्वविद्यालयों के भीतर विभागों में भी तरह तरह के गिरोह चल रहे है । तदर्थ शिक्षकों को तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता है । उनके साथ अमानवीय व्यवहार होता है । नियुक्ति की कोई पेशेवर व्यवस्था नहीं है । ये काम आज बीजेपी पर सवाल करने वाली कांग्रेस के ज़माने में भी खूब हुआ , बीजेपी के ज़माने में भी वही चल रहा है । कपिल सिब्ब्ल के काम की समीक्षा स्मृति ईरानी से ज्यादा होनी चाहिए । क्या डीयू के वीसी ने उनके समय में मनमानी नहीं की ?
वही हाल थाना पुलिस का है । लोकसभा चुनाव से पहले दो चार लोग थे । वे हर बात पर पुलिस सुधार की चर्चा करते थे । अब वही नहीं सब चुप है । अगर पुलिस की व्यवस्था पेशेवर की गई होती तो हम बात बात में एफ आई आर को लेकर संसद तक न पहुँचते । संस्थाएँ जैसी पहले थी वैसी ही अभी हैं । कोई सुधार नहीं है । पुलिस आज भी राजनीतिक दल का विस्तार है । कल भी थी ।
ये तमाम मुद्दे बताते हैं कि देश में सारी बहसों का अंतिम मार्ग संसद ही है। वहाँ बोल देने और सुन लेने से समाधान हो जाता है । वहाँ किसी मुद्दे को पहुँचते ही मोक्ष मिल जाता है । लेकिन उन सवालों का सांस्थानिक और संपूर्ण जवाब नहीं मिलता । सिर्फ सवालों को लेकर सब नाचते रहते हैं । मुद्दे मंत्री और विरोधी सांसद के प्रदर्शन का मौका बनकर रह गए हैं । संस्थाओं की विश्वसनीयता जितनी पहले ख़राब थी उतनी आज भी है ।
राजनीतिक दलों की आपसी कटुता बढ़ती जा रही है । नेता एक दूसरे की हैसियत बता रहे हैं । एक दूसरे पर चीख़ रहे है। यह कितना दुखद है । किसी भी बहस में दो दल के नेता मुस्कुराते हुए एक दूसरे को संबोधित नहीं करते । सोशल मीडिया के ज़रिये बेइंतहा कटुता ज़मीन पर भी पहुँचाई जा रही है । जिसे देखिये वो अपने मुद्दे को लेकर तनाव में है । भूल गया है कि वो ख़ुद इसका शिकार हो रहा है । समाज के स्तर पर बँटवारा किया जा रहा है । पक्ष विपक्ष के भाषणों और दलीलों में नौटंकी और नफरत का अतिरेक है ।
इशरत का मसला आता है तो परोक्ष रूप से हिन्दू बनाम मुसलमान होने लगता है । महिषासुर का मसला आता है तो दलित पिछड़ा बनाम अपर कास्ट होने लगता है । राष्ट्रवाद के मसले पर भी दो खेमे बन जाते हैं । मुज़फ़्फ़रनगर में जाट अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए तो हरियाणा में जाटों की हिंसा के खिलाफ दूसरे समाज के लोग गोलबंद होकर नारे लगा रहे हैं । दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़े की जाट एकता कमजोर हो रही है जैसे जाटों और मुसलमानों का पुराना रिश्ता कमज़ोर हो गया ।
आज जाट इस खेल में कहीं के नहीं रहे । वे पहले तथाकथित पराये मुसलमानों से बेगाना होने के खेल का हथियार बने और अब तथाकथित अपनों से बेगाना होने के खेल में फँस गए । नतीजा क्या हुआ । वे भयावह हिंसा पर उतर आए । मुज़फ़्फ़रनगर और रोहतक की हिंसा में कोई अंतर नहीं है । धर्म और समाज के नाम पर हम बंट रहे हैं या एक दूसरे के करीब आ रहे हैं । किसी को परवाह नहीं है ।
सबको सोचना चाहिए । इन बहसों से किसे क्या मिला । जो दल एक दूसरे को हराने के लिए ही बने हैं उन्हे कुश्ती करने के दो चार दिन मिल गए । क्या किसी को जवाब मिला ? कभी मिलेगा ? अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब है । कोई इस मसले पर एक दूसरे को क्यों नहीं घेरता । बुनियादी सुविधाएँ और जीवन स्तर में खास बेहतरी नहीं हुई है इसे लेकर संघर्ष क्यों नहीं है । वो आवाज़ कहाँ गई जिसका काम था असहमतियों को नफ़रत में बदलने से रोकना । कोई है या सब बहस करने चले गए हैं । सब एक दूसरे से नफरत ही करेंगे तो बहस करना एक दिन सबसे बड़ी हिंसा हो जाएगी । हो ही गई है ।
(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)