Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

चूंकि ममता मुलायम नहीं हैं..!

जगमोहन फुटेला / मेरे चहेते अखबार 'इंडियन एक्सप्रेस' के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता ने संपादकीय पेज पर आज एक लंबा चौड़ा लेख लिखा है. बताया है कि कैसे मुलायम सिंह अपनी ज़रूरत और राजनीति के तमाम विरोधाभासों के बावजूद बहुत 'देशभक्त' हैं. खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पे उन के विरोध और साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से रोकने के लिए यूपीए का समर्थन दोनों करते हुए मुलायम सिंह की मानसिकता और राजनीति का सूक्ष्म अध्ययन किया है गुप्ता ने. कहीं न कहीं वे प्रभावित भी हैं कि उन्होंने उन के साथ एक बार फोन पे हो गई बदमज़गी पे सार्वजनिक रूप से खेद जताया था.
बहरहाल, शेखर गुप्ता एक सम्मानित पत्रकार हैं और अपने अनुभवों के आधार पर हक़ है उन्हें किसी के भी बारे में कोई राय रखने का. उनका आकलन ठीक भी है एक तरह से. जो पार्टी कोयला घोटाले पे सरकार की 'विश्वसनीयता' पे प्रश्न उठाए, एफडीआई के मुद्दे पे प्रदेश भर में डंडे और झंडे 
उठाए और अगले चौबीस घंटों के भीतर सरकार को गिरने ने देने का भरोसा दे देती हो उस के नेता मज़ाक नहीं तो महानता का कोई काम तो कर ही रहे हैं. ये उनकी कोई चाल भी हो सकती है. सीबीआई से बचने की या जिस दिन मतदान होगा संसद में उस दिन देख लेने की. लेकिन ये बात सोलहों आने ठीक है शेखर की कि मुलायम कुछ भी जल्दबाजी में और सोचे समझे बिना नहीं करते. बहुत विस्तार से बताया है उन्होंने कि कैसे उनके व्यवहार में ठहराव होता है और सम्बन्ध तो कभी उन्होंने उस भाजपा के नेताओं से भी नहीं बिगाड़े जिस का विरोध ही दरअसल उनकी राजनीति की ताकत है. कम्युनिस्टों की तरह एक मंच पर उनके साथ दिखे बिना.
ये ठीक बात है. आकलन एक दम सही. राजनीति विरोध से तो चलती है, बैर से नहीं चलनी चाहिए. मुलायम सिंह के मामले में तो वो विरोधाभास से भी चल जाती है. मसलन 
सारी दुनिया के मुसलमानों में अप्रिय अमेरिका उन्हें नहीं चाहिए. लेकिन उस के साथ परमाणु संधि में क्या गलत है? खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी नहीं चाहिए मगर वो ले के आने वाली सरकार को बचाने में क्या हर्ज़ है?
ये ठीक है कि मुलायम ममता नहीं हैं. जैसे ये कि ममता भी मुलायम नहीं हैं. जैसे ये भी ठीक है कि ममता की मुलायम जैसी मजबूरियाँ भी नहीं हैं. ममता के खिलाफ सीबीआई का कोई केस नहीं है. न उन्हें कोई ज़रूरत उसको सरकार की मदद से सीधा करने की. न कोई बेटा ही है उनका राजनीति या सत्ता में कि जिस के सर पे उन्हें अपने बाद किसी बड़े का हाथ चाहिए हो!...इन सच्चाइयों के बीच एक कटु सत्य ये भी तो है ही न कि किसी के भी फैसले उसके हालात और मजबूरियों के मुताबिक़ होते हैं. मुलायम की सुवि
धा ये भी है कि उनकी चतुराई को उनका वोटबैंक या तो समझता नहीं है. समझता भी है तो जो कभी वैसे भी नहीं आना उस मोदी के आ जाने के डर से खामोश रह जाता है. या वो भी ये मान के चलता है कि कल की कल देखेंगे आज तो अपना उल्लू सीधा करो.
लेकिन ममता की ये दिक्कत नहीं है. उन्हें दरअसल वो सुविधा भी हासिल नहीं है. ममता देश के उस राज्य से हैं जो देश ही नहीं इस दुनिया में शायद सब से सुसंस्कृत और वैचारिक रूप से बहुत समृद्ध प्रांत है. जहां नंगा आदमी भी टैगोर संगीत गुनगुनाता है और जहां अनपढ़ आदमी भी किसी बुद्धिजीवी से कम नहीं होता. मानसिक रूप से इतने जागरूक, विचारवान और प्रतिक्रियावादी भी नहीं होते बंगाली तो राइटर बिल्डिंग कोलकाता में ही नहीं होती. ममता की कमी या पूँजी ये है कि वे अपने प्रदेश के लोगों और उन में भी खासकर बंगालियों को बेवकूफ नहीं बना सकतीं. इस लिए, बल्कि इसी लिए बंगाल में हर किसी राजनेता को अपने सिद्धांतों के साथ टिकना पड़ता है. कामरेड टिके रहे तो तीन दशक राज कर गए. कांग्रेस नहीं टिकी तो आज अपने विधायकों की गिनती गिनने में दोनों हाथों की कुछ उंगलियाँ भी खाली बच रहती हैं. अब ममता हैं तो उन्हें कामरेड और कांग्रेसी दोनों नहीं होना है.
बात राजनीति या कहें कि उस में अस्तित्व की ही नहीं, विश्वसनीयता की भी है. मुलायम के लिए संभव हो तो हो, ममता के लिए संभव नहीं था कि वे एफडीआई का विरोध भी करतीं और सरकार में बनी भी रहतीं. इस लिए भी कि उसका विरोध करना वाले न तो मुलायम सिंह सरकार में हैं, न वे कामरेड जो बंगाल में जीना दूभर कर देते ममता का वैसा कोई दोगलापन दिखाने पर. किसी को बेईमान और इमानदार अगर उस की परिस्थितियाँ भी बनाती हैं तो ममता को इमानदार रहना ही था. अपने मतदाता के साथ धोखेबाजी की सुविधा बंगाल में नहीं है. 
ऊपर से देखने में लग सकता है कि ममता अलग थलग पड़ गईं हैं. लग रहा भी है कि आज राष्ट्रीय स्तर पे वे एनडीए या यूपीए दोनों में से किसी के साथ नहीं हैं और तीसरा चौथा मोर्चा भी कोई है नहीं. लेकिन ये उनकी कमजोरी नहीं ताकत भी हो सकती है. होने को किसी पहले, दूसरे, तीसरे मोर्चे में मायावती भी नहीं हैं, न नवीन पटनायक. 
करुणा और जया भी जहां हों अपनी शर्तों पे होते हैं. सवाल शुचिता का भी है. अपने लोगों के सुख दुःख, उन में अपनी छवि और अपने प्रदेश में ही सही लेकिन अपनी ताकत का. कौन जानता है कल बंगाल के कुल 41 में से 40 उनके हों. आज के अंकगणित में एक अकेली जयाप्रदा भी अगर महत्वपूर्ण हो सकती हैं तो फिर तीस, पैतीस का कोई भी आंकड़ा किसी को भी ममता को महत्त्व देने पे विवश कर सकता है. आज अगर केंद्र में वे किसी के साथ नहीं हैं तो फिर किसी भी मोर्चे के साथ कोई भी तो नहीं है बंगाल में. न ममता किसी के साथ है, न कामरेड. कांग्रेस, भाजपा या कोई मोर्चा वहां है कहाँ. कल जब बहुमत एनडीए, यूपीए किसी के भी पास नहीं होगा तो ममता फिर अपरिहार्य होंगीं.
सो, इस कमजोरी में भी ममता की एक ताकत निहित है. इस अर्थ में ममता ने अगर केंद्र दे के बंगाल में अगर खुद को बचा लिया है तो बहुत बड़ी अकलमंदी की है. जनता तो अपने प्रदेश की ही साथ रहती है तो सत्ता केंद्र की भी आ ही जाती है. लेकिन इन सब सवालों के बीच असल सवाल कहाँ है?..जिस एफडीआई के साथं या खिलाफ होने की वजह से आज ममता अलग और मुलायम साथ हैं और जिस की वजह से प्रधानमंत्री को राष्ट्र के नाम संबोधन करना पड़ रहा है उनकी सरकार का वो कोयला घोटाला कहाँ है, जो एफडीआई के विरोध के बहाने सड़कों पे उमड़ी जनता के उग्र रूप का असल कारण है. अमेरिका, एफडीआई और साम्प्रदायिक ताकतों के 
सत्ता में आने की बात छोडो. ये तो बताओ कि कोयला घोटाले की सुप्रीम कोर्ट के जज से जांच और वो न हो तो 'घोटालों से लथपथ' इस सरकार से निजात अब क्यों नहीं चाहिए आपको मुलायम सिंह जी? कोयला घोटाले की उनकी वो कालिख आप अपने चेहरे पे पोत लेने पर क्यों आमादा हो जिस से ममता साफ़ बच निकलीं हैं?
हाँ, ममता और मुलायम होने में फर्क तो है..!!
 ( ये लेखक के निजी विचार हैं )
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और www.journalistcommunity.com के संपादक हैं.

 

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना