लिमटी खरे/ कानून और व्यवस्था की स्थिति निर्मित होने की आशंकाओं को देखकर धारा 144 को लागू करना लाजिमी है पर लंबे समय तक इस धारा का प्रयोग कैसे किया जा सकता है! देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस बारे में ऐतराज जताते हुए कहा है कि सीआरपीसी की धारा 144 (निषेधाज्ञा) को लंबे समय या अनिश्चित काल के लिए प्रभावी कतई नहीं किया जा सकता है। इसके लिए कम से कम एक सप्ताह में हालातों की समीक्षा किया जाना चाहिए। शीर्ष अदालत का ने कहा है कि सायबर युग में इंटरनेट को अभिव्यक्ति की आजादी का मूल हिस्सा माना जा सकता है। इसलिए लंबे समय तक लोगों को इससे दूर नहीं रखा जा सकता है। कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि लोकतंत्र के दायरे में रहकर विरोध, प्रतिरोध, असहमति जाहिर करने पर प्रतिबंध लगाने के लिए निषेधाज्ञा का मनमाना उपयोग नहीं ही किया जा सकता है।
देश भर में कहीं भी जरा सी भी विरोध की फुसफुसाहट होती है तो हुक्मरान और नौकरशाहों के द्वारा बिना देर किए धारा 144 लागू करते हुए सबसे पहले सोशल मीडिया को इसकी जद में ला दिया जाता है। इस दौरान यह कहा जाता है कि सोशल मीडिया पर भडकाऊ पोस्ट डालने पर कानूनी कार्यवाही की जाएगी। वैसे भी अगर सोशल मीडिया पर किसी तरह की आपत्तिजनक चीजें परोसी जाती हैं तो वह कानूनी कार्यवाही के दायरे में ही आती हैं। सरकारों या नौकरशाहों के द्वारा यह दलील दी जाती है कि इंटरनेट या सोशल मीडिया पर अफवाहों के नियंत्रण के लिए यह आवश्यक है।
देश की शीर्ष अदालत के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 में वर्णित व्याख्या के तहत इंटरनेट को भी अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में मान्य किया है। इसके लिए कोर्ट ने एक सप्ताह में समीक्षा के निर्देश दिए हैं। शीर्ष अदालत के इस तरह के निर्देश देश में न्याय पालिका की स्वतंत्रता की छवि को काफी हद तक पुख्ता किया है। इसके पहले सितंबर में केरल उच्च न्यायालय के द्वारा इंटरनेट को मौलिक अधिकार बताया गया था। इंटरनेट बंद करने के मामले में भारत देश दुनिया भर में सबसे आगे ही दिखता है।
काश्मीर क्षेत्र में पिछले साल अगस्त से ही इंटरनेट सेवाएं बाधित हैं। लगभग छः माह बाद शीर्ष अदालत के फैसले से केंद्र सरकार के कदमों को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। शीर्ष अदालत का यह फैसला भले ही जम्मू काश्मीर क्षेत्र के लिए दिया गया हो पर इसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ेगा। आने वाले समय में इन निर्देशों के प्रकाश में जिला या संभाग स्तर पर नौकरशाहों के द्वारा समय समय पर लगाई जाने वाली पाबंदियों से भी छुटकारा मिलने की उम्मीद की जा सकती है। इन निर्देशों से देश के नागरिकों के मूल अधिकारों को नए दौर और नई विकसित होने वाली तकनीकों से भी जोड़कर देखने की परंपरा का आगाज होगा।
यह सच है कि इक्कसवीं सदी में इंटरनेट का चलन देश में तेजी से बढ़ा है इक्कीसवंीं सदी के दूसरे दशक विशेषकर ट्वंटी ट्वंटी (2020) के आगाज के साथ ही इंटरनेट, स्मार्ट फोन, सोशल मीडिया आदि के बिना किसी भी पल की कल्पना बेमानी ही प्रतीत होती है। इस सबके बिना दिनचर्या अधूरी ही प्रतीत होती है। आज इंटरनेट जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। यह केवल मनोरंजन का साधन नहीं बचा है, इस पर निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। एक दूसरे तक पल भर में संदेश भेजना हो, फोटो, वीडियो शेयर करने हों या लेनदेन करना हो, सभी कामों के लिए इंटरनेट की ओर ही लोग ताकते नजर आते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए फैसले से एक बात और आईने के मानिंद साफ हो गई है कि आज के दौड़ते भागते युग में इंटरनेट मनुष्य की जरूरत इस कदर बन चुका है कि यह लोगों के लिए आधार बिंदु में तब्दील हो चुका है। इंटरनेट की सेवाएं अगर कुछ मिनिटों के लिए बाधित हो जाती हैं तो लोग बिना पानी की मछली के मानिंद तड़प उठते हैं। अगर आप कहीं जा रहे हैं और बीच में मोबाईल सिग्नल न मिलें या डाऊनलोड करते समय गोल गोल घूमता चक्र दिखाई दे तो आपको कैसा अनुभव होता है . . .!
इंटरनेट पर बंदिश के संदर्भ में शीर्ष अदालत के निर्देशों से इंटरनेट को नई मान्यता जरूर मिल जाएगी, किन्तु इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसके प्रयोग पर प्रतिबंध नही लगाए जा सकते हैं। सामाजिक वर्जनाओं, देश की अस्मिता, नैतिकता, सुरक्षा, आपसी सौहाद्र आदि को देखते हुए अभी भी संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत इस पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। अब इंटरनेट की सेवाएं ठप्प करने के पहले शासन प्रशासन को इसके लिए ठोस वजहें बताना जरूरी होगा। अब सरकारें या प्रशासन के द्वारा इंटरनेट के प्रयोग पर मनचाही रोक नहीं लगाई जा सकेंगी। अगर ऐसा हुआ तो देश की अदालतों में इस फैसले के प्रकाश में चुनौति दी जा सकेगी।
आज के युग में अखबारों, चेनल्स से ज्यादा ताकतवर होकर उभरा है सोशल मीडिया। 2009 में जब हमने समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया की शुरूआत की थी तबसे अब तक सोशल मीडिया के प्रभावों को ऊगते सूरज की तरह ही हमने पाया है। आज समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के लिंक्स को सोशल मीडिया पर यहां से वहां तैरते हम खुद देख रहे हैं। जिसके काम का जो लिंक होता है, वह उस लिंक को उठाकर उन समूहों में भेज देता है, जिन समूहों का वह अंग होता है। इस तरह सोशल मीडिया के जरिए समाचार संप्रेषण की गति अखबारों ओर चेनल्स से कहीं ज्यादा दिखाई दे रही है। आने वाले दिनों में अगर प्रिंट के बजाए ईपेपर को सरकारों के ंद्वारा मान्यता दे दी जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कमोबेश यही आलम इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी दिखाई दे रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के समानांतर ही अब छोटे छोटे वीडियो भी सोशल मीडिया पर डल रहे हैं, जो जमकर वायरल हो रहे हैं।
आज के युग में इंटरनेट एक बहुत ही प्रभावी संचार माघ्यम बनकर उभर चुका है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। देश की शीर्ष अदालत के फैसले से भी यही बात साफ हुई है कि इंटरनेट आज वेश्विक स्तर पर बहुत ही ज्यादा प्रभावी हो चुका है। आने वाले दिनों में शीर्ष अदालत का यह फैसला एक नज़ीर बन जाएगा, उसके बाद सरकारों को इंटरनेट बंद करने के हथियार का प्रयोग बहुत ही सावधानी के साथ करने पर मजबूर होना पड़ेगा।
यह बात भी उतनी ही सही है जितनी कि दिन और रात कि घाटी में इंटरनेट सेवाएं बहाल होने के साथ ही इसका बेजा फायदा उठाने की कोशिश अलगाववादी, आतंकवादी और असामाजिक तत्व जरूर करेंगे। इस बात की आशंका तो सदा ही बनी रहती आई है और रहेगी भी, पर अब यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह किस तरह से घाटी में इंटरनेट की बहाली करते हुए लोगों को माकूल सुरक्षित माहौल देने के मार्ग प्रशस्त करती है। कुछ सालों पहले तक जम्मू काश्मीर में सिर्फ पोस्टपेड मोबाईल ही चला करते थे। इसके लिए देश भर में मोबाईल की सिम देने के लिए पूरी तरह चाक चौबंद और पारदर्शी तरीका अपनाए जाने की आवश्यकता है, जिसके जरिए फेक नामों से ली जाने वाली मोबाईल सिम पर प्रतिबंध लग सके। वैसे अदालत के फैसले से एक बात और उभरकर सामने आ रही है कि इस तरह इंटरनेट सेवाओं को बाधित करने से एक बड़ी आबादी को बुनियादी सुविधा से वंचित रखना एक तरह से लोकतंत्र की मान्य परंपराओं के खिलाफ ही है।
(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.) (साई फीचर्स)