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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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अंबेडकर की पत्रकारिता

(‘मूकनायक’ के सौ साल- 31 जनवरी, 2020 पर विशेष)

डॉ. विद्या शंकर विभूति/ डॉ.भीमराव अंबेडकर प्रशिक्षित अर्थशास्त्री एवं बैरिस्टर थे, पत्रकारिता से उनका कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन काल और परिस्थितियों की वजह से उन्हें इस क्षेत्र में आना पड़ा। यों मराठी दलित पत्रिका का इतिहास 1866 से शुरू होता है और सेना से सेवानिवृत्त गोपालबाबा वलंगकर को पहला दलित पत्रकार माना जाता है क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले ‘विटाल विध्वंसन’ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जो उनके लेखों का संग्रह है। उसी प्रकार शिवराम जानबा कांबले को पहला संपादक माना जाता है, जिन्होंने 1868 में ‘सोमवंशीय मित्र’ नामक पहली दलित पत्रिका की शुरूआत की थी। बाद में किसन फागू बनसोड़े ने ‘निराश्रित हिंद नागरिक’ (1910), ‘विटाल विध्वंसन’ (1913) और ‘मजदूर पत्रिका’ (1918) का संपादन किया, लेकिन मुख्यतः अर्थाभाव के कारण ये सभी साल, दो साल में बंद हो गई। ज्योतिबा फूले के अनुयायी होने के कारण इन्होंने समाज को जगाने की कोशिश की, बुनियादी परिवर्तन की वकालत की, लेकिन दलितों में शिक्षानुपात कम होने के कारण उनकी पहुंच नहीं बन पाई और सवर्ण ने न इसे पढ़ा और न खरीदा।

इस पृष्ठभूमि पर ही डॉ.अंबेडकर ने 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ निकालने का निर्णय लिया। इसका कारण दलित प्रश्नों को वृहद् समाज के सम्मुख रखना तो था ही, दलित समाज को भी विचार प्रवृत्त करना था, बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी सत्ता का ध्यान भी इन प्रश्नों की ओर आकृष्ट करना था। ‘मूकनायक’ के प्रकाशन हेतु शाहू महाराज ने उस समय रूपये 2500/- की सहायता की थी। चूँकि उस समय डॉ.अंबेडकर मुम्बई के सिडनहेम कॉलेज में प्राध्यापक थे, सरकारी सेवा में थे, इसीलिए उन्होंने संपादन के रूप में पांडुरंग नंदराय भटकर का नाम डाला। ‘मूकनायक’ पाक्षिक होकर शनिवार को प्रकाशित होता था और इसका पंजीयन क्रमांक बी-430 था, शीर्षक के दायीं ओर विज्ञापन की दरें और बायीं ओर वार्षिक शुल्क तथा फुटकर अंक का दाम दिया जाता था। इसके कार्यालय का पता - हरारवाला बिल्डिंग, डॉ.. बाटलीवाला रोड़, पोपबावड़ी, परेल, मुम्बई था। इसके प्रथम पृष्ठ पर संत तुकाराम के अभंग की दो पंक्तियां दी गई थी -

      ‘‘काय करूं आता धरूनिया भीड़, निःशंक है तोड़ू वाजविले।

      नव्हे जगी कोणी मुकियाचे जगणे, सार्थक लागुन नव्हे हित।’’

      (अब संकोच करने का कोई कारण नहीं है। अब निःशंक होकर बात करूंगा। मूक होकर जीने में कोई मतलब नहीं है, लाज-संकोच से किसी का हित नहीं होता।)

‘मूकनायक’ जब शुरू हुआ, तब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपादकत्व में ‘केसरी’ दैनिक का प्रकाशन होता था। जब ‘मूकनायक’ के पहले अंक को ‘केसरी’ को भेजा गया, तब उन्होंने न इसकी प्राप्ति की सूचना दी, न अपने प्रकाशन में इसका उल्लेख किया और तो और विज्ञापन हेतु आवश्यक पैसे/रकम देने की सूचना के बावजूद ‘केसरी’ में ‘मूकनायक’ का विज्ञापन नहीं छापा। डॉ.अंबेडकर ने इसका जिक्र ‘बहिष्कृत भारत’ के एक अंक में किया।(1) उन्होंने माना था कि बहिष्कृत लोगों पर हो रहे अन्याय पर उपाय सुझाने और उनकी उन्नति के मार्गों की चर्चा हेतु पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है। (2) ‘मूकनायक’ के प्रथम अंक में जो 31 जनवरी, 1920 को प्रकाशित हुआ के ‘मनोगत स्तंभ’ के अंतर्गत उन्होंने हिन्दू समाज व्यवस्था का मौलिक विश्लेषण किया- ‘‘हिन्दू समाज व्यवस्था एक मीनार की तरह है। इस मीनार की सीढ़ी (नसैनी) ही नहीं है और इसी कारण एक तल्ले से दूसरे तल्ले पर जाने के लिए यहां रास्ता ही नहीं है। जिस तल्ले में जिसका जन्म होता है, वही उसे मरना पड़ता है। नीचे के तल्ले का व्यक्ति कितना भी योग्य हो, उसे ऊपर के तल्ले पर प्रवेश नहीं और ऊपर के तल्ले का व्यक्ति कितना भी नालायक हो, तो उसे नीचे के तल्ले मंे भेज देने की किसी की हिम्मत नहीं। स्पष्ट शब्दों में बोलना हो, तो जाति- जाति में ये जो उच्च और नीच की भावना है, वह गुणावगुणों की नींव पर नहीं हुई है। उच्च जाति में जिसने जन्म लिया है वह कितना भी अवगुणी हो, तो भी वह उच्च ही कहलाएगा और नीच जाति में जिसका जन्म हुआ है, वह कितना भी गुण संपन्न हो, तो वह नीच ही कहलाएगा।’’(3)

‘मूकनायक’ का दूसरा अंक 14 फरवरी, 1920 को निकला, जिसमें डॉ.. अंबेडकर का लेख ‘स्वराज्याची सर सुराज्याला येणार नाही’ छपा, जिसका हिन्दी में अर्थ है ‘सुराज्य की तुलना में स्वराज्य अधिक श्रेष्ठ होता है।’ अंबेडकर के इस लेख से भ्रम टूटता है कि वे ब्रिटिशपरस्त थे और स्वतंत्रता आंदोलन के विरोधी थे। इस अंक के ‘विविध विचार’ स्तंभ के समकालीन समाचारों में बहुजन अथवा सवर्णेत्तरों से संबंधित समाचारों को अधिक महत्व दिया गया है। इस अंक में तत्कालीन अन्य पत्रिकाओं में छपे महत्वपूर्ण अंग्रेजी लेखों का मराठी अनुवाद कर पाठकों को उपलब्ध कराया गया है। इसमें पहली बार दो विज्ञापन भी छापा गया है।

‘मूकनायक’ का तीसरा अंक 28 फरवरी, 1920 को प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने अपने लेख में आशंका जाहिर की कि ‘स्वराज्य में अगर सत्ता सुख कुछ विशिष्ट लोगों के हाथों में जा रही हो, तो इसे ‘स्वराज्य’ कैसे कहेंगे ?’ उन्होंने नागरिक को भी परिभाषित किया है कि नागरिक वह है, जिसे निम्न अधिकार प्राप्त हो - 1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता, 2. व्यक्तिगत सुरक्षा, 3. व्यक्तिगत संपत्ति रखने का अधिकार, 4. कानून की दृष्टि से सभी में समानता, 5. सद्बुद्धि अर्थात् विवेक के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता, 6. सभा लेने की स्वतंत्रता और वैसा अधिकार, 7. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 8. देश में राजकारोबार हेतु अपने लोक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार, 9. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार। परन्तु सामाजिक बंधनों के कारण उपर्युक्त अधिकारों में से अधिकांश अधिकार अछूतों को नहीं है अथवा उनके इन अधिकारों को यहां की समाज व्यवस्था ने छीन लिया है। (4)

‘मूकनायक’ का चौथा अंक 17 मार्च, 1920 को प्रकाशित हुआ, जिसमें पाठकों के पत्र के अलावा यह सूचना भी दी गई कि आगामी संपादक ज्ञानदेव धु्रवनाथ घोलप होंगे क्योंकि डॉ.अंबेडकर अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करने लंदन जा रहे है। ‘मूकनायक’ सदा के लिए 1923 में बंद हो गया।

‘मूकनायक’ की ‘अंत्येष्टि’ से डॉ.अंबेडकर दुखी तो हुए लेकिन पत्रकारिता से मुंह न मोड़ा। लंदन से लौटते ही उन्होंने तत्कालीन चुनौतियों को स्वीकारते हुए, अछूतों के आंदोलन को नया रूप, नई दिशा एवं नया आकार देने हेतु विभिन्न आंदोलनों में अपनी सक्रियता बढ़ाई। उन्होंने 1924 में ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। अपने विचारों, आंदोलनों को सरकार, बहिष्कृत समाज तथा संवेदनशील सवर्णों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 3 अप्रैल, 1927 को ‘बहिष्कृत भारत’ पत्रिका  का संपादकत्व संभाला लेकिन क्योंकि तब उन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था। उन्होंने ‘मूकनायक’ के संबंध में लिखा- ‘‘प्रस्तुत लेखक को इस बात का खेद है कि उसने जो संकल्प ‘मूकनायक’ को आरंभ करते समय जाहिर किया था, वह बहुत दिनों तक टिका नहीं। लेकिन जो सच्चाई से अवगत है, उन्हें मालूम है कि इस संकल्प की सिद्धि न होने में उनका कोई दोष नहीं है। ‘मूकनायक’ को आरंभ करते समय प्रस्तुत लेखक को लगा कि इस तरह की सेवा का मार्ग ग्रहण करने के लिए कोई स्वतंत्र व्यवसाय शुरू करना जरूरी है। तदनुसार बैरिस्टरी जैसे सहज-साध्य परंतु स्वतंत्र व्यवसाय शुरू करने के लिए बैरिस्टरी का अपना अधूरा अध्ययन पूर्ण करने हेतु उसे विलायत जाना पड़ा।’’(5)

‘मूकनायक’ से सबक लेते हुए उन्होंने ‘‘बहिष्कृत भारत’ के प्रकाशन का निर्णय लिया तो उसके पूर्व तैयारी की। उनके जीवनीकार खैरमोड़े लिखते है, ‘बहिष्कृत भारत’ शुरू करने का जब निर्णय हुआ, तब साहेबजी ने मराठी भाषा का तथा भारत के सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों का अध्ययन शुरू किया। मराठी के अधिकांश संत-कवियों के काव्य का, उस समय प्रकाशित सभी मराठी पत्र-पत्रिकाओं का, मराठी के प्रसिद्ध लेखकों के साहित्य का वे गंभीर अध्ययन कर रहे थे। इस लेखकों की रचनाओं को तथा उस काल में प्रकाशित सभी पत्र-पत्रिकाओं को खरीदकर उनका गंभीर अध्ययन उन्होंने 5-7 महीनों में पूर्ण किया।’’(6) उन्होंने इसके लिए काफी धन लगाया, अध्ययन एवं परिश्रम किया था।

 ‘बहिष्कृत भारत’ की फुटकर कीमत डेढ़ आना और वार्षिक डाक खर्च सहित सदस्यता शुल्क थी 3 रूपये। पहले पृष्ठ के ऊपर दो आकर्षक सिंह श्रृंखला की कड़ियों में बांधे गए - ऐसा प्रतीकात्मक चित्र दिया गया। संपादक और प्रकाशक के नाम के बाद नीचे बड़े अक्षरों में संत ज्ञानेश्वर के तीसरे अध्याय का छंद दिया गया। इसके बड़े आकार में 16 पृष्ठ होते थे जिसके सभी स्तंभ अंबेडकर खुद प्रत्येक 15 दिनों में लिखते थे। उनका कोई सहसंपादक नहीं था, समयाभाव के कारण उन्होंने विज्ञापन के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया, तलाक की नोटिसे और स्तरहीन बातें वे छापते नहीं थे। हां, आंदोलन से संबंधित सभी तरह की खबरें एवं लेख इसमें अवश्य छपते थे।

 ‘बहिष्कृत भारत’ में 5 स्तंभ होते थे- आज के प्रश्न, अग्रलेख, आत्मवृत्त, विचार-विनिमय और वर्तमान सार। प्रथम एवं द्वितीय स्तंभ के अंतर्गत वे सामाजिक प्रश्नों की चर्चा करते और दलितों को लेकर सवर्णों का जो दृष्टिकोण, विचार या व्यवहार होता था, उसका विवेचन-विश्लेषण वह करता था। ‘आत्मवृत्त’ के अंतर्गत 15 दिनों की सार्वजनिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग होती थी। ‘विचार-विनिमय’ में दलितों के संगठनात्मक संस्थाओं का परिचय एवं उनकी समस्याएं होती थी और ‘वर्तमान सार’ में महाराष्ट्र एवं देश में घटित प्रमुख समाचार पत्र जिनके केन्द्र में दलित एवं उनकी समस्याएं हुआ करती थी। 20 मई, 1927 के अंक में पाठकों के पत्र छपने शुरू हुए, जुलाई 1927 के अंक में ‘बहिष्कृत भारत’ के संबंध मंे तत्कालीन मराठी पत्रिकाओं की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित की गई। वैचारिक स्तर पर किसी भी पत्रिका ने इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाई। ‘बहिष्कृत भारत’ में सिर्फ औचित्यपूर्ण प्रकाशन ही होता था अन्यथा लेखों को संपादक के मंतव्य के साथ लौटा दिया जाता था।

डॉ.अंबेडकर की तरह गांधीजी भी पत्रकार न होते हुए पत्रिका निकालते थे। दोनों में ‘पूना पैक्ट’ के बाद गहरे मतभेद पैदा हुए, दोनों के समर्थक निम्न स्तरीय भाषा का इस्तेमाल करने लगे लेकिन इन दोनों के बीच बेहद आत्मीयता थी और आदर भी। उन्होंने गांधीजी के सत्याग्रह शब्द का उपयोग ही नहीं किया वरन्, उसको महाड़ सत्याग्रह में क्रियान्वित भी किया। 23 दिसंबर, 1927 के ‘बहिष्कृत भारत’ में डॉ.अंबेडकर लिखते है, ‘‘मैं अछूतों को जब वतनदारी (वतनदारी का काम: परंपरा से अछूतों पर थोपे गए गांव के सवर्णों के घर के गंदे काम, मृत जानवरों को ढोना, उनका मांस खाना, उनके घर में फैली गंदगी साफ करना आदि काम) का काम छोड़ने को कहता हूं, तब मुझसे पूछा जाता है कि हम अपनी जीविका के लिए कौन-सा काम करें ?’’ इस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न काम सुझाते हुए डॉ.अंबेडकर लिखते है, ‘‘सभी अछूतों का कृषि से जीविका प्राप्त करना कठिन है। इसलिए कृषि के साथ उन्हें व्यवसाय करना चाहिए। ..... जिस व्यवसाय में गंदगी नहीं है अथवा जो व्यवसाय किसी विशिष्ट जाति का नहीं है, ऐसा कोई व्यवसाय वे कर सके, तो ठीक रहेगा। हमारे मतानुसार, इस वक्त ऐसा एक ही व्यवसाय है और वह खादी बेचने का। महार लोगों को मेरी व्यक्तिगत सिफारिश है कि वे खादी बुनने का काम करें। अब वे ऐसा सवाल उठाएंगे कि चरखे पर हम जो खादी बुनेंगे, उसे कौन खरीदेगा ? और उसे कोई खरीद नहीं रहा हो, तो फिर इसका क्या फायदा ? इस समस्या को सुलझाना कठिन नहीं है। महार लोगों को खुद के लिए कपड़ा खरीदना ही पड़ता है। तो अगर सभी महार खादी के पहनना शुरू करे और महारों द्वारा बुनी गई खादी को ही खरीदने का निर्णय बुनकर (ये भी तो अछूत ही है।) ले लें, तो उन्हें बुनाई के धागों के लिए अन्यों के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी अर्थात् इसके लिए थोड़ी-बहुत राशि लगेगी ही, उसकी व्यवस्था सहज हो सकती है।’’(7) इसका मतलब यह है कि दलितों के आर्थिक स्वावलंबन के लिए वे गांधी द्वारा सुझाए गए खादी का प्रचार-प्रसार ही कर रहे थे।

डॉ.अंबेडकर अंतर-जातीय विवाह (वे इसके लिए ‘मिश्र विवाह’ शब्द का प्रयोग करते थे) के पक्षधर थे और अपने पाठकों को इसकी सूचना भी देते थे, साथ ही मिश्र विवाह करनेवालों का अभिनंदन भी करते थे। 1 मार्च, 1929 के ‘बहिष्कृत भारत’ में उन्होंने इसका जिक्र किया है और इसे क्रांतिकारी घटना माना है।(8) भारत में ही नहीं वरन् विश्व के किसी भी कोने में स्थापित श्रेणीबद्धता की प्रथा को वे अमानवीय मानते थे। ‘बहिष्कृत भारत’ के 15 मार्च, 1930 के अंक में उन्होंने अफ्रिका में अछूतों की स्थिति पर टिप्पणी लिखी थी। इसी अंक में विवेकानंद को उधृत करते हुए उन्होंने लिखा कि विवेकानंद का संदेश है, ‘उठो्! मर्द बनो! प्रगति के रास्ते में प्रतिरोध करने वाले भिक्षुक, पुरोहित वर्ग को ठोकर मारकर उड़ा दो क्योंकि इस वर्ग में सुधार की कोई संभावना नहीं है। इस वर्ग का अंतःकरण कभी भी विशाल हो नहीं सकता। यह वर्ग सैकड़ों वर्षों से रूढ़ियों तथा अत्याचारों का गुलाम है। सबसे पहले पैरोहित्यशाही को नष्ट करे। उठो! मर्द बनो! अपने संकुचित दम घोटनेवाले घोंसले से बाहर निकलो तथा चारों ओर नजर फेको।’(9)

‘बहिष्कृत भारत’ शुरू करने से पूर्व ‘बहिष्कृत फंड’ हेतु डॉ.अंबेडकर ने आह्वान किया था, परंतु लोगों से ऐसा प्रतिसाद उन्हें नहीं मिल पाया। एक वर्ष में इस पत्रिका पर 5 सौ रूपये का कर्ज चढ़ गया। इतना आर्थिक नुकसान के बाद भी 3 साल तक वे पत्रिका निकालते रहे। आर्थिक अभाव, अकेले व्यक्ति द्वारा लेखन, प्रतिकूल परिस्थिति की मजबूरीवश 15 नवंबर, 1929 को ‘बहिष्कृत भारत’ का अंतिम अंक प्रकाशित हुआ।

‘बहिष्कृत भारत’ की उपलब्धियों पर डॉ.. गंगाधर पानतावणे की यह महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया है, ‘‘‘बहिष्कृत भारत’ एक आंधी थी। हिन्दू समाज में आया हुआ यह एक तूफान था। डॉ.अंबेडकर के ब्राह्मण सहयोगी ‘समता’ पत्र के संपादक श्री दे.वि.नाईक ने तत्कालीन ब्राह्मणों से यह सिफारिश की थी कि वे अंबेडकर के इस लेख को पढ़े। निरंतर मीठी चीजें ही निरंतर अच्छी लगती है मीठी चीजों को ही ग्रहण करने की आदत बहुत दिनों से लग जाने से डॉ.अंबेडकर यह लेखन जहर की तरह कड़वा लगेगा परंतु बाद में यह अहसास होगा कि यह तो अमृत की तरह मीठा है।(10)

‘बहिष्कृत भारत’ बंद होने के उपरांत देवराव कृष्ण नाईक के संपादकत्व में 24 नवंबर, 1930 को ‘जनता’ का पहला अंक आया। डॉ.अंबेडकर की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी, उनका व्यक्तित्व दलित-सवर्ण के विभेद से ऊपर चला गया था, उनके विचारों पर लोगों ने अमल करना शुरू कर दिया था। फलतः नाईक को भार देकर डॉ.अंबेडकर मुक्तभाव से ‘जनता’ में लिखते रहे। आरंभ में यह पाक्षिक था, बाद में 31 अक्टूबर, 1931 से यह साप्ताहिक हो गया। इसके फुटकर अंक की कीमत डेढ़ आना तथा वार्षिक सदस्यता 2 रूपये 10 आने की थी। पत्रिका के शीर्ष पर ‘डॉ.भीमराव अंबेडकर, एम. ए., पीएच.डी., डीएस.सी., बार-एट-लाॅ’ के नेतृत्व में निकलनेवाला यह जनहित प्रवर्तक पाक्षिक पत्र ‘जनता’ मुद्रित होता था। ‘जनता’ में लिखने की उत्कठ अभिलाषा के बावजूद डॉ.अंबेडकर नियमित नहीं लिख सकते थे क्योंकि उनकी अन्य व्यस्तताएं थी। 7 जून, 1933 के अंक में उन्होने लिखा, ‘‘अपने स्वावलंबन तथा भविष्य के राजनैतिक अधिकारों के लिए इस पत्रिका को बनाए रखना, इसे समृद्ध और संपन्न बनाना हमारी जिम्मेदारी है। आज भले ही ‘जनता’ पत्र का महत्व आप समझ नहीं पा रहे हो, तो भी इसका सही अहसास निकट भविष्य में होगा।’’(11) 23 सितंबर, 1931 को अपने प्रिय शिष्य दादा साहेब गायकवाड़ को लंदन से पत्र में उन्होंने लिखा, ‘जनता’ पत्र में लेखन हेतु मैं अपनी पूरी शक्ति केन्द्रित करने की सोच रहा हूं। यहां जो घटित हो रहा है, उसे नियमितता के साथ ‘जनता’ पत्र तक पहुंचाना चाहता हूं।’(12)

‘जनता’ में प्रकाशित डॉ.अंबेडकर के 40 वैविध्यपूर्ण लेखों का संग्रह मुंबई विश्वविद्यालय के मराठी विभाग ने ‘जनता पत्रातीत लेख’ नाम से प्रकाशित किया है, जिसमें उनकी संतुलित भाषा, प्रमाणिकता और विवेक का दर्शन हमें होता है। ‘जनता’ साप्ताहिक विभिन्न संपादकों के संपादकत्व में खंडित रूप से 25 वर्षों तक निकलता रहा और 14 फरवरी, 1955 को इसका नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया गया।

महात्मा गांधी और डॉ.अंबेडकर के मतभेद जगजाहिर है। उन्होंने गांधी की अहिंसा नीति को अवसरवादी भी कहा लेकिन पूरी बौद्धिकता और नीतिमत्ता के साथ वैचारिक मतभेदों को उन्होंने स्पष्ट किया, लेकिन कभी भी कमर के नीचे प्रहार नहीं किया। गांधीजी ने अंबेडकर की देशभक्ति एवं विनम्रता का सदैव आदर किया और यह माना कि उनकी आक्रामकता, उनकी स्थिति एवं परिस्थिति के कारण है। डॉ.. अंबेडकर को संविधान सभा में लेने का आग्रह और उन्हें संविधान समिति का अध्यक्ष बनाने का आग्रह भी गांधीजी का था। दूसरी ओर, बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पहले पत्रकार परिषद में डॉ.. अंबेडकर ने स्पष्ट किया बौद्ध धर्म स्वीकारने का निर्णय क्यों लिया ? उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘‘ मैं मि.गांधी को ऐसा आश्वासन दे चुका कि मैं कम-से-कम हानिकारक मार्ग को चुनूंगा। उस आश्वासन के अनुसार बौद्ध धम्म को स्वीकार कर मैं हिन्दू समाज की दृष्टि से एक उपकारक कृत्य ही कर रहा हूं क्योंकि बौद्ध धम्म् भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है।’’(13)

अछूतों के प्रश्न को वे हिन्दूओं के घर का नहीं, वरन् अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखते थे। उन्होंने देश की पतितावस्था को अछूत व्यक्ति और पिछड़ेपन से जोड़कर देखा। उन्होंने हिन्दू, मुसलमान और ईसाई को मिलकर अछूतों की मुक्ति का प्रयत्न करने को कहा। (‘जनता’, 22 फरवरी, 1936)

विभिन्न लेखों में व्यक्त उनके विचार आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने पहले भाषायी राज्य का विरोध किया, फिर स्वागत किया क्योंकि उनकी नजर में अगर समाज की सभी इकाईयों को न्याय देना ही गणतंत्र का लक्ष्य है, तो छोटे-छोटे प्रदेशों का निर्माण जरूरी है। (‘जनता’, 2 जून, 1956) उन्होंने उच्च शिक्षा का माध्यम पूरे देश में हिन्दी माना और भावनात्मक एकता तथा राष्ट्रीय एकात्मकता को हिन्दी द्वारा ही संभव माना।

‘मूकनायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ में वे हिन्दुत्ववादी संगठनों की पोल खोलते है और ‘जनता’ में उनकी पाखंडी वृत्ति का पर्दाफाश करते है। हिन्दुत्ववादियों और अंग्रेजों की असलियत का भण्डाफोड़ करते हुए वे बैरिस्टर सावरकर की बदलती भूमिका को भी स्पष्ट करते हुए लिखते है, ‘‘उनके इस प्रकार के व्यवहार से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू महासभा, यह संस्था पूर्णतः ब्राह्मणशाही के अधीन चली गई है।(‘जनता’, 9 अगस्त, 1948) (14)

उन्होंने सब समय समतामूलक समाज की वकालत की, जो स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की नींव पर खड़ी हों। वे विवेक संपन्न और बुद्धिवादी थे, उनका समाज चिंतन वायवीं नहीं बल्कि ठोस यथार्थ पर खड़ा था। उनके चिंतन में संपूर्ण समाज की चिंता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि उनका झगड़ा किसी जाति, वर्ण से नहीं बल्कि ब्राह्मण मानसिकता से है, ब्राह्मण जाति से नहीं। मैं और मेरी जाति श्रेष्ठ, शेष कनिष्ठ- यह वृत्ति ही ब्राह्मणवृत्ति है, जिसे उन्होंने समाज और राष्ट्र के लिए घातक निरूपित किया।

‘जनता’ साप्ताहिक विभिन्न संपादकों के संपादकत्व में खंडित रूप से 25 वर्षों तक निकलता रहा और 14 फरवरी, 1955 को इसका नाम बदलकर ‘प्रभुद्ध भारत’ कर दिया गया। 4 फरवरी, 1956 से 6 दिसम्बर, 1956 तक नियमित प्रकाशित ‘प्रबुद्ध भारत’ के कुछ अंकों में उन्होंने लेखन भी किया। 3 अक्टूबर, 1954 को अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना हुई और ‘प्रबुद्ध भारत’ इस पार्टी का मुखपत्र बन गया। समाज प्रबोधन के लिए शुरू की गई यह पत्रिका अब राजनैतिक पार्टी प्रचार पत्र बन गया।

‘मूकनायक’ से ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की डॉ.अंबेडकर की पत्रकारिता की जो यात्रा है, वह उनके सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक जीवन की संघर्ष यात्रा है। इन 36 वर्षों में उनके विचारों में आए क्रमिक परिवर्तन को इन पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों मंे देखा जा सकता है। ये दलित आंदोलन के मील स्तंभ है। डॉ.अंबेडकर ने समाज स्थिति से समझौता नहीं बल्कि उसे बदलने का जो व्रत लिया था, ये उनके हथियार थे। इन पत्रिकाओं ने समतामूलक समाज की स्थापना में अप्रतिम योगदान किया और दलित और सवर्ण के भेदभाव को मिटाने मेंमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पत्रकारिता को डॉ.अंबेडकर ने समाज परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम माना। अपने चाहनेवालों को प्रबुद्ध बना, उनमें नई सोच पैदा करना, उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना - ये उनका उद्देश्य था। उन्होंने पत्रकारित का ये ध्येय निर्धारित किए थे। मराठी पत्रकारिता के इतिहास में डॉ.अंबेडकर की पत्रकारिता मील स्तंभ है।

 

संदर्भ सूची:-

1- कांबले, अरूण (संपादक): जनता, प्रस्तावना, पृष्ठ-1

2- मून, वसंत (संपादक): डॉ.. बाबासाहेब अंबेडकर याचे ‘बहिष्कृत भारत’ आणि ‘मूकनायक’, पृष्ठ-345

3- वही, पृष्ठ-345

4- वही, पृष्ठ-359

5- पुजारी, दत्तात्रेय (अनुवाद): डॉ.अंबेडकर द्वारा विरचित ’बहिष्कृत भारत’ के अग्रलेख (हिन्दी), पुजारी, गीता प्रथम खण्ड पृष्ठ-2

6- खैरमोड़े, चां.भा.: ‘डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर चरित’ (खण्ड 2), पृष्ठ-132

7- मून, वसंत (संपादक): डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर याचे ‘बहिष्कृत भारत’ आणि ‘मूकनायक’, पृष्ठ-150

8- वही, पृष्ठ-239

9- वही, पृष्ठ-247

10- पानतावणे, डॉ.गंगाधर: पत्रकार डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर, पृष्ठ-65

11- वही, पृष्ठ-65

12- गणवीर, डॉ.रत्नाकर (संपादक): विलायतेतून डॉ.बाबासाहेबाची पत्रे, पृष्ठ-49

13- नाईक, देवराव कृष्ण (संपादक): ‘प्रबुद्ध भारत’ (विशेषांक), दिनांक 27 अक्टूबर, 1956

14- कांबले, अरूण (संपादक): ‘जनता’ पत्रातीत लेख, पृष्ठ-295

लेखक शासकीय महाविद्यालय, मोहन बड़ोदिया, जिला-शाजापुर (मध्यप्रदेश) में राजनीति विज्ञान विषय के प्राध्यापक हैं।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना