मीडिया कमाई के बहाने ये साबित करना चाहता है कि 'भगवे ' ने ' एसिड 'को पटखनी दे दी!
राजेश कुमार/ गत सप्ताह शुक्रवार को दोनों फिल्में एक साथ रिलीज हुई। मामला तूल पकड़ा जब दीपिका जेएनयू पर हुए संघी हमले के विरोध में आइशी घोष के समर्थन में खड़ी हुई। जैसे संघियों को बहाना मिल गया हो। हर तरफ से बायकाट का उदघोष करना शुरू कर दिया। पोलिटिकल लोगों के विरोध की बात तो समझ में आती है, जब शाहजहांपुर, बरेली, बनारस और भागलपुर के रंगकर्मियों के पोस्ट में बॉयकॉट के पोस्टर दिखने लगे तो सोचने को मजबूर कर दिया कि साम्प्रदायिकता का जहर कितना फैल गया है। कुछ रंगकर्मी इस मुगालते में रहते हैं कि रंगकर्म में जात- पात, धर्म का भेदभाव नहीं होता है। जैसे आर्मी में जाते जात - पात , धर्म का भेद भाव मिट जाता है, रंगकर्म में भी वैसा ही। वहां कोई जाति नहीं होती है, मजहब का कोई अंतर नहीं होता है। सब एक होते हैं, ये इससे ऊपर होते हैं।
पूरा मीडिया हफ्ते भर से यही साबित करने में लगा है कि 'तानाजी' ने इतना कमाया तो ' छप्पाक' ने कितना? अर्थात कमाई के बहाने से ये साबित करना चाहते हैं कि 'भगवे ' ने ' एसिड 'को पटखनी दे दी। यह साबित करने में लगी रही कि दीपिका के जेएनयू जाने का निर्णय गलत था। वे इतने दुराग्रह से भरे थे कि मध्य प्रदेश की सरकार ने अगर ' छप्पाक ' को टैक्स फ्री किया तो योगी सरकार ने भी उत्तर प्रदेश के लिए ऐलान कर दिया।
'तानाजी' फ़िल्म बिल्कुल संघी, हिंदूवादी एजेंडे पर बनाई गई है। शिवाजी की औरंगजेब से जो लड़ाई थी, दो राजनीतिक सत्ता की थी। कहीं से दो धर्मों के बीच लड़ाई नहीं थी। अगर ऐसा होता तो शिवाजी की कमान थामे मुसलमान नहीं होते या औरंगजेब के तरफ से हिन्दू नहीं लड़ रहे होते। इस फ़िल्म में तानाजी के विरुद्ध जिस चरित्र को खड़ा किया गया है वो उदयभान है। उसे निर्देशक ने इतना अमानवीय, क्रूर और जालिम बना रखा है कि 'पद्मावती' के खिलजी की याद आती है। घड़ियाल का मांस बर्बर ढंग से खाते हुए दिखाया गया है। इस फ़िल्म को निर्देशक ने ब्राह्मणवादी नजरिये से जान बूझ कर रखने की कोशिश की गई है। उदयभान को पहले तो क्षत्रिय बताते हैं, बाद में ये तर्क देने की कोशिश करते हैं कि उदयभान इतना क्रूर, गद्दार, देशद्रोही इसलिए था क्योंकि उसका रक्त शुद्ध नहीं था। उदयभान जिस रानी को उठाकर लाया है, प्रारम्भिक दिनों में रानी उससे इसलिए शादी करने से इनकार कर देती है कि उसका पिता तो क्षत्रिय था, मां शुद्र, निचले जाति की थी। उसी के प्रतिकार में उदयभान उसके पति की हत्या करने के बाद सती पर बैठी रानी को जबरन उठा कर लाया था। फ़िल्म सती व्यवस्था को वैसे ही महिमामंडित करती है जैसे बाल विवाह को। फ़िल्म में दर्जनों बार भगवा रंग, भगवा झंडे और भगवा राज को स्थापित और गौरान्वित करती दिखती है। फ़िल्म में जो लाउड म्यूजिक है और जिस तरह धार्मिक श्लोक का अतिरंजित रूप से इस्तेमाल किया गया है, लगता है शिवाजी के स्वराज के लिए लड़ाई नहीं लड़ी जा रही है बल्कि दंगे में एक समुदाय दूसरे से लड़ रहा हो। तानाजी को पूरी तरह से मुस्लिम विरोधी बनाया गया है जब कि इन्हीं लोगों ने शिवाजी के राज्यभिषेक में कम अड़चन नहीं डाली थी। कोई ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ तो बनारस से गागा भट्ट को बुलाया गया था और वो भी ढेर सारी स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद।
इसके बरक्स मेघना गुलजार की फ़िल्म इतनी जमीनी है कि शायद ही कोई होगा जो संवेदना के स्तर पर जुड़ न जाता होगा। 'छप्पाक' फ़िल्म 'तानाजी 'के उलट है। यह बार बार पितृसत्ता, मर्दवाद और ब्राह्मणवादी चिंतन पर जगह - जगह प्रहार करती दिखती है। समाज में जब कोई महिला अपना निर्णय लेती है, एकतरफा आदेश को इनकार करती है तो जो समाज है, उसे नागवार लगता है और ऐसे लोगों को कभी पेड़ से लटका देते हैं या मुंह पर तेजाब फेंक देते हैं। दीपिका, विक्रांत के लाजवाब अभिनय और मेघना के सुलझे निर्देशक के लिए यह फ़िल्म देर तक याद की जाएगी।
'तानाजी' जहां केवल धार्मिक उन्माद भरने की कोशिश करती है, वही 'छप्पाक ' दिल में धीरे से उतरती है और देर तक सोचने के लिए विवश करती है।