जीवन ज्योति/ अभी कुछ ही दिन पहले बिहार के मीडिया गलियारों में एक सनसनी दौड़ी कि “नीतीश कुमार बेसुध!” कहा गया कि वे अपने पुराने साथी को पहचान नहीं पाए, यहां तक कि नालंदा में हिलसा कहां है, ये तक पूछ बैठे।
फिर दो दिन बाद उसी मीडिया ने खबर दौड़ाई कि “सीएम नीतीश गुस्से में तमतमाए, अशोक चौधरी पर फायर!” बताया गया कि नीतीश ने भ्रष्टाचार के आरोपों से बिफरकर मंत्री को खरी-खोटी सुना दी।
कुछ दिग्गज पत्रकारों ने तो यहां तक दावा कर दिया कि सीएम हाउस में एक केंद्रीय मंत्री को भी नीतीश ने गारिया दिया।
लेकिन ठहरिए…
अगले ही दिन तस्वीर आई। अरुण कुमार और उनके बेटे की जेडीयू में ज्वाइनिंग। और तस्वीर में कौन थे? वही अशोक चौधरी, नीतीश के साथ खड़े, मुस्कुराते हुए।
अब तक वही पत्रकार दावा कर रहे थे कि सीट शेयरिंग का पूरा खेल नीतीश नहीं, बल्कि ललन सिंह और संजय झा चला रहे हैं।
और कुछ घंटे बाद खबर पलट दी गई कि “नीतीश इतने गुस्से में हैं कि एनडीए की बैठक टल गई, अब अमित शाह को खुद पटना आना पड़ा।” तो पूछना लाजमी है कि
आखिर तय कौन करेगा कि नीतीश बेहोश हैं, बेसुध हैं या बेहद होश में गुस्से में हैं?
कभी "थके नीतीश", कभी "भड़के नीतीश"। ये न्यूज़ है या स्क्रिप्टेड ड्रामा?
पत्रकारिता के तथाकथित “भीष्म पितामह” और “फर्जी सूत्रों” की फैक्ट्री से अनुरोध है कि व्यूज की भूख में सच का गला मत घोंटिए।
हर अफवाह को “एक्सक्लूसिव सूत्रों” की चाशनी में लपेटकर मत परोसिए। क्योंकि जब जनता को यह दिखने लगता है कि खबरें खबर नहीं, वायरल पैकेज बन गई हैं,
तो भरोसा टूटता है और पत्रकारिता अपनी आत्मा खो देती है।
























