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मीडियामोरचा

___________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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स्वस्थ दिमाग़ का मीडिया ऐसा तो नहीं होता !

विनीत कुमार/ न्यूजरूम का जो हाल मीडियाकर्मियों ने बना दिया है, एक संवेदनशील, तार्किक और समझदार व्यक्ति या तो यहां लंबे समय तक टिक नहीं सकता और यदि टिका रह गया तो उसके मानसिक स्वास्थ्य का जर्जर होना तय है.

मैं ग़ौर करता हूं कि स्क्रीन के कई उभरते चेहरे एकदम से ग़ायब हो जाते है. कुछ दिनों तक मैं अपने स्तर पर खोजबीन करता हूं. लंबे समय बाद, आमने-सामने जब होते हैं तो बताते हैं कि मेरे मन पर, मेंटल हेल्थ पर बहुत ही खराब असर पड़ने लगा था तो ये पेशा ही छोड़ दिया. मुझे रोज़ लगता कि हम क्या कर रहे हैं और भीतर बहुत कुछ मरता हुआ महसूस होता. तनाव, खीज, ऊब और बेचैनी ऐसी होने लगी कि किसी पर भी कभी भी चिल्लाने लग जाता ऐर कोई न हो तो अकेले में लगता खूब चीखूं, चिल्लाऊं.

टेलिविज़न कितना सुंदर माध्यम रहा है और उसका न्यूज चैनलों ने क्या हाल कर दिया ! डिजिटल मीडिया कितना संभावनाओं से भरा माध्यम रहा है, क्लिक-बेट से बने व्यावसायिक सेहत ने लोगों के मानसिक सेहत को कितना खराब कर दिया है, इन सब पर गहनता से अध्ययन बाक़ी है. फिलहाल तो हमारी आंखों से सामग्री गुज़रती है, कहीं से महसूस नहीं होता कि इसे एक स्वस्थ दिमाग़ और स्वस्थ दिमाग़ के समूह ने अपने देश के नागरिकों को ध्यान में रखकर तैयार किया है.

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना