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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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वह बोलना भूल गए हैं!

शकील अख्तर / मीडिया पूरी तरह अनुशासित हो गया है।

पहले चित्र में पिंजरे में बंद चुप!

दूसरे चित्र में उसके बाद लोकसभा अध्यक्ष को चुपचाप सुनता हुआ!

अब हुआ क्या?

क्या आज कैमरामैन फोटोग्राफर अपने कैमरे के साथ नई संसद के अंदर जा सकेंगे?

पुरानी संसद में तो जाते थे।

क्या लोकसभा के एनुअल पास सत्र के दौरान काम करना शुरू कर देंगे?

पहले तो हमेशा करते थे। एनुअल पास का मतलब यही होता था। मगर अब सत्र के दौरान एनुअल पास कैंसिल हो जाते हैं और पत्रकार कैमरामैन फोटोग्राफरों को सत्र का पास अलग से बनवाना पड़ता है। हर सत्र में हर बार।

ऐसा क्यों? फिर एनुअल पास का क्या मतलब हुआ?

इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

क्या नई संसद में PTI UNI रेडियो को कमरे अलाट कर दिए जाएंगे? जो पुरानी संसद में थे। अभी भी इन ऑफिशल मीडिया को खबर भेजने के लिए नई संसद से पुरानी सांसद भागना पड़ता है।

क्या पत्रकारों के लिए अलग कैंटीन की व्यवस्था हो जाएगी? जैसे पुरानी संसद में थी। कैंटीन बैठकर खाने की सुविधा के साथ।

यहां स्टाफ के साथ है और केवल खड़े होकर ही खा सकते हैं। और वह भी अगर मिल जाए तो क्योंकि भीड़ बहुत होती है। संसद का स्टाफ CISF जिनकी संख्या 4000 है और विजिटर। सब एक ही कैंटीन में। इसी में मीडिया।

क्या लोकसभा और राज्यसभा की प्रेस एडवाइजरी कमेटी बन जाएगी जो पिछले 5 साल से नहीं बनी है। ‌पहले पत्रकारों की यही कमेटी पत्रकारों से संबंधित सारे मामले देखती थी।‌

क्या लोकसभा और राज्यसभा की प्रेस गैलरी में जाने से पहले पत्रकारों के फोन रखने के लिए पुरानी संसद की तरह खुले खाने गैलरी के बिल्कुल नजदीक बन जाएंगे। जहां वे फोन रख सके और अंदर से आकर कोई जरूरी सूचना फोन से देकर फिर अंदर जा सकें। जैसा पुरानी लोकसभा में करते थे। ‌और असुविधाजनक दो चाबियां का छल्ला वहां अंदर नहीं ले जाना पड़ता था जो यहां ताला लगाकर ले जाना पड़ता है।

क्या लोकसभा की प्रेस गैलरी में राज्यसभा के सांसदों का आना बंद किया जाएगा?

राज्यसभा सांसदों को अलग गैलरी दी जाएगी? जैसी पुरानी लोकसभा में थी।

क्या लोकसभा और राज्यसभा के बीच में फर्स्ट फ्लोर पर पत्रकारों के लिए कोई अलग हाल अलाट किया जाएगा जहां बैठकर वह काम कर सकें?

सवाल बहुत सारे हैं

और समस्याएं भी।

इन सब का समाधान हुए बिना पत्रकारों को पहले की तरह काम की आजादी नहीं मिलेगी।

पिंजरे का साइज बढ़ाने से कुछ नहीं होगा पहले की तरह मुक्त आकाश देना होगा।

पत्रकारों को भी थोड़ा ध्यान रखना पड़ेगा कि क्या वह पहले की तरह उड़ने काबिल बचे हैं या पिंजरे में बंद रहते रहते इसके आदी हो गए हैं!

दोनों चित्रों में तो यही दिख रहा है कि वह बोलना भूल गए हैं।

Shakeel Akhtar

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना