हेमंत कुमार। राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण इस देश में विमर्श का बड़ा मुद्दा रहा है. लेकिन पत्रकारिता के अपराधीकरण पर कभी कोई चर्चा नहीं होती. हां,शोर तब मचता है जब कोई पत्रकार वसूली या भयादोहन करते, अपराधियों या पुलिस के साथ मिलकर अपहरण,फिरौती या रंगदारी जैसे संगीन जुर्म मे पकड़ा अथवा शामिल पाया जाता है.
करीब दशक भर पहले एक बड़े पुलिस अधिकारी ने एक मुलाकात के दौरान आधा दर्जन ऐसे पत्रकारों की सूची दिखायी थी जो अपहरण और फिरौती का गिरोह संचालित करनेवाले अपराधियों से जुड़े थे. वे सब एक ही जिले से थे. वे अपराधियों को पुलिस की मुहिम या योजना लीक करते थे. उन्हें पुलिस की दबिश से बचाते थे. कभी-कभी पुलिसवालों से उनका सौदा कराते थे. वांटेड अपराधियों को एनकाउंटर से बचाने के लिए उनके दबोचे जाने की गुप्त खबर अखबार में छापकर सार्वजनिक कर दिया करते थे.अगले दिन पुलिस हाथ मलते रह जाती थी.
अपराधियों के खिलाफ स्टोरी लिखनेवाले पत्रकारों की गतिविधियां अपराधियों को बताना, धमकी भरे फोन काल करवाना अथवा दफ्तर में घुसकर धमकाने-हरकाने जैसे हथकंडे अपनाना उनके मुख्य काम थे. उन पुलिस अधिकारी ने कहा था जो सूची आप देख रहे हैं, वह पूरी छानबीन कर बनायी गयी है.अपराधी गिरोहों के साथ पत्रकारों के रिश्तों को स्थापित करने के लिए उनके फोन काल डिटेल और और मेल-जोल के ब्योरे तैयार किये गये थे. दरअसल ,यह रिपोर्ट तब बनी जब कई बड़े अपहरण के मामलों को ट्रैक करने के दौरान पुलिस को अपनी योजना लीक होने का संदेह हुआ और छानबीन की गयी.
पत्रकारिता के अपराधीकरण का यह नमूना एक शहर का है , लेकिन यह ट्रेंड कमोबेश पूरे बिहार में पसरा था. दशक भर पहले की यह बीमारी अब दूसरे रूपों में नजर आती है. मसलन, ठेका,पट्टा, लैंड डिलिंग,लैंड ग्रैबिंग, इमेज बनाना या बिगाड़ना आदि. ठेकेदारों और नेताओं के इशारे पर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ आधारहीन स्टोरी प्लांट करने की घटनाएं पुरानी नहीं हैं. ऐसे कामों में रिस्क कम और मुनाफा अधिक है. बहुत हद तक प्रबंधन भी ऐसे तत्वों को तरजीह देता है क्योंकि ऐसे लोग कारोबारी हितों के रक्षक मान लिए जाते हैं.