अब इस विधा में कुछ बचा नहीं है.
विनीत कुमार/ चूंकि मुझे इतनी बात मालूम है कि किसी चैनल या डिजिटल प्लेटफॉर्म को किसी नामचीन चेहरे को इंटरव्यू के लिए तैयार करने में कितनी मशक्क़त करनी पड़ती है तो उसके पीछे का गुणा-गणित भी समझ आता है. बावज़ूद इसके मैं देख लेता हूं कि मेरे साथ न देखने का कोई विकल्प नहीं होता.
देखते हुए ग़ौर करता हूं कि इंटरव्यू प्रसारित करने से पहले प्रोमो-टीजर इस अंदाज़ में काटते हैं कि जैसे इंटरव्यू में वो नामचीन हाथ-पैर जोड़ते हुए, मीडियाकर्मी को माफ़ी दे दियो माई-बाप की मुद्रा में आ जाएगा. पूरा इंटरव्यू देखने के बाद वही ढाक के तीन पात. मैं ऐसे में साफ़ महसूस करता हूं कि हर ऐसे मीडियाकर्मी के भीतर करन थापर का दिल धड़कने की कोशिश को करता है लेकिन फिर ध्यान आ जाता है कि चूंकि मैं क्रेडेबल चेहरा ही नहीं हूं तो इस कोशिश का कोई मतलब ही नहीं रह जाता, लिहाज़ा फिर उसी पुराने अंदाज़ पर लौट आता है.
चुनावी माहौल बनना शुरु हो गया है. मैंने पहले भी कहा था, एक बार फिर दोहरा रहा हूं- नामचीन के इंटरव्यू महज मीडियाकर्मी और प्लेटफॉर्म की हैसियत जताने के माध्यम भर रह गए हैं. उससे ज़्यादा अब इस विधा में कुछ बचा नहीं है.