ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंटस फोरम द्वारा जारी पुस्तिका ''किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन? (महिषासुर : एक पुर्नपाठ)'' का संपादकीय
प्रमोद रंजन / महिषासुर के नाम से शुरू हुआ यह आंदोलन क्या है? इसकी आवश्कता क्या है? इसके निहितार्थ क्या हैं? यह कुछ सवाल हैं, जो बाहर से हमारी तरफ उछाले जाएंगे. लेकिन इसी कडी में एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल होगा, जो हमें खुद से पूछना होगा कि हम इस आंदोलन को किस दृष्टिकोण से देखें? यानी, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम एक मिथकीय नायक पर कहां खडे होकर नजर डाल रहे हैं. एक महान सांस्कृतिक युद्ध में छलांग लगाने से पूर्व हमें अपने लांचिंग पैड की जांच ठीक तरह से कर लेनी चाहिए.
हमारे पास जोतिबा फूले, डॉ आम्बेडकर और रामास्वामी पेरियार की तेजस्वी परंपरा है, जिसने आधुनिक काल में मिथकों के वैज्ञानिक अध्ययन की जमीन तैयार की है. महिषासुर को अपना नायक घोषित करने वाले इस आंदोलन को भी खुद को इसी परंपरा से जोडना होगा. जाहिर है, किसी भी प्रकार के धार्मिक कर्मकांड से तो इसे दूर रखना ही होगा, साथ ही मार्क्सवादी प्रविधियां भी इस आंदोलन में काम न आएंगी. न सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर बल्कि ठोस, जमीनी स्तर पर भी इस आंदोलन को कर्मकांडियों और मार्क्सवादियों के लिए, समान रूप से, अपने दरवाजे कडाई से बंद करने होंगे. आंदोलन जैसे-जैसे गति पकडता जाएगा, ये दोनों ही चोर दरवाजों से इसमें प्रवेश के लिए उत्सुक होंगे.
सांस्कृतिक गुलामी क्रमश: सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूत करती है. उत्तर भारत में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक गुलामी के विरूद्ध तो संघर्ष हुआ लेकिन सांस्कृतिक गुलामी अभी भी लगभग अछूती रही है. जो संघर्ष हुए भी, वे प्रायः धर्म सुधार के लिए हुए अथवा उनका दायरा हिंदू धर्म के इर्द-गिर्द ही रहा. हिंदू धर्म की नाभि पर प्रहार करने वाला आंदोलन कोई न हुआ. महिषासुर आंदोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिदू धर्म की जीवन-शक्ति पर चोट करने की क्षमता रखता है. इस आंदोलन के मुख्य रूप से दो दावेदार हैं, एक तो हिंदू धर्म के भीतर का सबसे बडा तबका, जिसे हम आज ओबीसी के नाम से जानते हैं, दूसरा दावेदार हिंदू धर्म से बाहर है - आदिवासी. अगर यह आंदोलन इसी गति से आगे बढता रहा तो हिंदू धर्म को भीतर और बाहर, दोनों ओर से करारी चोट देगा. इस आंदोलन का एक फलीतार्थ यह भी निकलेगा कि हिंदू धर्म द्वारा दमित अन्य सामाजिक समूह भी धर्मग्रंथों के पाठों का विखंडन आरंभ करेंगे और अपने पाठ निर्मित करेंगे. इन नये पाठों की आवाजें जितनी मुखर होंगी, बहुजनों की सांस्कृतिक गुलामी की जंजीरें उतनी ही तेजी से टूटेंगीं.