पुस्तक समीक्षा /एम. अफसर खां सागर /व्यंग्य विधा से कथा और उपन्यास के क्षेत्र में पदापर्ण करने वाले रामजी प्रसाद ‘भैरव’ अपनी पहली कृति ‘रक्त बीज के वंशज’ में औपन्यासिक मापदण्डों पर खरे उतरते हैं। उपन्यास की कथावस्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश में चन्दौली जनपद के चहनियां ब्लाक के स्थानीय जनजीनवन का सजीव चित्रण है। लेखक ने उपन्यास के माध्यम से स्थानीय जनजीनवन की बारीकीयों, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक गतिविधियों का सूक्ष्म चित्रण किया है। शिल्प और विषयवस्तु एक-दूसरे में बहुत ही सहज गुंथे हुए हैं। लेखक पात्रों के संवाद में लोकभाषा को ज्यादा तरजीह देते हुए अक्सर खुद भी घुल-मिल जाता है। पात्रों के कथोपकथन और वार्तालाप में प्रचलित लोकोक्तियों, कहावतों और गालियों आदि का स्वाभाविक और रोचक ढ़ंग से भोजपुरी और खड़ी बोली का प्रयोग उपन्यास को रोचक बनता है।
पूरे उपन्यास में न तो कोई नायक है और ना ही कोई नायीका बल्कि विगत और वर्तमान की घटनाओं का उत्तम सम्मिश्रण और विश्लेषण है। लेखक ने जाति समूहों के प्रतिनिधियों के गुण, स्वभाव, व्यवसाय और पारस्परिक सम्बंधों का विश्लेषण किया है। ग्रामीण परिवेश में जाति प्रथा का दंश, प्राइमरी स्कूल में डिप्टी साहब के दौरे का भय, ठाकुर की जमींदारी का रौब, लच्छु मिश्र, पेवारू साहु, फेकु नोनिया गांव के जीवन का अटूट हिस्सा हैं। खण्डी मां के नाम पर खण्डवारी गांव का नामकरण, क्षेत्र में शिक्षा के लिए राजेन्द्र सिंह का योगदान, परदे के फिल्म का ग्रामीण युवाओं में आकर्षण व मुंहनोचवा के आतंक का बखूबी चित्रण मिलता है।
प्राचीन समय में लोगों का त्यौहारों और मेलों के प्रति रूचि, रामलीला, नौटंकी, नटुये का नाच, बलुआं में गंगा स्नान का महत्व, शादी-विवाह में भाड मण्डली, खेल-कूद में कबड्डी, कुश्ती, फर्री जोड़ी-गदा, नाल इत्यदी के प्रदर्शन का जीवंत वर्णन है। बीसूपुर व महुआरी के बीच पत्थरबाजी, गांवों में चुनाव के दौरान गोलबन्दी, जातिगत समीकरण, राजनीति में भ्रष्टाचार का समावेश, मनरेगा में भ्रष्टाचार का बोलबाला व पुरानी परम्पराएं और अंधविश्वास को भी लेखन ने उकेरा है। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन व बाबा रामदेव के स्वदेशी अपनाओ व विदेश में काला धन को वापस लाने के लिए आन्दोलन पर गांव के लोगों की सोच को भी लेखक ने बखूबी पेश किया है।
रामजी प्रसाद ‘भैरव’ ने विम्ब संयोजन को इतना प्रभावी बनाया है कि आप पढ़ते वक्त उक्त ग्रामीण अंचल की यात्रा पर होते हैं। आंचलिक शबदावलियां बहुसंख्यक के रूप में हैं। संवाद की जीवंतता के साथ लोक-आंचलिक हास-परिहास की अनूठी प्रस्तुती पाठकों को बेहद पसंद आयेगी। प्रस्तुत उपन्यास आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की याद दिलाती है। आधुनिक आंचलिक उपन्यासों में यह उपन्यास अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब होगी। निःसन्देह रचना अत्यन्त उपयोगी, संग्रहणीय तथा पठनीय है।
पुस्तक- रक्त बीज के वंशज (उपन्यास),
लेखक- रामजी प्रसाद ‘भैरव’
प्रकाशक- पुस्तक पथ, साकेत नगर, वाराणसी,
मूल्य- 300 रूपये (पेपर बैक)।