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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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कुछ तो लोग कहेंगे...लोगों का काम है कहना

डॉ. विनीत उत्पल/ संजय द्विवेदी महज एक नाम है। वह नाम नहीं, जिसके आगे प्रोफेसर या डॉक्टर लगा हो। वह नाम नहीं, जिसके बाद महानिदेशक या कुलपति लगा हो। यह नाम है ऐसे शख्स का, जो समाज के एक तबके से लेकर किसी संस्थान या फिर राष्ट्र की तकदीर बदलनी की क्षमता रखता है। वह राख की एक छोटी-सी चिंगारी को भी विराट स्वरूप में लाने की क्षमता रखता है। वह किसी अनगढ़ पत्थर को छू ले, तो वह खुद को तराश कर सुन्दर बन जाता है।

संजय द्विवेदी वह नाम है, जिसे हर कोई चुनौती देता है, मगर वह आग की भट्टी से जलकर कोयला नहीं, बल्कि तपकर सोना बनकर निकलते हैं। इनके तमाम परम मित्र इनकी योग्यता और नियुक्तियों को कोर्ट में जाकर चुनौती देते हैं और फिर कोर्ट की ‘मुहर’ लगने के बाद ही इन्हें खुलकर खेलने के लिए पूरी फील्ड खाली कर देते हैं। इनके प्रिय मित्र तमाम जगह इनकी बड़ाई या बुराई ऐसे करते हैं कि लोगों को समझ में आ जाता है कि संजय द्विवेदी में कुछ बात तो है, कुछ दम तो है, जो सामने वाला शख्स अपना समय, अपना तन-मन-धन उनके बारे में सोचने में लगा रहा है। संजय द्विवेदी खुद ही संजय द्विवेदी के विकल्प हैं और कोई नहीं।

संजय द्विवेदी पत्रकार, शिक्षक, नौकरशाह, राजनेता सहित आम लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये रहते हैं। उनके मित्र तो उन्हें दिलोजान से चाहते ही हैं, उनका विरोध करने वाले भी इतनी मुस्तैदी से उनके सामने खड़े रहते हैं, जिससे वे अपने कर्तव्यपथ से विचलित न हों तथा समाज व राष्ट्र को नई दिशा देते रहें। संजय द्विवेदी के पास जीवन बदलने वाले शब्द हैं, जिन्हें सुनकर और आत्मसात कर कोई भी अपने जीवन की दिशा और दशा बदल सकता है।

लोकेन्द्र सिंह द्वारा संपादित ‘…लोगों का काम है कहना : प्रो. संजय द्विवेदी पर एकाग्र’ नामक पुस्तक में संजय द्विवेदी को काफी बेहतरीन ढंग से परखा गया है। इस पुस्तक में सिर्फ 15 आलेख हैं, जो संजय द्विवेदी की चारित्रिक विशेषता सहित उनके कार्यों, कार्य पद्धति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। कृपाशंकर चौबे, लोकेंद्र सिंह, गिरीश पंकज, प्रो. प्रमोद कुमार, डॉ. सी. जयशंकर बाबु, प्रो. पवित्र श्रीवास्तव, यशवंत गोहिल, बीके सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कौंडल ने बड़ी गहराई से प्रो. संजय द्विवेदी को पहचाना है, चिंतन किया है और उनके कार्यों को रेखांकित किया है।

इसी पुस्तक में फ्लैप पर साहित्य अकादमी की उपाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा लिखती हैं कि प्रोफेसर संजय द्विवेदी के लेखन की सबसे खास बात है कि वे देश की अस्मिता से गहराई से परिचित कराते हैं। संजय परम्परा से जुड़कर राष्ट्रीयता और भारतीयता को निरंतर व्याख्यायित करते हैं। जड़ों से जुडी हुई भारतीय चेतना के वे सजग व्याख्याकार हैं। नए भारत के विमर्शों को वे सामने लेकर आ रहे हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संजय द्विवेदी की सृजन सक्रियता विस्मयकारी है। यही बात कृपाशंकर चौबे भी कहते हैं। लोकेन्द्र सिंह भी कहते हैं कि किसी के लिए वे एक गंभीर लेखक हैं। किसी ने उनमें ओजस्वी वक्ता देखा है। संपादक की छवि भी उनके व्यक्तित्व में दिखाई देती है। वे कुशल राजनीतिक विश्लेषक हैं। कुछ के लिए वे सिद्ध जनसम्पर्कधर्मी हैं। विद्यार्थी उन्हें एक आदर्श शिक्षक के रूप में देखते हैं। वे जिस भूमिका में होते हैं, उसके साथ न्याय करते हैं। लेखक और पत्रकार की भूमिका होती है कि वे अपने समय और चुनौतियों से संवाद करे और नागरिकों  का प्रबोधन करे। कलम से लेकर की-बोर्ड का सिपाही बनकर इस भूमिका का निर्वहन प्रो. द्विवेदी ने कुशलता से किया है।

प्रो. संजय द्विवेदी ने अब तक दर्जनों पुस्तकें लिखीं हैं और करीब दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया है। ‘मीडिया विमर्श’ उनके संपादकीय कौशल की साक्षी है। पत्रकारीय जीवन से लेकर अकादमिक जगत में सक्रिय रहते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने विविध भूमिकाओं में रहते हुए समाधानमूलक दृष्टि को प्रोत्साहन  करने का काम किया है। समाधानमूलक एवं सकारात्मक पत्रकारिता के लिए के विमर्श स्थापित करने पर बल दिया है। यही कारण है कि संजय द्विवेदी कहते हैं, “मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उनसे उपजी सफलताएं हैं। मैं चाहता हूँ कि सफलताओं के पीछे का परिश्रम सामने आये और यह अन्य के लिए प्रेरणा का काम करे।” उनकी सफलताएं अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकती हैं।

अपने लेख में गिरीश पंकज कहते हैं कि संजय द्विवेदी पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से जुड़कर लिखते हैं। जो विचारवान होता है, लिखता-पढता है, वह यशार्जन भी तो करता है। संजय का सृजन बोलता है, उसके भीतर की बेचैनी लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में बाहर आती है, उसके मौलिक चिंतन में एक आग है, जो  परिवर्तनकामी है। करुणा का भाव ही संजय जैसे लोगों को बड़ा बनाता है, सफल बनाता है। निर्मल मन के स्वामी बनकर जीवन जीते रहें। निरंतर लिखते रहें। उन्होंने अनेक संभावनाशील युवा पत्रकारों की टीम खड़ी कर दी। वे आगे लिखते हैं, संजय को अभी और आगे जाना है। अभी तो यह अंगड़ाई है। लंबा जीवन पड़ा है। इस जीवन को और अधिक चमकदार बनाना है। और यह संतोष की बात है कि जीवन और ज्यादा चमकदार कैसे बने, इसका नुस्खा तो संजय के पास पहले से ही मौजूद है।

गिरीश पंकज कहते हैं कि संजय उसी विश्वविद्यालय में कुलसचिव और प्रभारी कुलपति बने, जहां उन्होंने पढ़ाई की। उनको भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) का महानिदेशक बना दिया गया। तीन साल दिल्ली में रहकर संस्थान को इतना सक्रिय बना दिया कि सब चमत्कृत हो गए। हर शुक्रवार को पत्रकारिता और अन्य विषयों पर ऑनलाइन संवाद होते रहे। बाद के उन आयोजनों में जुए विमर्शों को लिपिबद्ध करके एक पुस्तक ‘शुक्रवार संवाद’ भी प्रकाशित हो गई और एक तरह का ऐतिहासिक दस्तावेज ही बन गया। संस्थान इसके पहले कभी भी इतना सक्रिय नहीं रहा। सभी दंग हैं कि ऐसा भी हो सकता है। व्यक्ति की अपनी ऊर्जा, संकल्प-शक्ति और सतत चिंतन के कारण सृजन का रास्ता खुलता चला जाता है। गौरतलब है कि जो श्रमवीर होते हैं, जो लगनशील होते है, उनके लिए नये-नये रस्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं।

प्रो. प्रमोद कुमार लिखते हैं कि प्रो. संजय द्विवेदी का का लेखन अथक, अविरत जारी है। मीडिया गुरु, पत्रकार, लेखक और प्रभावी संचारक प्रो. द्विवेदी के व्यक्तित्व का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है एक दूरदृष्टा प्रशासक और कुशल योजक। आईआईएमसी को लेकर उनके मन में कुछ ठोस कल्पनाएं पहले से स्पष्ट थीं, जिन्हें मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उनके पास ठोस योजनाएं भी थीं। उनके व्यक्तित्व के प्रशासकीय पक्ष पर जब मैं विचार करता हूँ तो स्पष्ट नजर आता है कि वे कड़े निर्णय लेने में संकोच नहीं करते।

भारतीय जन संचार संस्थान को लेकर प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, प्रो. द्विवेदी द्वारा आईआईएमसी में जो नए प्रयोग किये गए हैं, उनमें एक है, ‘शुक्रवार संवाद।’ शिक्षा संस्थानों के क्लासरूम में पाठ्यक्रम की मर्यादा रहती ही है, परन्तु मीडिया विद्यार्थियों के लिए ऐसे बहुत से विषय है जो पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होते, परंतु उन पर उनका प्रबोधन आवश्यक है। उदाहरण के लिए भारत की निर्वाचन प्रक्रिया की समझ, पर्यावरण, संविधान, मीडिया और लोक कलाओं की समझ, एक संचारक के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, तिलक, आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी आदि महापुरुषों के बारे में जानकारी। ‘संचार माध्यम’ और ‘कम्युनिकेटर’ आईआईएमसी द्वारा प्रकाशित दो यूजीसी-केयर सूचीबद्ध शोध पत्रिकाएं हैं। दोनों शोध पत्रिकाओं के अलावा प्रो. द्विवेदी की पहल पर राजभाषा हिंदी को समर्पित पत्रिका ‘राजभाषा विमर्श’ का नियमित प्रकाशन हो रहा है। ‘संचार सृजन’ नाम से एक नई पत्रिका और ‘आईआईएमसी न्यूज़’ नाम से एक मासिक न्यूज़लेटर भी आरम्भ किया गया है। डिजिटल मीडिया पर केंद्रित एक नया स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किया गया है।

प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, एक बात जो प्रो. द्विवेदी को एक कुशल प्रशासक बनाती है, वह है लीक से हटकर सोचना। भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय का हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर नामकरण इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। ‘उदंत मार्तंड’ के संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर यह देश में प्रथम स्मारक है। प्रो. द्विवेदी के लिए संस्थान में काम काम करने वाला कोई भी व्यक्ति अनुपयोगी नहीं है। वे हर व्यक्ति से उसकी क्षमतानुसार काम ले लेते हैं। एक सफल प्रशासक और योजक के लिए इससे बड़ा  गुण और क्या हो सकता है।

वहीं, डॉ. सी. जयशंकर बाबु का कहना है कि संजय द्विवेदी के लेखन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना उनके विराट आत्मीय व्यक्तित्व की तमाम विशेषताओं के साथ उपस्थित हो जाती है। वे जहाँ गंभीर तेवर के साथ भी अपनी लेखनी चलाते हैं, उस लेखन के अंतस में कई कोमल भावनाएं होती हैं। उनकी लेखनी में जनहित, राष्ट्रहित के साथ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना की प्रबलता हम देख सकते हैं। संजयजी अपने विशिष्ट व्यक्तित्व, विराट चिंतन, विनम्रता, शालीनता, श्रद्धा, प्रेम, भाईचारा, मानवता जैसे विराट मूल्यों से सींचकर अपनी बात को अपने पाठकों के ह्रदय तक प्रभावशाली ढंग से पहुंचा देते हैं। संजय जी की शोध दृष्टि में परंपरा के प्रति आदर है और आधुनिकता के प्रति सजगता है। वे भारत के हर अंचल के हर पत्रकार के प्रदेयों को, मीडिया की हर किसी प्रवृति पर सार्थक विमर्श को अपने शोध में भी आत्मीयतापूर्वक जगह देते हैं। एक जाग्रत पत्रकार और निष्ठावान शिक्षक के रूप में वे सदा लोकजागरण में अपनी सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। संजय जी एक लेखक से बढ़कर पत्रकार हैं। लेखक से ज्यादा तेज वे गंभीर चिंतन के वे स्वामी हैं।

प्रो. (डॉ.) पवित्र श्रीवास्तव लिखते हैं कि हर समय मैंने उन्हें कुछ नया करने की ऊर्जा से लबरेज पाया। संजय द्विवेदी का सामाजिक जीवन, पत्रकारिता प्रोफेशन एवं शिक्षण-प्रशिक्षण में लगभग तीन दशक से अधिक का अनुभव है और इस दौरान उन्होंने मीडिया जगत, अकादमिक जगत और जनमानस में जो पहचान बनाई है, उससे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि संजय द्विवेदी अब एक ब्रांड बन गए हैं। अपनी व्यवहार कुशलता, रिश्तों को सहेजकर चलने की उनकी अदा से वे कब सीनियर से हमारे मित्र, पारिवारिक सदस्य, मार्गदर्शक और सहकर्मी बन गए, पता ही नहीं चला। उनके पहलू बड़े साफ हैं। वे अपनी सहमति-असहमति और नाराजगी स्पष्ट रूप से जाहिर करते हैं और यही गुण उन्हें एक अच्छे पत्रकार और एक अच्छे लेखक के रूप में स्थापित करता है। वे किसी सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम के बाद उस सन्दर्भ में पूरी पृष्ठभूमि को समझकर केवल सार्थक टिप्पणी एवं विश्लेषण नहीं करते, बल्कि पूर्ण निष्पक्षता और गंभीरता के साथ उस पर अपनी राय  करते हैं।

इस पुस्तक में यशवंत गोहिल, बीके सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, डॉ. दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कौंडल ने भी संजय द्विवेदी पर अपने विचार रखे हैं। पुस्तक के संपादक लोकेन्द्र सिंह लिखते हैं कि एक कुशल संचारक की भांति संजय द्विवेदी लगातार अपने समय से संवाद भी कर रहे हैं और लेखन एवं संपादन के माध्यम से भी सामाजिक विमर्श में अपना योगदान दे रहे हैं। वे जिस विश्वविद्यालय से पढ़े, वहीं पत्रकारिता के आचार्य हुए और कुलपति का गुरुतर दायित्व भी संभाला। उनकी विशेषता यह है कि अपनी इस यात्रा में उन्होंने अपने पत्रकारीय, शैक्षिक और प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करने के साथ ही सामाजिक दायित्व को भी समझा और समाज के लिए उपयोगी साहित्य की रचना की।

बहरहाल, यश पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘…लोगों का काम है कहना’ संजय द्विवेदी के यश को पाठकों के सामने रखती है और लोगों के दिलो-दिमाग पर किस तरह वे छाये रहते हैं, इसकी बानगी भी इस पुस्तक के पृष्ठों पर मिलती है। कुल मिलाकर 160 पृष्ठ की यह पुस्तक पढ़ने और गुनने योग्य है, जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए।

पुस्तक - ...लोगों का काम है कहना : प्रो. संजय द्विवेदी पर एकाग्र

संपादक : लोकेन्द्र सिंह

पृष्ठ : 156

मूल्य : 350 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान के जम्मू परिसर में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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सम्पादक

डॉ. लीना