'जन मीडिया' का जनवरी 2020 अंक
डॉ लीना/ 'जन मीडिया', जनवरी 2020 का अंक काफी खास है। “हमारा समाज, हमारा शोध” पंचलाइन के साथ सालों से हर महीने प्रकाशित होने वाले 'जन मीडिया' के इस अंक में कश्मीर मुद्दा, टीवी चैनलों को सेल्फ सेंसरशिप, बीबीसी के शार्ट वेब रेडियो सर्विस के बंद होने तथा नागरिकता (संशोधन) विधेयक और हिंदी अखबार को विषय बनाया है ।
'नागरिकता (संशोधन) कानून के लिए सरकार की मंजूरी पर हिंदी अखबारों के शीर्षक' को केंद्र में रख मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अध्ययन किया है। अध्ययन में नवोदय टाइम्स, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, अमर उजाला और दैनिक भास्कर अखबार का चयन किया गया है। अखबारों के शीर्षक के साथ विश्लेषण भी किया गया है। अध्धयन में बताया गया कि समाचारों को प्रस्तुत करने के तरीकों में आमतौर पर दो तरह के दृष्टिकोण रखते हैं एक दृष्टिकोण सरकार के किसी फैसले पर प्रतिक्रिया का होता है और दूसरों दृष्टिकोण सरकार के फैसलों को प्रचारित करना होता है। नागरिकता संशोधन कानून के लिए केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी की खबरों के लिए हिंदी अखबारों ने उसके राजनीतिक उद्देश्यों को प्रचारित करने वाली भाषा के शीर्षक तैयार किया है। अखबार जब यह लिखते हैं कि गैर मुस्लिम है ...तो स्वागत ! या गैर मुस्लिम प्रवासी बन सकेंगे भारतीय, कैबिनेट की मंजूरी। संसदीय व्यवस्था में सरकार कोई फैसला करती है तो उसके उद्देश्य सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक आधारों को मजबूत करना होता है। इस फैसले का उद्देश्य और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार निश्चित रूप से इसका प्रचार चाहती है । अध्ययन कहता है कि संविधान की अवधारणा के अनुसार विपक्षी पार्टियां धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में है या कहने की बजाय समाचार माध्यमों ने विपक्षी पार्टियों के विरोध को इस्लाम के समर्थक के रूप में प्रस्तुत किया । इस अध्ययन में जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह ने भी सहयोग दिया है।
शोध संदर्भ में इस बार कश्मीर मुद्दा को उठाया गया है। अतुल देव ने 'कश्मीर: हालात को सामान्य बताने का मीडिया सिद्धांत' पर कलम चलाई है। कश्मीर में 370 अनुच्छेद को तत्काल प्रभाव से हटाने की घोषणा के बाद वहां के हालात पर मीडिया रिपोर्ट के उस पक्ष को लेखक ने सामने लाया है जिसे भारतीय मीडिया लाने की कोशिश में पूरी ईमानदारी से नहीं दिखी। 370 के हटने के बाद वहां के आंदोलन की खबर को जहां भारतीय मीडिया ने जगह नहीं दी वहीं विदेशी मीडिया ने आंदोलन की खबर को तरज़ीह दी। हालांकि सरकार ने तुरंत बयान जारी किया और कहा कि ऐसा कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं । गृह मंत्रालय ने 10 अगस्त 2019 को ट्वीट किया यह खबर पूरी तरह मनगढ़ंत और झूठी है । वही वह इस खबर के खंडन को भारतीय मीडिया ने जगह दी । राहुल देव ने चार अंग्रेजी भाषा के बड़े दैनिक अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द हिंदू और द इंडियन एक्सप्रेस के बारे में लिखा कि इन्होंने ना तो इस वाक्य को कवर किया और न ही इसके महत्व को बहुत अधिक कम करके दिखाया। द हिंदू ने 10 अगस्त 2019 को एक छोटी सी खबर में इस घटना का जिक्र किया, पर विस्तार से 9 अगस्त 2019 को श्रीनगर के सौरा इलाके में सरकार के खिलाफ हुए बड़े प्रदर्शन की खबरों पर भारतीय मीडिया के नजर नहीं जाने और विदेशी मीडिया के जाने की तथा सरकार द्वारा प्रदर्शन की खबर के खंडन करने का, शोध आलेख में केंद्रित है ।
विश्लेषण में इस बार 'टीवी चैनलों को सेल्फ सेंसरशिप के लिए दिशा निर्देश' पर जसपाल सिंह सिद्धू ने लिखा है कि सरकार द्वारा 11 दिसंबर 2019 और 20 दिसंबर 2019 को टीवी चैनलों के लिए जारी दिशानिर्देश की चर्चा , जिसमें चैनलों से प्रसारित की जाने वाली अपनी सामग्री को लेकर अधिक सतर्कता बरतने को कहा गया है कहां गया । दिशा निर्देश में चैनलों से अपेक्षा की गई थी कि उनकी सामग्री हिंसा भड़काने वाली राष्ट्र की एकता को खंडित करने वाले ना हो और किसी व्यक्ति सार्वजनिक समूह और लोगों के नैतिक जीवन को बदनाम ना करती हो । लेखक लिखते हैं मीडिया संबंधी परोक्ष अधिकारी संदेश सत्ता देशों की राजनीति के अनुकूल चलने का होता है । सत्ता द्वारा प्रेस के लिए ऐसे दिशा निर्देश पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे संघर्षग्रस्त क्षेत्र में अक्सर जारी जाते हैं। निर्देशित करने और उन्हें लाने के लिए होते हैं । यह दिशानिर्देश मीडिया प्रबंधन और जमीन पर काम करने वाले मीडिया कर्मियों को सचेत करने पर उन्हें लगातार याद दिलाने के लिए होता है। दिशानिर्देश पिछले दरवाजे से सेंसरशिप का इंतजाम है और मीडिया कर्मियों को सेल्फ सेंसरशिप के लिए राजी करने का प्रयास भी है।
हैदराबाद और उन्नाव रेप केस संदर्भ में रखकर अरविंद शेष ने मीडिया में हो रही रिपोर्टिंग पर कलम चलाई है । विश्लेषण किया है । 'खास तरह का नजरिया बनाने के लिए रिपोर्टिंग', दुष्कर्म की खबरों पर मीडिया रिपोर्टिंग के नजरिए का विश्लेषण करते हुए लेखक ने लिखा है कि तेलंगाना के हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक युवती से बलात्कार और उसकी हत्या की खबर मीडिया ने जम कर दिखाया वहीं कुछ खबरों को कम आकलन करके दिखाया गया । लेखक सवाल उठाते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ, क्या हैदराबाद की घटना की कवरेज से भारतीय मीडिया टीवी मीडिया इतना ज्यादा थक गया था कि वह उन्नाव की घटना पर कुछ कहने के लिए ऊर्जा नहीं पा रहा था । क्या लोगों के भीतर गुस्सा या आक्रोश खत्म हो गया था, यह अध्ययन का विषय है। जब हैदराबाद की घटना के संदर्भ में एक आरोपी के नाम के मद्देनजर किसी खास धर्म पर निशाना साधने को गलत बताया गया, उन्नाव की घटना में दलील बनाने की कोशिश हुई कि उन्नाव के आरोपियों के नाम और उनकी जाति क्यों नहीं बताई जा रही है । दोनों मामलों के आरोपियों को एक ही नजरिए से देखने की गुहार लगाने के पीछे सचमुच क्या इतना ही भोलापन है यह याद रखना चाहिए कि हैदराबाद की घटना में पकड़े गए युवक फिलहाल आरोपी थे और उन पर आरोप सिद्ध होना बाकी था जबकि उन्नाव की घटना में बलात्कार के बाद जला दी गई पीड़िता के ने साफ शब्दों में पुलिस को अपने हमलावरों के नाम बताए थे। सवाल फिर उठाते हैं कि समाज और मीडिया की नजर में आरोपी और अपराधी का फर्क क्यों मिट गया है। विश्लेषण में लेखक लिखते हैं, क्या ध्यान रखना चाहिए कि दुनिया भर में बलात्कार और उससे जुड़ी रिपोर्ट या किसी भी तरह के लेखन के लिए स्त्री संवेदना के साथ विशेष प्रशिक्षण की जरूरत आज भी जताई जाती है। भारत में लेखन का वर्चस्व किनके हाथों में है यह किसी से छिपा नहीं है समाज से लेकर मीडिया तक ऊंची कही जाने वाली जातियों और पुरुषों के कब्जे में है ।
मीडिया के किस्से के तहत 'पत्रकारिता पढ़ने वाले कम, पढ़ाई की फीस ज्यादा' आलेख में भावी पत्रकारों के भविष्य पर वरुण शैलेश ने कलम चलाई है । भारतीय जनसंचार संस्थान विभिन्न भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, उड़िया, उर्दू और मलयालम में पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों का संचालन करता है। इन पाठ्यक्रमों में रेडियो एंड टेलिविजन पत्रकारिता के अलावा विज्ञापन और जनसंपर्क भी शामिल है। लेखक ने 2009-10 के शैक्षिक वर्ष के बाद विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए शुल्क वृद्धि पर तुलनात्मक अध्ययन किया है।
भारत सिंह ने 'बीबीसी की शार्ट वेब रेडियो सर्विस बंद' पर आलेख लिखा है। इसकी वजहों को तलाशने की विस्तार से कोशिश की है कि सर्विस क्यों बंद हो गई है। वही नंदिनी सिन्हा ने 'बांग्लादेश मुक्ति युद्घ पर एक मीडिया दृष्टिकोण' आलेख में विभिन्न अखबारों के दृष्टिकोण को सामने रखने की कोशिश है। किस तरह से बांग्लादेश युद्ध की रिपोर्टिंग का आकलन पत्रकार करते रहे हैं । धर्मयुग के संपादक रहे डॉ धर्मवीर भारती का भी जिक्र है। 1971 में मुक्ति वाहिनी के संग्राम का विवरण देने के लिए खुद वे वहां पहुंच गए थे । इस बात का भी जिक्र आलेख में किया गया है। विष्णु कांत शास्त्री की रपट की भी चर्चा लेखक ने किया। देशी विदेशी पत्र पत्रिकाओं की रिपोटिंग का विश्लेषण है।
हर बार की तरह जन मीडिया का 94वां अंक जहां पत्रकारिता संस्थान के छात्रों के लिए पठनीय और सराहनीय है, वही पत्रकारिता जगत के दिग्गजों और सभी पत्रकारों के लिए भी जरूरी पत्रिका है । ताकि वे सच्चाई को करीब से देखें और उसका आकलन कर 'जन' मीडिया की वकालत करें । जनता के लिए मीडिया खड़ी नहीं होगी तो सवाल तो उठेंगे ही । भले ही सवाल पत्रिका 'जन मीडिया' ने ही उठाया हो!
पत्रिका- जन मीडिया
संपादक- अनिल चमडिया
अंक -94, माह , जनवरी 2020
मूल्य- ₹20
संपर्क -C2 पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली 110042 मोबाइल नंबर 96543 25899
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