हो रही चारों ओर निंदा, कई साहित्यकारों व संगठनों ने किया बहिष्कार
डॉ. लीना/ पटना/ कठुआ दुष्कर्म को लेकर “बच्ची से नहीं हुआ था दुष्कर्म” शीर्षक से खबर छापने के बाद कल से ही अख़बार की निंदा की जा रही है. साहित्यकारों, पत्रकारों सहित आमजन भी इसे प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता की संज्ञा दे रहे हैं. इसी मीडिया समूह द्वारा आज से शुरू हो रहे दो दिवसीय बिहार संवादी कार्यक्रम का आयोजन पटना में किया जा रहा है. प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता और बिहार संवादी एक साथ नही चलेगी- कह कर इसका बहिष्कार करने की अपील कई साहित्यकारों व संगठनों ने किया है. संवादी कार्यक्रम में आमंत्रित कई साहित्यकारों ने तो इसका बहिष्कार करना शुरू कर दिया है और वहां न जाने और आयोजन से खुद को अलग करने की सोशल मीडिया पर भी घोषणा कर चुके हैं. इनमें ध्रुव गुप्त, तारानंद वियोगी, राकेश रंजन, निवेदिता शामिल हैं.
जसम ने भी अपील कर दी है कि साहित्यकार बिहार संवादी में भाग न लें. जलेस इलाहाबाद, अनहद और पहली बार की तरफ से संतोष चतुर्वेदी जी ने भी अपील कर दी है कि साहित्यकार बिहार संवादी का बहिष्कार करें.
वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने दैनिक जागरण की इस खबर को 'सीधा-सीधा फासिज्म को प्रमोट करने वाला बताते हुए अखबार की इस अमानीय व बर्बर हरकत की भर्त्सना की। उन्होंने आगे कहा कि अखबार द्वारा बलात्कारियों के पक्ष में इस हद तक की गलतबयानी करना उस बच्ची के साथ बलात्कार करने जैसा ही है।
तारानंद वियोगी कहते हैं कि एक लेखक के रूप में 'बिहार-संवादी' में शामिल होने की सहमति मैंने दी थी। वे मुझसे सीता पर बात करनेवाले थे। मैं भी उत्साह में था कि बोलूंगा। खासकर, राम से परित्यक्त होने के बाद सीता की जो दशा थी, उनका जो भयानक जीवनसंघर्ष था, उसपर रचे मिथकों के हवाले से कुछ बात करूंगा। मिथिला में प्रचलित सीता की लोकगाथा 'लवहरि कुसहरि' को लेकर, कि कैसे उस दुखियारी औरत ने जंगल में रहकर, लकड़ी चुनकर, कंद-फल बीनकर अपने दो बालकों का प्रतिपाल किया, उन्हें लायक बनाया। ध्यान दीजिएगा, मिथिला में लोकगाथाएं बहुत हैं पर वे या तो दलितों की हैं या वंचितों की। लेकिन, सीता और उसके दो बच्चों की लोकगाथा है। लेकिन, मैं क्या करूं! दुनिया जानती है कि सीता का एक नाम 'मैथिली' भी है। और यह भी कि कठुआ की बेटी आसिफा भी एक छोटी-मोटी सीता ही थी।
निवेदिता अपने फेसबुक वाल पर आज फिर लिखती हैं- 17 जनवरी 2018 की कठुआ बलात्कार मामले को लेकर जागरण की ख़बर से गहरे आक्रोश में हूँ . कल हमने जागरण के संपादक के नाम ख़त लिखा था और उम्मीद की थी की वे इन मामलों के प्रति अपनी राय साफ करेंगे . मुझे कोई जबाब नहीं आया . और आज फिर से उसी खबर को जागरण ने छापा है . ये खबर पत्रकारिता के मूल्य को शर्मशार करते हैं . जागरण ने मुझे अपने संवादी आयोजन में आमंत्रित किया है . इस शर्मनाक खबर के बाद में अपने को इस आयोजन से अलग करती हूँ .
देखना है बाकी के साहित्य संगठन अपने लेखकों से अपील करते हैं या नहीं? साथ ही आज कार्यक्रम में कितने साहित्यकार मौजूद रहते हैं?